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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 53
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    67

    उदु॑ त्वा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअग्ने॒ भर॑न्तु॒ चित्ति॑भिः। स नो॑ भव शि॒वस्त्वꣳ सु॒प्रती॑को वि॒भाव॑सुः॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्वा॒। विश्वे॑। दे॒वाः। अग्ने॑। भर॑न्तु॒। चित्ति॑भि॒रिति॒ चित्ति॑ऽभिः। सः। नः॒। भ॒व॒। शि॒वः। त्वम्। सु॒प्रती॑क॒ इति॑ सु॒ऽप्रती॑कः। वि॒भाव॑सु॒रिति॑ वि॒भाऽव॑सुः ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्वा विश्वे देवा अग्ने भरन्तु चित्तिभिः । स नो बह्व शिवस्त्वँ सुप्रतीको विभावसुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ऊँऽइत्यूँ। त्वा। विश्वे। देवाः। अग्ने। भरन्तु। चित्तिभिरिति चित्तिऽभिः। सः। नः। भव। शिवः। त्वम्। सुप्रतीक इति सुऽप्रतीकः। विभावसुरिति विभाऽवसुः॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभापतिविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! सभेश यं त्वा विश्वे देवाश्चित्तिभिरुद्भरन्तु, स उ त्वं नः शिवः सुप्रतीको विभावसुर्भव॥५३॥

    पदार्थः

    (उत्) (उ) (त्वा) त्वाम् (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (अग्ने) विद्वन् (भरन्तु) धरन्तु (चित्तिभिः) संज्ञानैः (सः) (नः) अस्मभ्यम् (भव) (शिवः) मङ्गलकारी (त्वम्) (सुप्रतीकः) सुष्ठु प्रतीकं प्रतीतिकरं ज्ञानं यस्य सः (विभावसुः) यो विविधासु भासु विद्याप्रकाशेषु वसुः वसति सः॥५३॥

    भावार्थः

    ये येभ्यो विद्यां दद्युस्ते तेषां सेवकाः स्युः॥५३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभापति के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् सभापति! जिस (त्वा) तुझे (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् जन (चित्तिभिः) अच्छे-अच्छे ज्ञानों से (उद्भरन्तु) उत्कृष्टतापूर्वक धारण और उद्धार करें अर्थात् अपनी शिक्षा से तेरे अज्ञान को दूर करें (सः, उ) सोई (त्वम्) तू (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) मंगल करनेहारा (सुप्रतीकः) अच्छी प्रतीति करने वाले ज्ञान से युक्त तथा (विभावसुः) विविध प्रकार के विद्यासिद्धान्तों में स्थिर (भव) हो॥५३॥

    भावार्थ

    जो जिनको विद्या देवें, वे विद्या लेने वाले उन के सेवक हों॥५३॥

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    विषय

    राजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो ( १२ । १३ )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    सुप्रतीको विभावसुः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र से '(तस्मै) = उस अतिथियज्ञ करनेवाले के लिए (देवा:) = विद्वान् लोग (अधिब्रुवन्) = आधिक्येन उपदेश दें' ऐसा कहा था। उसी भावना को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! (त्वा) = तुझे (विश्वेदेवाः) = सब विद्वान् (चित्तिभि:) = ज्ञान के द्वारा (उ) = निश्चय से (उद् भरन्तु) = [ऊर्ध्वं धारयन्तु] ऊपर धारण करें। तुझे विद्वानों का सम्पर्क प्राप्त हो। वे विद्वान् तुझे ज्ञान देनेवाले हों। ज्ञान के द्वारा तुझे वासनाओं से ऊपर उठाकर उत्कृष्ट अध्यात्म मार्ग में धारण करें। २. (सः त्वम्) = वह तू (नः) = हमारे लिए, अर्थात् हमारी प्राप्ति के लिए (शिवः भव) = कल्याण करनेवाला बन। कम-से-कम तू किसी की हानि करनेवाला न हो । ३. (सुप्रतीकः) = तू शोभन मुखवाला हो। तेरे चेहरे पर क्रोध के कारण सदा त्योरियाँ न चढ़ी रहें। ४. (विभावसुः) = तू सदा [विविधासु भासु वसति - द०] नाना प्रकार के विज्ञानों में निवास करनेवाला हो, अर्थात् तेरा जीवन ज्ञान- प्रधान हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. देवता तुझे ज्ञान के द्वारा विषय-वासनाओं से ऊपर उठाएँ। २. तू सबका कल्याण करनेवाला हो। ३. तेरा मुख मुस्कराहट से युक्त, अतएव सुन्दर हो । ४. विविध विज्ञानों में तू निवास करनेवाला बने।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे विद्वान राजा ! विद्वान लोक तुला जे ज्ञान देतात त्या ज्ञानाने तू सर्व लोकांचे कल्याण करून विविध प्रकारच्या विद्यांमध्ये स्थिर हो. विद्या प्राप्त करणारे विद्या देणाऱ्याचे सेवक बनावेत.

