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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 13
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - षड्जः
    108

    ये दे॒वा दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑ना संवत्स॒रीण॒मुप॑ भा॒गमास॑ते। अ॒हु॒तादो॑ ह॒विषो॑ य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्त्स्व॒यं पि॑बन्तु॒ मधु॑नो घृ॒तस्य॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः। दे॒वाना॑म्। य॒ज्ञियाः॑। य॒ज्ञिया॑नाम्। सं॒व॒त्स॒रीण॑म्। उप॑। भा॒गम्। आस॑ते। अ॒हु॒ताद॒ इत्य॑हुत॒ऽअदः॑। ह॒विषः॑। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। स्व॒यम्। पि॒ब॒न्तु॒। मधु॑नः। घृ॒तस्य॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा देवानाँयज्ञिया यज्ञियानाँ सँवत्सरीणमुप भागमासते । अहुतादो हविषो यज्ञेऽअस्मिन्त्स्वयम्पिबन्तु मधुनो घृतस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। देवानाम्। यज्ञियाः। यज्ञियानाम्। संवत्सरीणम्। उप। भागम्। आसते। अहुताद इत्यहुतऽअदः। हविषः। यज्ञे। अस्मिन्। स्वयम्। पिबन्तु। मधुनः। घृतस्य॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 13
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ संन्यासिभिः किं कार्यमित्याह॥

    अन्वयः

    ये देवानां मध्येऽहुतादो देवा यज्ञियानां मध्ये यज्ञिया विद्वांसः संवत्सरीणं भागमुपासते, तेऽस्मिन् यज्ञे मधुनो घृतस्य हविषो भागं स्वयं पिबन्तु॥१३॥

    पदार्थः

    (ये) (देवाः) विद्वांसः (देवानाम्) विदुषाम् (यज्ञियाः) ये यज्ञमर्हन्ति ते (यज्ञियानाम्) यज्ञसम्पादनकुशलानाम् (संवत्सरीणम्) यः संवत्सरं भृतस्तम् । संपरिपूर्वात् खच्॥ (अष्टा॰५.१.९२) इति भृतार्थे खः (उप) (भागम्) सेवनीयम् (आसते) (अहुतादः) येऽहुतमदन्ति ते (हविषः) होतव्यस्य (यज्ञे) संगन्तव्ये (अस्मिन्) (स्वयम्) (पिबन्तु) (मधुनः) क्षौद्रस्य (घृतस्य) आज्यस्य जलस्य वा॥१३॥

    भावार्थः

    येऽस्मिन् संसारे अनग्नयोऽर्थादाहवनीयगार्हपत्यदक्षिणाग्निसम्बन्धिबाह्यकर्माणि विहायान्तरग्नयः संन्यासिनः सन्ति, ते होममकुर्वन्तो भुञ्जानाः सर्वत्र विहृत्य सर्वान् जनान् वेदार्थान् बोधयेयुः॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब संन्यासियों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (ये) जो (देवानाम्) विद्वानों में (अहुतादः) बिना हवन किये हुए पदार्थ का भोजन करनेहारे (देवाः) विद्वान् (यज्ञियानाम्) वा यज्ञ करने में कुशल पुरुषों में (यज्ञियाः) योगाभ्यासादि यज्ञ के योग्य विद्वान् लोग (संवत्सरीणम्) वर्ष भर पुष्ट किये (भागम्) सेवने योग्य उत्तम परमात्मा की (उपासते) उपासना करते हैं, वे (अस्मिन्) इस (यज्ञे) समागमरूप यज्ञ में (मधुनः) शहत (घृतस्य) जल और (हविषः) हवन के योग्य पदार्थों के भाग को (स्वयम्) अपने आप (पिबन्तु) सेवन करें॥१३॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् लोग इस संसार में अग्निक्रिया से रहित अर्थात् आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि सम्बन्धी बाह्य कर्मों को छोड़ के आभ्यन्तर अग्नि को धारण करने वाले संन्यासी हैं, वे होम को नहीं किये भोजन करते हुए सर्वत्र विचर के सब मनुष्यों को वेदार्थ का उपदेश किया करें॥१३॥

