यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 91
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - यज्ञपुरुषो देवता
छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
214
च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ऽअस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सोऽअस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ २ऽआवि॑वेश॥९१॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वारि॑। शृङ्गा॑। त्रयः॑। अस्य॑। पादाः॑। द्वेऽइति॒ द्वे। शी॒र्षेऽइति॑ शी॒र्षे। स॒प्त। हस्ता॑सः। अ॒स्य॒। त्रिधा॑। ब॒द्धः। वृ॒ष॒भः। रो॒र॒वी॒ति॒। म॒हः। दे॒वः। मर्त्या॑न्। आ। वि॒वे॒श॒ ॥९१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वारि शृङ्गा त्रयोऽअस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासोऽअस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँऽआ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठ
चत्वारि। शृङ्गा। त्रयः। अस्य। पादाः। द्वेऽइति द्वे। शीर्षेऽइति शीर्षे। सप्त। हस्तासः। अस्य। त्रिधा। बद्धः। वृषभः। रोरवीति। महः। देवः। मर्त्यान्। आ। विवेश॥९१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यज्ञादिगुणानाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं यस्यास्य त्रयः पादाश्चत्वारि शृङ्गा द्वे शीर्षे यस्यास्य सप्त हस्तासः सन्ति, यस्त्रिधा बद्धो महो देवो वृषभो यज्ञः शब्दो वा रोरवीति मर्त्यानाविवेश तमनुष्ठायाभ्यस्य च सुखिनो विद्वांसो भवत॥९१॥
पदार्थः
(चत्वारि) (शृङ्गा) शृङ्गाणीव चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता वा (त्रयः) प्रातर्मध्यसायं सवनानि, भूतभविष्यद्वर्त्तमानाः काला वा (अस्य) यज्ञस्य शब्दस्य वा (पादाः) अधिगमसाधनानि (द्वे) (शीर्षे) शिरसी प्रायणीयोदयनीये, नित्यः कार्यश्च शब्दात्मानौ वा (सप्त) एतत्संख्याकानि गायत्र्यादीनि छन्दांसि, विभक्तयो वा (हस्तासः) हस्तेन्द्रियमिव (अस्य) (त्रिधा) त्रिभिः प्रकारैर्मन्त्रब्राह्मणकल्पैः, उरसि कण्ठे शिरसि वा (बद्धः) (वृषभः) सुखानामभिवर्षकः (रोरवीति) ऋग्वेदादिना सवनक्रमेण वा शब्दायते (महः) महान् (देवः) संगमनीयः प्रकाशको वा (मर्त्यान्) मनुष्यान् (आ, विवेश) आविशति। अत्राहुर्नैरुक्ताः—चत्वारि शृङ्गेति वेदा वा एत उक्तास्त्रयोऽस्य पादा इति सवनानि त्रिणि, द्वे शीर्षे प्रायणीयोदयनीये, सप्त हस्तासः सप्त छन्दांसि, त्रिधा बद्धस्त्रेधा बद्धो मन्त्रब्राह्मणकल्पैर्वृषभो रोरवीति। रोरवणमस्य सवनक्रमेण ऋग्भियजुर्भिः सामभिर्यदेनमृग्भिः शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभिः स्तुवन्ति। महो देव इत्येष हि महान् देवो यद्यज्ञो मर्त्याँ आ विवेशेत्येष हि मनुष्यानाविशति यजनाय॥ (निरु॰१३.७) पक्षान्तरं पतञ्जलिमुनिरेवमाहः—चत्वारि शृङ्गाणि। चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च॥ त्रयो अस्य पादाः। त्रयः काला भूतभविष्यद्वर्त्तमानाः॥ द्वे शीर्षे। द्वौ शब्दात्मानौ नित्यः कार्यश्च॥ सप्तहस्तासो अस्य। सप्त विभक्तयः॥ त्रिधा बद्धः। त्रिषु स्थानेषु बद्ध उरसि कण्टे शिरसीति॥ वृषभो वर्षणात्॥ रोरवीति शब्दं करोति॥ कुत एतत्? रौतिः शब्दकर्मा महो देवो मर्त्याँ आविवेशेति। महान् देवः शब्दो मर्त्या मरणधर्माणो मनुष्यास्तानाविवेश॥ (महा॰भा॰अ॰१. पा॰१. आ॰१)॥९१॥