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    विषय

    आता सभापती हा विषय पुढी मंत्रात प्रतिपादित आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) सभापती राजा, (त्वा) तुला (विश्‍वे) (देवा:) राष्ट्रातील सर्व विद्वज्जन (चित्तिभि:) प्रेरणादायक उत्तमोत्तम ज्ञान देऊन (उद्भरन्तु) अधिकाधिक ज्ञानसंपन्न करोत म्हणजे आपल्याजवळील ज्ञान देऊन तुझे अज्ञान दूर करोत. (स:उ) तो ??? असा (त्वम्‌) तू (न:) आम्हाला (सैनिकांनी) (शिव:) मंगलकारी आणि (सुप्रतीक:) चांगले ज्ञान देणाऱ्या विचारांद्वारे (दिभावसु:) विविध प्रकारच्या विद्या आणि विचाराद्वारे सुसंपन्न करणारा (भव) हो. (विद्वानांनी राजाला व राजाने सैनिकांना चांगले ज्ञान व संस्कार द्यावेत) ॥53॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक ज्यांना विद्या देतात, त्या विद्या ग्रहण करणाऱ्यांनी विद्यादान करणाऱ्यांची सेवा केली पाहिजे. ॥53॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned King, may all the intellectuals bear and lift thee upward. May thou endowed with convincing knowledge, shining with the light of mastery of various subjects, be propitious unto us.

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    Meaning

    Agni, lord of power and glory, may all the noble people of the land with their heart and soul accept, approve, support and raise you to the heights. And you too, so high and noble, a very image of nobility and magnanimity, be good and kind to us.

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    Translation

    O fire-divine, may all the enlightened ones uphold you with their sincere thoughts. O beautiful to look at, rich in brilliance, may you be gracious to us. (1)

    Notes

    Repeated from XII. 31.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সভাপতিবিষয়মাহ ॥
    এখন সভাপতির বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বান্ সভাপতি! যে (ত্বা) তোমাকে (বিশ্বে) সমস্ত (দেবা) বিদ্বান্গণ (চিত্তিভিঃ) উত্তম উত্তম জ্ঞান দ্বারা (উদ্ভরন্তু) উৎকৃষ্টতাপূর্বক ধারণ ও উদ্ধার করিবে অর্থাৎ স্বীয় শিক্ষা দ্বারা তোমার অজ্ঞান দূর করিবে (সঃ, উ) সেই (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদিগের জন্য (শিবঃ) মঙ্গলকারী (সুপ্রতীকঃ) উত্তম প্রতীতিকারী জ্ঞানযুক্ত (বিভাবসুঃ) তথা বিবিধ প্রকারের বিদ্যাসিদ্ধান্তে স্থির (ভব) হও ॥ ৫৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে যাহাকে বিদ্যা দিবে সেই সব বিদ্যা গ্রহণকারী তাহার সেবক হইবে ॥ ৫৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উদু॑ ত্বা॒ বিশ্বে॑ দে॒বাऽঅগ্নে॒ ভর॑ন্তু॒ চিত্তি॑ভিঃ ।
    স নো॑ ভব শি॒বস্ত্বꣳ সু॒প্রতী॑কো বি॒ভাব॑সুঃ ॥ ৫৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উদু ত্বেত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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