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    विषय

    विद्वानों का वार्षिक उपहार और वेतन ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( देवानां ) दानशील, राजाओं में भी ( देवाः ) विद्या और ज्ञान के देने वाले उत्कृष्ट विद्वान् हैं और ( यज्ञियानां ) यज्ञ करने वालों के भी ( यज्ञियाः ) पूजनीय ज्ञान योगी और राष्ट्र संगति करने वाले व्यवस्थापकों में भी ( यज्ञियाः ) प्राणों के समान स्वयं संगति बनाने वाले विद्वान् महात्मा लोग हैं जो ( संवत्सरीणम् ) एक वर्ष के बाद प्राप्त होने वाले वार्षिक भेंट ( भागम् ) अन्न आदि ऐश्वर्य को अथवा वर्ष भर अपने भीतर पुष्ट किये अभ्यस्त ( भागम् ) सेवनोपासना योग्य ब्रह्मज्ञान या ब्रह्मचर्य की उपासना करते हैं वे ( यज्ञे ) इस राष्ट्रमय यज्ञ में भी ( अहुताद : ) राजा से दिये वेतन को भोग न करने वाले होकर ( अस्मिन् यज्ञे ) इस राष्ट्र रूप यज्ञ में ( मधुमतः ) अन्न और ( घृतस्य ) तेजोदायक पुष्टिकारक पदार्थों का ( स्वयं पिबन्तु ) स्वयं यथेच्छ उपभोग करें । शत० ९ । २ । १ । १४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लोपामुद्रा ऋषिका । प्राणा देवताः । आर्षी जगती । निषादः ॥

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    विषय

    'लोपामुद्रा' का जीवन

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (देवानां देवाः) = देवों में भी देव हैं, विद्वानों में भी विद्वान् हैं, अर्थात् उच्च कोटि के ज्ञानी हैं । २. (यज्ञियानां यज्ञियाः) = यज्ञशीलों में भी यज्ञशील हैं, अधिक-से-अधिक यज्ञिय वृत्तिवाले हैं। ३. (संवत्सरीणम्) = संवत्सर में होनेवाले, अर्थात् वर्षभर के (भागम्) = अपने कर्त्तव्यभाग की (उपासते) = उपासना करते हैं, अर्थात् प्रतिवर्ष का अपना कार्यक्रम बनाकर उसे पूरा करने का ध्यान करते हैं । ४. (अहुतादः) = दान दिये हुए को [हु दान] नहीं खाते, अर्थात् कभी दानवृत्ति पर आश्रित नहीं होते, अपितु ५. (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवनयज्ञ में (हविष:) = सदा हविरूप बनने का प्रयत्न करते हैं, [जुहोति इति हविः = जो देता है] सदा देते हैं, प्रतिग्रह से नहीं जीते। ५. (स्वयम्) = अपने पुरुषार्थ से म(धुनः) = मधु का व (घृतस्य) = घृत का (पिबन्तु) = पान करनेवाले बनते हैं, अर्थात् स्वयं पुरुषार्थ से कमाकर शहद व घृत आदि उत्तम पदार्थों का ही प्रयोग करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम जीवन के लक्षण ये हैं १. ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान। २. यज्ञिय वृत्ति । ३. जीवन को कार्यक्रम के साथ चलाना । ४. दान से जीविका न करना। ५. जीवन-यज्ञ में हविरूप बनना । ६. स्वयं पुरुषार्थ से कमाकर घृत, शहद आदि उत्तम पदार्थों का सेवन करना।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे विद्वान या संसारात अग्निहोत्र करत नाहीत अर्थात गार्हपत्य व दक्षिणाग्नीसंबंधी बाह्य कर्म सोडून आभ्यंतर अग्नी धारण करतात ते संन्याशी होत. (हवन न करताही भोजन करून) त्यांनी सर्वत्र संचार करून सर्व माणसांना वेदाचा उपदेश करावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात संन्यासी लोकांची कर्तव्यें काय, याविषयी कथन केले आहे –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (ये) जी माणसें (देवानाम्‌) विद्वज्जनांपैकी (अहुताद:) हवन न करता अन्नग्रहण करणारे असतात (म्हणजे संन्यासीगण की ज्यांना शास्त्राज्ञेप्रमाणे दैनिक होम व पंचयज्ञ करणे बंधनकारक नाही.) त्यानी मधु, धृत, फळें आदी पदार्थांचे सेवन करावे) याशिवाय (याज्ञियानाम्‌) यज्ञ कार्यात कुशल असे (देवो:) विद्वान आहेत, ते (याज्ञिया:) योगाभ्यासरूप यज्ञ करण्यासाठी पात्र असलेल्या जिज्ञासू लोकांसाठी (संवत्सरीणाम्‌) वर्षभर ते अध्यापन रुप यज्ञ करतात आणि (भागम्‌) सेवनीय वा उपासनीय सर्वोत्तम परमेश्‍वराची (उपासते) उपासना करतात. (अस्मित्‌) या (यज्ञे) समागम वा सत्संगरूप यज्ञामध्ये त्या अहुताद संन्यासीजनांनी (मधुन:) मध (घृप्तस्य) घृत आणि (हविष:) अन्य हवनीय द्रव्यांचा यशोचित भाग द्यावा (लोकाना ज्ञान व उपदेश द्यावा) आणि (स्वयम्‌) स्वयंदेखी त्या (उपदेश आणि उपासनारुप) यज्ञाचे (पिवन्तु सेवन करावे ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे विद्वान लोक या संसारात अग्निहोत्र आदी कृत्यापासून मुक्त आहेत म्हणजे ज्यांना आहवनीय गार्हपत्य व दक्षिणाग्नी विषयक बाह्य कर्म करणे आवश्‍यक नसून केवल आभ्यन्तर अग्नी (मनन, चिंतन, ध्यान, उपासना आदी कर्म) धारण केला पाहिजे, त्या संन्यासीजनांनी होम-हवन न करता भोजन करीत, सर्वत्र विचरण करीत सर्व मनुष्यांना वेदार्थाचा उपदेश करावा (त्यांच्यासाठी हेच आचरण विधेय आहे) ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The hermits (Sanyasis) learned of the learned, who take their meals without performing Havan, lead a life of sacrifice, and contemplation amongst the performers of usual sacrifice (yajna), and worship the Adorable God, after a years penance, take themselves the honey and butter of oblations in this yajna.