भावार्थः
अत्रोभयोक्त्या रूपकः श्लेषोऽलङ्कारश्च। ये मनुष्या यज्ञविद्यां शब्दविद्यां च जानन्ति, ते महाशया विद्वांसो भवन्ति॥९१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब यज्ञ के गुणों वा शब्दशास्त्र के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) प्रातःसवन, मध्यन्दिनसवन और सायंसवन ये तीन (पादाः) प्राप्ति के साधन (चत्वारि) चार वेद (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) अस्तकाल और उदयकाल शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) गायत्री आदि छन्द सात हाथ हैं वा जो (त्रिधा) मन्त्र, ब्राह्मण और कल्प इन तीन प्रकारों से (बद्धः) बंधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) प्राप्त करने योग्य (वृषभः) सुखों को सब ओर से वर्षाने वाला यज्ञ (रोरवीति) प्रातः, मध्य और सायं सवन क्रम से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) अच्छे प्रकार प्रवेश करता है, उस का अनुष्ठान करके सुखी होओ॥१॥९१॥ द्वितायपक्षः—हे मनुष्यो! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान तीन काल (पादाः) पग (चत्वारि) नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चार (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) नित्य और कार्य शब्द शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) प्रथमा आदि सात विभक्ति सात हाथ वा जो (त्रिधा, बद्धः) हृदय कण्ठ और शिर इन तीनों स्थानों में बंधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) शुद्ध, अशुद्ध का प्रकाशक (वृषभः) सुखों का वर्षाने वाला शब्दशास्त्र (रोववीति) ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) प्रवेश करता है, उस का अभ्यास करके विद्वान् होओ॥२॥९१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उभयोक्ति अर्थात् उपमान के न्यूनाधिक धर्मों के कथन से रूपक और श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य यज्ञविद्या और शब्दविद्या को जानते हैं, वे महाशय विद्वान् होते हैं॥९१॥
पदार्थ
पदार्थ = ( चत्वारि शृङ्गा ) = चार दिशाएँ सींगवत् ( त्रयः अस्य ) = तीन इसके ( पादाः ) = चरण हैं तीन काल अथवा तीन भुवन चरण के समान हैं। ( द्वे शीर्षे ) = पृथ्वी और द्युलोक दोनों शिर हैं । ( अस्य सप्त हस्तास: ) = महत् अहंकार और पाँच भूत ये सात इस भगवान् के हाथ हैं । ( त्रिधा बद्धः ) = सत् चित् आनन्द इन तीन स्वरूपों में बद्ध है, वह ( वृषभ: ) = सब सुखों की वर्षा करनेवाला और सारे जगत् को उठानेवाला ( रोरवीति ) = वेद ज्ञान का उपदेश कर रहा है, वह ( महः देवः ) = महादेव ( मर्त्यान् आविवेश ) = मरण धर्मा मनुष्यों और विनश्वर सब पदार्थों में भी व्यापक है।
