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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 14
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
    125

    ये दे॒वा दे॒वेष्वधि॑ देव॒त्वमाय॒न् ये ब्रह्म॑णः पुरऽए॒तारो॑ऽअ॒स्य। येभ्यो॒ नऽऋ॒ते पव॑ते॒ धाम॒ किञ्च॒न न ते दि॒वो न पृ॑थि॒व्याऽअधि॒ स्नुषु॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः। दे॒वेषु॑। अधि॑। दे॒व॒त्वमिति॑ देव॒ऽत्वम्। आय॑न्। ये। ब्रह्म॑णः। पु॒र॒ऽए॒तार॒ इति॑ पुरःऽए॒तारः॑। अ॒स्य। येभ्यः॑। न। ऋ॒ते। पव॑ते। धाम॑। किम्। च॒न। न। ते। दि॒वः। न। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। स्नुषु॑ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा देवेष्वधि देवत्वमायन्ये ब्रह्मणः पुरऽएतारोऽअस्य । येभ्यो नऽऋते पवते धाम किङ्चन न ते दिवो न पृथिव्या अधि स्नुषु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। देवेषु। अधि। देवत्वमिति देवऽत्वम्। आयन्। ये। ब्रह्मणः। पुरऽएतार इति पुरःऽएतारः। अस्य। येभ्यः। न। ऋते। पवते। धाम। किम्। चन। न। ते। दिवः। न। पृथिव्याः। अधि। स्नुषु॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोत्तमा विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    ये देवा देवेष्वधि देवत्वमायन्, येऽस्य ब्रह्मणः पुरएतारः सन्ति, येभ्य ऋते किं चन धाम न पवते, ते न दिवः स्नुषु न च पृथिव्याः अधि स्नुष्वायन् नाधिवसन्तीति यावत्॥१४॥

    पदार्थः

    (ये) (देवाः) पूर्णविद्वांसः (देवेषु) विद्वत्सु (अधि) उपरिविराजमानाः (देवत्वम्) विदुषां कर्म भावं वा (आयन्) प्राप्नुवन्ति (ये) (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (पुरएतारः) पूर्वं प्राप्तारः (अस्य) (येभ्यः) (न) निषेधे (ऋते) विना (पवते) पवित्रीभवति (धाम) दधति सुखानि यस्मिंस्तत् (किम्) (चन) (न) (ते) विद्वांसः (दिवः) सूर्यस्य (न) (पृथिव्याः) भूमेः (अधि) (स्नुषु) प्रान्तेषु॥१४॥

    भावार्थः

    येऽत्र जगति विद्वत्तमा योगाधिराजा याथातथ्येन परमेश्वरं जानन्ति, ते निखिलजनशोधकाः सन्तो जीवन्मुक्तिदशायां परोपकारमाचरन्तो विदेहमुक्तदशायां न सूर्यलोके न च पृथिव्यां नियतं वसन्ति, किन्तु ब्रह्मणि स्थित्वाऽव्याहतगत्या सर्वत्राभिविहरन्ति॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उत्तम विद्वान् लोग कैसे होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (ये) जो (देवाः) पूर्ण विद्वान् (देवेषु, अधि) विद्वानों में सब से उत्तम कक्षा में विराजमान (देवत्वम्) अपने गुण, कर्म और स्वभाव को (आयन्) प्राप्त होते हैं और (ये) जो (अस्य) इस (ब्रह्मणः) परमेश्वर को (पुरएतारः) पहिले प्राप्त होने वाले हैं, (येभ्यः) जिनके (ऋते) विना (किम्) (चन) कोई भी (धाम) सुख का स्थान (न) नहीं (पवते) पवित्र होता (ते) वे विद्वान् लोग (न)(दिवः) सूर्य्यलोक के प्रदेशों और (न)(पृथिव्याः) पृथिवी के (अधि, स्नुषु) किसी भाग में अधिक वसते हैं॥१४॥

    भावार्थ

    जो इस जगत् में उत्तम विद्वान् योगीराज यथार्थता से परमेश्वर को जानते हैं, वे सम्पूर्ण प्राणियों को शुद्ध करने और जीवन्मुक्तिदशा में परोपकार करते हुए विदेहमुक्ति अवस्था में न सूर्य्यलोक और न पृथिवी पर नियम से वसते हैं, किन्तु ईश्वर में स्थिर हो के अव्याहतगति से सर्वत्र विचरा करते हैं॥१४॥