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    Meaning

    Pranas (Sanyasis, those who are the life-breath of the spirit of society), those who are noblest among the nobles, adorable among those who adore Agni in yajna, serve and receive their part of the annual sessions of yajna, and, free from the performance of yajna before meals, themselves receive and enjoy the honey-sweets and drinks of the libations in this yajna.

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    Translation

    May the persons, learned among the learned, and dutiful among the dutiful, who enjoy their annual share, and who do not consume offerings, drink of their own honey and ~ melted butter at this sacrifice. (1)

    Notes

    Devāḥ, दिव्यगुणैर्युक्ता विद्वांस:, enlightened persons. According to the traditionalists, 'द्विविधाः देवाः हविर्भुजः इन्द्रवरुणादयः शरीरनिर्वाहकाः प्राणापानादयश्च', devas are of two types; one, to whom oblations are offered, Indra, Varuna, etc. and the others, those sustain the body, Prāņa, Apāna etc. Yajniyāh, पूजनीयाः, संगमनीयाः, दानार्हाः वा, deserving worship (respect), company, and donations. Samvatsarīņam bhāgamupäsate, who enjoy their annual share. Ahutadaḥ,अहुतं अदंति ये , those who do not consume the offerings of the sacrifice. Madhuno ghṛtasya, of honey and ghee. By implication दधि, curd (yogurt) also should be added.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সংন্যাসিভিঃ কিং কার্য়মিত্যাহ ॥
    এখন সন্ন্যাসীদের কী করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ে) যাহারা (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (অহুতাদঃ) বিনা হবনকৃত পদার্থগুলির আহারকারী (দেবাঃ) বিদ্বান্ (য়জ্ঞিয়ানাম্) অথবা যজ্ঞ করিতে কুশল পুরুষদিগের মধ্যে (য়জ্ঞিয়াঃ) যোগাভ্যাসাদি যজ্ঞের যোগ্য বিদ্বান্গণ (সংবৎসরীণম্) সারা বৎসর পুষ্টকৃত (ভাগম্) সেবনীয় উত্তম পরমাত্মার (উপাসনা) উপাসনা করেন, তাঁহারা (অস্মিন্) এই (য়জ্ঞে) সমাগমরূপ যজ্ঞে (মধুনঃ) মধু (ঘৃতস্য) জল এবং (হবিষঃ) হবনযোগ্য পদার্থগুলির ভাগকে (স্বয়ম্) স্বয়ং (পিবন্তু) সেবন করুন ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে বিদ্বান্গণ এই সংসারে অগ্নিক্রিয়া হইতে রহিত অর্থাৎ আহবনীয়, গার্হপত্য এবং দক্ষিণাগ্নি সম্পর্কীয় বাহ্য কর্ম ত্যাগ করিয়া আভ্যন্তর অগ্নির ধারণকারী সন্ন্যাসী আছে তাহারা হোম না করিয়া ভোজন করিয়া সর্বত্র বিচরণ করিয়া সকল মনুষ্যদিগকে বেদার্থের উপদেশ করিতে থাকিবে ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ে দে॒বা দে॒বানাং॑ য়॒জ্ঞিয়া॑ য়॒জ্ঞিয়া॑নাᳬं সংবৎস॒রীণ॒মুপ॑ ভা॒গমাস॑তে ।
    অ॒হু॒তাদো॑ হ॒বিষো॑ য়॒জ্ঞেऽঅ॒স্মিন্ৎস্ব॒য়ং পি॑বন্তু॒ মধু॑নো ঘৃ॒তস্য॑ ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ে দেবা ইত্যস্য লোপামুদ্রা ঋষিঃ । প্রাণো দেবতা । নিচৃদার্ষী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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