भावार्थ
भावार्थ = इस मन्त्र में अलङ्कार से परमात्मा का कथन है। जैसे कोई ऐसा बैल हो जिसके चार सींग, तीन पाँव, दो सिर, सात हाथ, तीन प्रकार से बंधा हुआ बार-बार बोलता हो, ऐसे बैल की उपमा से प्रभु के स्वरूप का निरूपण किया है। चार दिशाएँ सींगवत् तीन काल वा तीन भुवन पादवत्, पृथिवी और द्युलोक दोनों शिरवत् महत्तत्त्व, अहङ्कार, पाँच भूत ये सात प्रभु के हाथवत् हैं,सत्, चित् आनन्द ( इन तीन) स्वरूप से विराजमान, सब सुखों की वर्षा करनेवाला, वेद ज्ञान का सदा उपदेश कर रहा है । वह महादेव, मरणधर्मा मनुष्यों और सब नश्वर पदार्थों में व्यापक है, ऐसे प्रभु को जानना चाहिये ।
विषय
राजा, यज्ञ, आत्मा, शब्द और परमेश्वर इन पक्षों में महान् देव का स्वरूप।
भावार्थ
राजा के पक्ष में - इस राजा रूप प्रजापति या राष्ट्र-रूप यज्ञ के ( चत्वारि शृङ्गा ) चार शृङ्ग अर्थात् शत्रुओं के हनन करने वाले साधन चतुरंग सेना है । ( अस्य ) इसके ( त्रयः ) तीन ( पादाः ) पैर अर्थात् चलने के साधन है राजा, प्रजा और शासक । ( द्वे शीर्षे ) दो शिर हैं राजा और अमात्य या राजा और पुरोहित ( अस्य ) इसके ( सप्त हस्तासः ) सात हाथ, सात प्रकृतियें हैं। ( त्रिधा बद्धः ) तीन शक्तियां प्रज्ञा, सेना और कोष | इन तीन शक्तियों से राष्ट्र बंधा या सुव्यवस्थित है। वह ( वृषभः ) सर्वश्रेष्ठ वर्षणशील मेघ या बलीवर्द के समान ( रोरवीति ) गर्जना करता है और ( महः देवः ) वह बड़ा पूजनीय देव, दानशील, प्रजा को सुखप्रद राजा ( मर्त्यान् ) मनुष्यों को ( आविवेश ) प्राप्त है । यज्ञ-पक्ष में - यज्ञ के ४ सींग, ब्रह्मा, उद्गाता, होता और अध्वर्यु । तीन पाद ऋग्, यजुः, साम। दो शिर हविर्धान और प्रवर्म्य । सात हाथ सप्त होता या सात छन्द । तीन स्थान प्रातः सवन, माध्यंदिन सवन और सायं सवन से बंधा है । अथवा - ४ सींग ४ वेद । तीन पाद तीन सवन। प्रायणीय और उदयनीय दोनों इष्टियां दो शिर । सात हाथ सात छन्द । तीन प्रकार से बद्ध मन्त्र, छन्द, ब्राह्मण और कल्प ।यास्क० निरु० १३ । ७ ॥ अथवा शब्द के पक्ष - में सींग, नाम, आख्यात ( क्रियापद ) उपसर्ग और निपात। तीन पद भूत, भविष्यत और वर्तमान, दो सिर शब्द नित्य और अनित्य | सात हाथ, सात विभक्तियां । यह शब्द तीन स्थान पर बद्ध है छाती में, कण्ठ में और शिर में । सुनने से सुख का वर्षण करता है । वह शब्द करता, उपदेश देता है और ध्वनि रूप होकर समस्त मरणाधर्मा प्राणियों में विद्यमान है। पतञ्जलि मुनि ॥ व्या० महाभाष्य १ । १ । आ० १ ॥ आत्मा के पक्ष में -- ४ सींग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । तीन पाद अर्थात् ज्ञानसाधन, तीन वेद, या मनन, क्रिया और उच्चारण या ज्ञान,कर्म और गान । दो शिर प्राण, अपान । सात हाथ शिरोगत सप्त प्राण- २ नाक, २ आंख, २ कान, एक मुख।