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    विषय

    ब्रह्मज्ञानी विद्वानों का पवित्र रूप ।

    भावार्थ

    और ( ये देवा: ) जो विद्वान् ज्ञानप्रद, लोकप्रकाशक विद्वान् लोग ( देवेषु अधि ) राजाओं के भी ऊपर ( देवत्वम् ) आदर योग्य देवत्व, राजत्व को ( आयन् ) ग्राप्त हो जाते हैं, ( ये ) और जो ( अस्य ब्रह्मणः ) इस ब्रह्मरूप ज्ञानसागर के ( पुरः ) सबसे प्रथम या पूर्ण ( एतारः ) ज्ञाता होते हैं । और ( येभ्यः ऋते ) जिनके बिना ( किंचन धाम ) कोई स्थान, कोई गृह ( न पवते ) पवित्र नहीं हो। ( ते ) वे ( दिवः न ) न द्यौलोक और ( न पृथिव्याः ) न पृथिवी के किसी स्थान पर रमकर वे (स्नुषु) पर्वतों के शिखरों पर विचरते हैं । अथवा सरण शील प्राणों में ही रमते हुए सर्वत्र विचरते हैं। या ( स्नुषु ) मार्गों में ही परिव्राट् होकर विचरते हैं। शत० ९ । २ । १ । १५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आर्षी जगती । निषादः ॥

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    विषय

    न स्वर्ग में न पर्वत शिखरों पर

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (देवा:) = विद्वान् लोग (देवेषु) = विद्वानों में (अधिदेवत्वम्) = आधिक्येन विद्वत्ता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं। जो ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं और इस ज्ञान को प्राप्त करके २. (ये) = जो (अस्य ब्रह्मण:) = इस ज्ञान को (पुरः) = आगे (एतार:) = ले-जानेवाले होते हैं [एतार इति अन्तर्भावितण्यर्थः प्रापयितार : गमयितार:]। ये विद्वान् ज्ञान प्राप्त करके इसे दूसरों को प्राप्त करानेवाले होते हैं, उसी प्रकार जैसेकि 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' ने प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके अपने अन्य अज्येष्ठ, अकनिष्ठ भ्राताओं को ज्ञान दिया। चार सर्वोत्कृष्ट बुद्धिवालों ने हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुना और उस प्रेरणा को औरों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसी प्रकार ये उत्कृष्ट ज्ञानी सर्वत्र ज्ञान का प्रसार करते हैं, जहाँ ये जाते हैं वहीं वातावरण को बड़ा पवित्र बना डालते हैं। इसी लिए मन्त्र में कहते हैं कि २. (येभ्यः ऋते) = जिनके बिना (किञ्चन धाम) = कोई भी स्थान (न पवते) = पवित्र नहीं होता। ये लोग ज्ञान की चर्चा के द्वारा पवित्रता का सञ्चार करनेवाले होते हैं। जहाँ इस प्रकार के ज्ञानी नहीं पहुँचते वहाँ अज्ञानान्धकार फैलकर वातावरण को बड़ा दूषित कर देता है । ४. ये विद्वान् प्रजा के हित के लिए प्रजाओं में ही विचरण करते हैं। ये संसार को मायाजाल व अशान्ति का स्थान मानकर इससे दूर नहीं भाग जाते। (ते) = वे विद्वान् (दिवः) = द्युलोक के अथवा (पृथिव्याः) = पृथिवी के (अधिस्नुषु) = पर्वत शिखरों पर (नः) = नहीं भाग जाते, इसी प्रकार ये विद्वान् संन्यासी भी अशान्ति के भय से कहीं स्वर्गलोक में व पर्वत शिखरों पर नहीं भागे फिरते। 'स्वर्गलोक में या पर्वत शिखरों पर यह मुहावरा है, केवल इसी बात को स्पष्ट करने के लिए कि ये विद्वान् यहीं लोगों में ही रहते हैं। दूर शान्त स्थानों को नहीं ढूँढते रहते। दूर भागनेवाले संन्यासी ने क्या लोकहित करना ?

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञानी बनें। ज्ञान को चारों ओर फैलाने का प्रयत्न करें। ज्ञान को फैलाकर वातावरण को पवित्र बनाएँ। अज्ञानावृत लोगों से घृणा करके सुदूर पर्वतशिखरों पर न भागे फिरें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या जगात जे उत्तम विद्वान आणि योगी असतात ते यथार्थपणे परमेश्वराला जाणतात. ते संपूर्ण प्राण्यांना व स्थानांना पवित्र करून जीवनमुक्त अवस्थेमध्ये परोपकार करतात व विदेहमुक्त अवस्थेमध्ये सूर्यलोक व पृथ्वीलोकावर वस्ती करत नाहीत तर ईश्वरामध्ये स्थिर हेऊन अव्याहत गतीने सर्वत्र संचार करतात.