अथवा सात धातु त्वग्, मांस, मेद, भज्ज, अस्थि, २ त्रिधा बद्ध मन,कर्म और वाणी अथवा त्रिगुण सत्व, रजस्, तमस द्वारा बद्ध है। वह भीतरी सब सुखों का वर्षक होने से 'वृषभ' महाप्राण आत्मा ( देवः ) साक्षात् ज्ञानद्रष्टा होकर ( मर्त्यान् आविवेश ) मरणधर्मा देहों में आश्रित है । परमात्मा के पक्ष में - चार सींग चारों दिशाएं अथवा अ, उ, म् और अमात्र । तीन चरण, तीन काल अथवा तीन भुवन। दो शिर द्यौ, पृथिवी । सात हाथ सात मरुत् गण अथवा सात समष्टि प्राण, अथवा महत्, अहंकार और ५ भूत । त्रिधा बद्ध है सत्, चित् और आनन्दरूप में । वह महान् परमेश्वर ( वृषभ: ) समस्त सुखों का वर्षक एवं जगत् को उठाने वाला ( रोरवीति ) परम वेदज्ञान का उपदेश करता है वह महान् देव उपादेय परमेश्वर ( मर्त्यान् आविवेश ) समस्त नश्वर पदार्थों में भी व्यापक है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषभो यज्ञपुरुषो देवता । विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः॥
विषय
महादेवः
पदार्थ
१. इस मन्त्र के ऋषि वामदेव के (चत्वारि शृङ्गाः) = चारों वेद शृङ्गस्थानीय होते हैं, उस वेदज्ञान से यह अपने शत्रुओं को दूर करनेवाला होता है। २. शत्रुओं को दूर करनेवाले (अस्य) = इसके (त्रयः पादाः) = तीन विक्रम, क़दम होते हैं। यह पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से द्युलोक में तथा द्युलोक से स्वर्ज्योति में पहुँचनेवाला होता है। अथवा यह स्वास्थ्य, नैर्मल्य व दीप्ति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है, 'भूः भुवः स्वः' ये ही इसके तीन क़दम हो जाते हैं । ३. (द्वे शीर्षे) = इसके दो मस्तिष्क होते हैं, अर्थात् यह दो बातों को सदा सोचता है [क] प्रकृति का प्रयोग कैसे करना है। [ख] और जीव के साथ कैसे वर्त्तना है। प्रकृति के प्रयोग में यह 'मित' बनता है, जीवों के साथ व्यवहार में यह 'मधुर' होता है । ४. (सप्त हस्तासः अस्य) = इसके गायत्र्यादि सात छन्द ही हाथ बन जाते हैं, अर्थात् उन छन्दों में प्रतिपादित कर्मों को ही यह हाथों से सदा करनेवाला बनता है । ५. (त्रिधा बद्धः) = यह 'काय, वाणी व मन' तीन स्थानों पर बँधा होता है। शरीर वाणी तथा मन का संयम करता है। इन तीनों का दमन करनेवाला ही यह 'त्रिदण्डी' कहलाता है। ६. इस दमन व संयम के परिणामरूप यह (वृषभः) = अत्यन्त शक्तिशाली होता है । ७. शक्ति का गर्व न हो जाए' इसी लिए (रोरवीति) = निरन्तर प्रभु के नाम का उच्चारण करता है। ८. पवित्र बनता हुआ यह (महोदेवः) = महनीय देव बन जाता है। ९. परन्तु ऐसा बनकर यह मनुष्यों से दूर नहीं भाग खड़ा होता । (मर्त्यान् आविवेश) = मनुष्यसमाज में ही प्रवेश करता है, मनुष्यों में ही रहता है। उनके अज्ञान व दुःखों के दूर करने के लिए प्रयत्नशील होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम मन्त्र वर्णित साधना करते हुए 'महोदेव' बनें, लोकहित में प्रवृत्त हों।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उभयोक्ती अर्थात उपमानाच्या न्यूनाधिक कथनाने रूपक व श्लेषालंकार आहेत. ज्या व्यक्ती यज्ञविद्या व शब्दविद्या जाणतात त्या विद्वान असतात.
विषय
आता यज्ञाचे गुण आणि शब्दशास्त्रांच्या गुणांविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे –
शब्दार्थ
(या मंत्राच्या काही शब्दांचे दोन अर्थ आहेत. एक अर्थ यज्ञपक्षाकडे आणि दुसरा अर्थ-शब्दपक्षाकडे लागू होतो)^(हा मंत्र काव्यरचनेचे सुंदर उदाहरण आहे. यामध्ये दोन काच्या अलंकारांचा कौशल्यपूर्ण उपयोग केला आहे. एक काव्यालंकार आहे-श्लेष, म्हणजे शब्दश्लेषालंकार आणि दुसरा काव्यालंकार आहे-रुपक अलंकार रुपकालकाराचे दोन भेद असतात-एक सांग रुपक, दुसरा निरंग रुपक. या मंत्रात सांगरुपक अलंकार आहे)^(या मंत्राचा मुख्यार्थ म्हणजे शब्दाचा पहिला अर्थ म्हणजे शब्दकोशातील अर्थ घेतला, तर मोठा गमतीदार अर्थ निघतो-तो अर्थ असा- एक भयदायक विचित्र प्राणी आमच्या शरीरात व मर्त्यलोकात येऊन प्रविष्ट झाला आहे - त्याला चार शिंगे आहेत, तीन पाय आहेत, दोन शीर असून याला सात हात आहेत. तीन दोरखंडांनी बांधलेला हा मोठा विकराळ बैल आमच्या या घरात प्रविष्ट झाला आहे. (पण हा अर्थ अपेक्षित व ?? अर्थ नाही) वरील मुख्यार्थ केल्यामुळे अर्थबोध होत नाही, म्हणून श्लेष अलंकाराने प्रत्येक शब्दाचा दुसरा वास्तविक व लाक्षणिक अर्थ घ्यावा लागतो. असे अर्थ दोन आहेत. एक-यज्ञपरक, दुसरा-शब्द शास्त्रपरक. शिवाय एकूण मंत्रात सांगरुपक अलंकाराचा उपयोग केला आहे. ॥^यज्ञपरक अर्थ- हे मनुष्यानो (हे जाणून घ्यावी (अस्य) या यज्ञाची (त्रय:) (पादा:) प्रात: सवन, मध्यन्दिनसवन आणि सायंसवन हे तीन (पादा:) प्राप्तीची साधने आहेत. या यज्ञाची (चत्वारि) चार वेद (शृड्ग:) शिंगे असून याचे (द्वे) दोन (शीर्षे) उदयकाल आणि अस्तकाल असे दोन शिरे आहेत. (अस्थ) या यज्ञाला (सप्त हस्तास:) गायत्री आदी सात छन्द असे सात हात आहेत. हा यज्ञ (त्रिधा) (बद्ध:) मंत्र, ब्राह्मण आणि कल्प या तीन प्रकारांनी बांधलेला असून (महा) (देव:) महान वा अत्यंत प्राप्तव्य असा (वृषभ:) सर्वथा सर्वत्र सुखाची वृष्टी करणारा यज्ञ (शेरवीति) प्राप्त:काळी मध्यान्ह काळी व सायंकाळी शब्द करीत (मंत्रस्वराद्वारे वातावरण परिपूर्ण करीत) (महर्त्यान्) मनुष्यांत (आ विवेश) चांगल्या प्रकारे प्रवेश करतो (मनुष्यांना सुखावतो) म्हणून हे मनुष्यानो, अशा यज्ञाचे अनुष्ठान करून तुम्ही सुखी व्हा. ॥91॥^द्वितीय पत्र (शब्द परक अर्थ) हे मनुष्यानो, (अस्य) या शब्दाचे (त्रय:) (पादा:) भूत, भविष्य आणि वर्तमान असे तीन पाय असून (चत्वारि) शृड्ग:) नाम, आख्यात, उपसर्ग आणि निपात अक्षीचार शिंगे आहेत. शब्दाचे (द्वे) (शीर्षे) नित्य आणि कार्य असे दोन शीर आहेत आणि (अस्य) या शब्दाला (सप्त दृष्टास:) प्रथमा आदी सात विभक्ती रुप सात हात आहेत. असा (हा शब्द) (त्रिधा बद्ध:) हृदय, कंठ आणि शिर या तीन स्थानात बद्ध असतो. (हृदय, कंठ आणि मस्तिष्क शब्दोपत्ती आणि उच्चारणांशी संबंधित हे तीन स्थान आहेत) असा हा (मह:) (देव:) शुद्ध आणि अशुद्ध हे भेद स्पष्ट करणारा (शब्द शुद्ध अथवा अशुद्ध असतो) असा हा (वृषभ:) सुखाची वृष्टी करणारा शब्द वा शब्दशास्त्र (रोखीति) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद आणि अर्थववेद या चार वेदांत गर्जना करीत (मर्त्यान्) मनुष्यांमधे अथवा मनुष्यांसाठी (आ विवेश) प्रविष्ट झाला आहे (ईश्वराने वेदाच्या रुपाने मानवाला दिला आहे) हे मनुष्यानो, तुम्ही अशा या शब्दशास्त्राचे अध्ययन, अभ्यास करून विद्यावान व्हा. ॥