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    विषय

    उत्तम कोटिचे विद्वान कसे असतात, आता याविषयी कथन केले जात आहे –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ (ये) जे (देवा:) विशिष्ट उच्च कोटिचे विद्वान आहेत, ते (देवेषु अधि) विद्वज्जनांच्या श्रेणीत सर्वोच्च स्थानात विराजमान होतात आणि (देवत्वम्‌) आपल्या गुण, कर्म, स्वभावामुळे श्रेष्ठ स्थान (आयन्‌) प्राप्त करतात. तसेच (ये) जे विद्वान (अस्य) या (ब्रह्मण:) परमेश्‍वराची (पुरग्रतार:) सर्वप्रथम प्राप्ती करतात आणि (येभ्य:) (ऋते) ज्यांच्या विना (किम्‌) चन) कोणीही मनुष्य (धाम) सुखाचे पद (न) (पवते) प्राप्त करू शकत नाही वा पवित्र होऊ शकत नाही (ते) ते विद्वज्जन (न) ना (दिव:) सूर्य लोकात राहतात (न) ना (पृथिव्या:) पृथ्वीच्या (अधिस्नुषु) कोणत्या भागात वसती करून राहतात. (परमात्मज्ञानी श्रेष्ठ विद्वान माणसे मृत्यूनंतर आकाश वा भूमीलोकात राहत नाहीत, तर मुक्त होऊन परब्रह्माच्या सान्निध्यात आनंद अनुभवतात) ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या जगात जे उत्तम विद्वान योगिराज असून योगविद्येद्वारे परमेश्‍वराचे यथार्थ ज्ञान प्राप्त करतात, ते समस्त जीवांना पवित्र करीत जीवयुक्त अवस्थेत परोपकार करीत विहार करतात. आपल्या विदेहमुक्त अवस्थेत ते सूर्य लोकात वा भूमीवर नियमत: राहत नसून सतत ईश्‍वरात स्थिर राहून अन्यायहतगतीने सर्वत्र विहार करीत असतात. ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The learned yogis who amongst the learned attain to Godhead, who first of all acquire communion with God, without whose aid no place of happiness is sanctified, dwell neither on heavens heights nor on the face of the earth.

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    Meaning

    Pranas, life-breath of the spirit of humanity, souls who have attained the state of divine grace among the nobles, who walk in the very presence of this Lord of the universe, without whom nowhere in the world anything moves nor is anything sanctified, they are not confined to any particular region of heaven, nor to any particular region of the earth, they are universal, everywhere.

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    Translation

    The enlightened persons, who have become foremost among the learned by their learning, who are heralds of the sacred knowledge, and without whom no place can be holy, are not found on the summits of heaven, nor of earth (i. e. , they may be found anywhere). (1)

    Notes

    Adhi devatvamayan, have achieved superiority among the enlightened ones. अधि, उपरि, over, above. Brahmaṇaḥ pura etāraḥ, forerunners or heralds of brahma, the sacred knowledge. Na pavate, न पवित्रीभवति, does not become holy or purified. Also, न चेष्टते , does not work. Adhi snuşu, g, on the summits of.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথোত্তমা বিদ্বাংসঃ কীদৃশা ভবন্তীত্যাহ ॥
    এখন উত্তম বিদ্বান্গণ কেমন হয়, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ে) যাহারা (দেবাঃ) পূর্ণ বিদ্বান্ (দেবেষু, অধি) বিদ্বান্দিগের মধ্যে সর্বাপেক্ষা উত্তম শ্রেণিতে বিরাজমান (দেবত্বম্) নিজ গুণ, কর্ম ও স্বভাবকে (আয়ন্) প্রাপ্ত হন্ এবং (য়ে) যাহারা (অস্য) এই (ব্রহ্মণঃ) পরমেশ্বরকে (পুরএতারঃ) প্রথম প্রাপ্ত করিয়া থাকেন (য়েভ্যঃ) যাহাদের (ঋতে) ব্যতীত (কিম্)(চন) কোন ও (ধাম) সুখের স্থান (ন) না (পবতে) পবিত্র হয় (তে) সেই সব বিদ্বান্গণ (ন) না (দিবঃ) সূর্য্যলোকের প্রদেশ সকল এবং (ন) না (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর (অধি, স্নুষু) কোন ভাগে অধিক কাল বসবাস করেন ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা এই জগতে উত্তম বিদ্বান্ যোগীরাজ যথার্থতাপূর্বক পরমেশ্বরকে জানেন যাহারা সম্পূর্ণ প্রাণিদিগকে শুদ্ধ করিয়া এবং জীব মুক্তিদশায় পরোপকার করিয়া বিদেহমুক্তি অবস্থায় সূর্য্যলোক এবং পৃথিবীর উপরে নিয়মপূর্বক বসবাস করে না কিন্তু ঈশ্বরে স্থির হইয়া অব্যাহতগতিপূর্বক সর্বত্র বিচরণ করিয়া থাকে ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ে দে॒বা দে॒বেষ্বধি॑ দেব॒ত্বমায়॒ন্ য়ে ব্রহ্ম॑ণঃ পুরऽএ॒তারো॑ऽঅ॒স্য । য়েভ্যো॒ নऽঋ॒তে পব॑তে॒ ধাম॒ কিঞ্চ॒ন ন তে দি॒বো ন পৃ॑থি॒ব্যাऽঅধি॒ স্নুষু॑ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য় দেবা ইত্যস্য লোপামুদ্রা ঋষিঃ । প্রাণো দেবতা । আর্ষী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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