91॥^वरील मंत्रात आलेल्या काही शब्दांविषयी स्पष्टीकरण) सवन = यज्ञ; ब्राह्मण= मंत्र संहितेच्या वेगळा विभाग; कल्प= धार्मिक कर्तव्यांविषयी विधि-विधान, अथवा एक वेदांग ज्यामध्ये यज्ञ, संस्कार आदी विषयीं विधान केलेले आहे; नाम=तो शब्द, ज्याद्वारे एखाद्या व्यक्ती, वस्तू वा समूहाचा बोध होतो; आख्यात=कथित वा प्रसिद्ध शब्द; उपसर्ग=अव्ययशब्द जो संज्ञेच्या आधी येऊन शब्दाचा अर्थ बदलून टाकतो-प्र, परा, अप, सम आदी उपसर्ग; नियात= तो शब्द की जो रणगिम आदीद्वारा कोणत्यातरी रुपात तयार होतो, पण व्याकरणाच्या नियमा (सूत्र) नुसार तयार होत नाही; विभक्ति= सात कारकांचे चिन्ह नामास वा सर्वनामास होणारा विकार की ज्यामुळे शब्दाचा वाक्यातील असलेला संबंध स्पष्ट होतो. ने, ला, चा आदी शब्दाला जोडले जाणारे चिन्ह;
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपयोक्ति आहे म्हणजे उपमानाच्या (उपमा अलंकाराच्या) न्यून वा अधिक अंगाच्या वर्णनाद्वारा रुपक आणि श्लेष हे दोन अलंकार आहेत. आशय हा की जो माणूस यज्ञविज्ञा आणि शब्दविद्या या दोन विद्यांचा विशेष अभ्यास करतो, तो महाशय आणि विद्वान होतो ॥91॥
इंग्लिश (3)
Meaning
This yajna has got four horns, three feet, two heads, and seven hands. This mighty, attainable yajna, the giver of happiness, bound with a triple bond, roars loudly and enters into mortals.
Meaning
(i). Yajna is a purusha, a living person, a metaphor. Just as a person is a living human being, and he/she has a name which is identical with the person, so is yajna, a living act and a name, and the name-word is identical with the act. (1) This person, the living act of yajna, has four heads, the four Vedas. It has three legs/sessions: morning, mid-day and evening. It has two heads, the prayaniya ceremony (inauguration), and the udayaniya ceremony (valediction or conclusion). It has seven arms in the form of seven chhandas, gayatri and other metres. It is tied three-ways, structured in three parts: Mantra, the original vedic texts, Brahmana, expositions containing rules and explanations, and kalpa, rules of ritual performance. It is Vrishabha, that which showers joy and prosperity. It roars with the voice of the Vedas. It is great, it is brilliant and divine, and it is seated in the deepest layers of the human mind. (ii). Now the name ‘Yajna’, the word in language: It has four heads: Nama, nouns or substantives, Akhyata, the roots and verbs, Upasarga, the affixes, and Nipata, particles, indeclinables and irregulars. It has three legs: past, present and future tenses. It has two heads: the eternal Word and the structured words of language in use, and the word and its meaning (signification). It has seven arms: the seven cases and case endings or case forms. It is tied three ways: in the mind/intellect, in the chest, and in the throat/mouth. It is a Vrishabha, it showers the thoughts and emotions in communication, and it roars through the medium of sound. It is great, it is rich and brilliant and it is seated in the deepest layers of the human mind. (This mantra gives a comprehensive abstract of the linguistic structure of any language, and on the basis of this abstract a universal grammar of human language, any form of it, can be written. )
Translation
Four are his horns; three are his feet; his heads are two; his hands are seven; this triple-bound showerer of benefits roars aloud. That mighty divine is enshrined in the hearts of all mortals. (1)
Notes
The sacrifice is symbolized as a bull (vṛṣabhaḥ), H& aff, has been interpreted differently. To some it is the sacrifice; to others it is Brahma; to others it is Aditya; to others it is the Sabda, the word. According to Yāska : चत्वारि शृंगेति वेदा वाएत उक्तास्त्रयोऽस्य पादा इति सवनानि त्रीणि, द्वे शीर्षे प्रायणीयोदयनीये, सप्तहस्तासः सप्त छन्दांसि, त्रिधा बद्धस्त्रेधाबद्धो मन्त्रब्राह्मणकल्पैर्वृषभो रोरवीति । रोरवणमस्य सवनक्रमेण ऋग्भिर्यजुर्भि सामभिर्यदेनमृग्भिः शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभिः स्तुवन्ति । महो देव इत्येष हि महान् देवो यद्यज्ञो मर्त्यां आविवेशेत्येष हि मनुष्यानाविशति यजनाय, (Nir. XIII. 7); this great deity is the sacrifice; its four horns are the four vedas; three feet are the three savans, i. e. pressing out of Soma; two heads are the prāyaṇiya, and udayaniya; hands are the seven metres; three bindings are those of the mantras, brāhmaṇa granthas and kalpa sutras; its bellowing is the adoration with the Ṛks, worshipping with the Yajuḥs and praising with the Sämans. The grammarian Patañjali has interpreted it differently; the great deity is the word; four homs are nāma (nouns), ākhyāta (verbs), upasarga (prefixes), and nipata (participles); feet are bhūta (past); bhavisyat (future) and vartamāna (present) tenses; two heads are nitya (agent) and kärya (object); seven hands are the seven cases; three bindings are at the breasts, throat and head; its bellowing is the making of sound. There are several other interpretations also. This is a strange imagination of an abnormal animal to at tract the attention of the reader.
बंगाली (2)
विषय
অথ য়জ্ঞাদিগুণানাহ ॥
এখন যজ্ঞের গুণ বা শব্দ শাস্ত্রের গুণগুলিকে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যে (অস্য) ইহার (ত্রয়ঃ) প্রাতঃ সবন, মধ্যন্দিন সবন, এবং সায়ং সবন এই তিন (পাদাঃ) প্রাপ্তির সাধন (চত্বারি) চারি বেদ (শৃঙ্গা) শিঙ্ (দ্বে) দুইটি (শীর্ষে) অস্তকাল ও উদয়কাল শির বা যে (অস্য) ইহার (সপ্ত, হস্তাসঃ) গায়ত্রী আদি ছন্দ সাত হাত অথবা যে (ত্রিধা) মন্ত্র, ব্রাহ্মণ ও কল্প এই তিন প্রকারে (বদ্ধঃ) বদ্ধ (মহঃ) মহৎ (দেবঃ) প্রাপ্ত করিবার যোগ্য (বৃষভঃ) সুখকে সব দিক দিয়া বরিষণ কারী যজ্ঞ (রোরবীতি) প্রাতঃ, মধ্য ও সায়ং সবন ক্রমপূর্বক শব্দ করিয়া (মর্ত্যান্) মনুষ্যদিগকে (আ, বিবেশ) উত্তম প্রকার প্রবেশ করে, তাহার অনুষ্ঠান করিয়া সুখী হও ॥ ঌ১ ॥
দ্বিতীয় পক্ষঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যে (অস্য) ইহার (ত্রয়ঃ) ভূত, ভবিষ্যৎ ও বর্ত্তমান তিন কাল (পাদাঃ) পদ (চত্বারি) নাম, আখ্যাত, উপসর্গ ও নিপাত চারি (শৃঙ্গাঃ) শিঙ্ (দ্বে) দুই (শীর্ষে) নিত্য ও কার্য্য শব্দ শির অথবা যে (অস্য) ইহার (সপ্ত, হস্তাসঃ) প্রথমাদি সপ্ত বিভক্তি সপ্ত হস্ত অথবা যে (ত্রিধা, বদ্ধঃ) হৃদয়, কণ্ঠ ও শির এই তিন স্থানে বদ্ধ (মহঃ) বৃহৎ (দেবঃ) শুদ্ধ অশুদ্ধের প্রকাশক (বৃষভঃ) সুখের বরিষণ কারী শব্দশাস্ত্র (রোরবীতি) ঋক্ যজুঃ, সাম ও অথর্ববেদ হইতে শব্দ করিয়া (মর্ত্যাম্) মনুষ্যদিগকে (আ, বিবেশ) প্রবেশ করে, তাহার অভ্যাস করিয়া বিদ্বান্ হও ॥ ঌ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উভয়োক্তি অর্থাৎ উপমানের নূ্যনাধিক ধর্মের কথন দ্বারা রূপক ও শ্লেষালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য যজ্ঞবিদ্যা ও শব্দবিদ্যাকে জানে তাহারা বিদ্বান্ হইয়া থাকে ॥ ঌ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চ॒ত্বারি॒ শৃঙ্গা॒ ত্রয়ো॑ऽঅস্য॒ পাদা॒ দ্বে শী॒র্ষে স॒প্ত হস্তা॑সোऽঅস্য ।
ত্রিধা॑ ব॒দ্ধো বৃ॑ষ॒ভো রো॑রবীতি ম॒হো দে॒বো মর্ত্যাঁ॒ ২ऽআ বি॑বেশ ॥ ঌ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চত্বারীত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । য়জ্ঞপুরুষো দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
চত্বারি শৃঙ্গা ত্রয়ো অস্য পাদা দ্বে শীর্ষে সপ্ত হস্তাসো অস্য ।
ত্রিধা বদ্ধো বৃষভো রোরবীতি মহো দেবো মর্ত্যো আবিবেশ।।৬০।।
(যজু ১৭।৯১)
পদার্থঃ এই পরমাত্মার (চত্বারি শৃঙ্গা) চারদিক শিংয়ের সমান, (ত্রয়ঃ অস্য) তিন কাল অথবা তিন ভূবন (পাদঃ) চরণের সমান, (দ্বে শীর্ষে) পৃথিবী এবং দ্যুলোক শিরের সমান, (অস্য সপ্ত হস্তাসঃ) মহৎ অহংকার এবং পঞ্চ ভূত এই সাত হস্তের সমান। (ত্রিধা বদ্ধঃ) সৎ, চিৎ আনন্দ এই তিন স্বরূপে বদ্ধ, (বৃষভঃ) সকল সুখের বর্ষণকারী পরমাত্মা (রোরবীতি) বেদ জ্ঞানের উপদেশ করে থাকেন। তিনি (মহঃ দেবঃ) মহাদেব, (মর্তান্ আবিবেশ) মরণশীল মনুষ্য এবং বিনশ্বর সকল পদার্থেও ব্যাপক।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ এই মন্ত্রে অলঙ্কার দ্বারা পরমাত্মার বর্ণনা করা হয়েছে। অর্থাৎ চারিদিক শিংয়ের সমান, তিন কাল বা তিন ভূবন পাদের সমান, পৃথিবী এবং দ্যুলোক দুটি শিরের সমান, মহৎ-অহঙ্কার-পঞ্চ ভূত এই সাত পরমেশ্বরের হস্তের সমান, সৎ-চিৎ-আনন্দ এই তিন স্বরূপে তিনি বিরাজমান। সকল সুখের বর্ষাকারী যে পরমপুরুষ বেদের উপদেশ করে থাকেন, তিনি মহাদেব। মরণশীল মনুষ্য এবং সকল নশ্বর পদার্থে ব্যাপক পরমপুরুষকে জানা উচিৎ।।৬০।।
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