यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 3
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
156
ऋ॒तव॑ स्थऽऋता॒वृध॑ऽऋतु॒ष्ठा स्थ॑ऽऋता॒वृधः॑। घृ॒त॒श्च्युतो॑ मधु॒श्च्युतो॑ वि॒राजो॒ नाम॑ काम॒दुघा॒ऽअक्षी॑यमाणाः॥३॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तवः॑। स्थ॒। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। ऋ॒तु॒ष्ठाः। ऋ॒तु॒स्था इत्यृ॑तु॒ऽस्थाः। स्थ॒। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। घृ॒त॒श्च्युत॒ इति॑ घृत॒ऽश्च्युतः॑। म॒धु॒श्च्युत॒ इति॑ मधु॒ऽश्च्युतः॑। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजः॑। नाम॑। का॒म॒दुघा॒ इति॑ काम॒दुघा॑। अक्षी॑यमाणाः ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतव स्थऽऋतावृधऽऋतुष्ठा स्थ ऋतावृधः । घृतश्च्युतो मधुश्च्युतो विराजो नाम कामदुघाऽअक्षीयमाणाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतवः। स्थ। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। ऋतुष्ठाः। ऋतुस्था इत्यृतुऽस्थाः। स्थ। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। घृतश्च्युत इति घृतऽश्च्युतः। मधुश्च्युत इति मधुऽश्च्युतः। विराज इति विऽराजः। नाम। कामदुघा इति कामदुघा। अक्षीयमाणाः॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
स्त्रियः पत्यादिभिः सह कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रियः! या यूयं ऋतवः स्थ, या ऋतावृध ऋतुष्ठा ऋतावृधः स्थ, याश्च यूयं घृतश्च्युतो मधुश्च्युतोऽक्षीयमाणा विराजः कामदुघा नाम धेनव इव स्थ, ता अस्मान् सुखयत॥३॥
पदार्थः
(ऋतवः) यथा वसन्तादयस्तथा (स्थ) भवत (ऋतावृधः) या ऋतेन जलेन नद्य इव सत्येन वर्द्धन्ते ताः। अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः (ऋतुष्ठाः) या ऋतुषु वसन्तादिषु तिष्ठन्ति ताः (स्थ) भवत (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं वर्धयन्ति ताः (घृतश्च्युतः) घृतमाज्यं श्च्युतं निस्सृतं याभ्यस्ताः (मधुश्च्युतः) या मधुनो मधुरात् रसात् प्राप्ताः (विराजः) विविधैर्गुणै राजमानाः प्रकाशमानाः (नाम) प्रसिद्धाः (कामदुघाः) याः कामान् दुहन्ति प्रपिपुरति ताः (अक्षीयमाणाः) क्षेतुमनर्हाः॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ऋतवो गावश्च स्वस्वसमयानुकूलतया सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति, तथैव सत्यस्त्रियः प्रतिसमयं स्वपत्यादीन् सर्वान् संतर्प्यानन्दयन्तु॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
स्त्री लोग पति आदि के साथ कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे स्त्रियो! जो तुम लोग (ऋतवः) वसन्तादि ऋतुओं के समान (स्थ) हो तथा जो (ऋतावृधः) उदक से नदियों के तुल्य सत्य के साथ उन्नति को प्राप्त होने वा (ऋतुष्ठाः) वसन्तादि ऋतुओं में स्थित होने और (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ाने वाली (स्थ) हो और जो तुम (घृतश्च्युतः) जिनसे घी निकले उन (मधुश्च्युतः) मधुर रस से प्राप्त हुई (अक्षीयमाणाः) रक्षा करने योग्य (विराजः) विविध प्रकार के गुणों से प्रकाशमान तथा (कामदुघाः) कामनाओं को पूरण करनेहारी (नाम) प्रसिद्ध गौओं के सदृश होवे, तुम लोग हम लोगों को सुखी करो॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋतु और गौ अपने-अपने समय पर अनुकूलता से सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे ही अच्छी स्त्रियां सब समय में अपने पति आदि सब पुरुषों को तृप्त कर आनन्दित करें॥३॥
विषय
राष्ट्र के घटक अंगरूप कामधेनु प्रजाएं ।
भावार्थ
पूर्व कही राज्य की घटक इष्टकाओं का स्वरूप दर्शाते हैं--हे राज्य के विशेष २ मुख्य अंगों के नेता पुरुषो ! तुम ( ऋतवः स्थ ) वर्ष, संवत्सर रूप प्रजापति के अंशभूत जिस प्रकार ६ या ५ ऋतु होते हैं और नाना प्राणियों का उपकार करते हैं उसी प्रकार तुम लोग भी 'ऋतु' हो अर्थात् ( ऋतावृधः ) ऋत अर्थात् सत्य व्यवहार और न्याययुक्त राज्य-तन्त्र को वृद्धि करने वाले हो । और हे उन अधिकारियों के आश्रय प्रजा लोगो ! और ( ऋतुष्ठाः स्थ ) जिस प्रकार ऋतुओं में आश्रित मास पक्ष दिन आदि हैं उसी प्रकार तुम राष्ट्र के संचालकों पर आश्रित लोग भी 'ऋतुस्थ' ही हो क्योंकि तुम भी ( ऋतावृधः स्थ ) सत्य व्यवहार की वृद्धि करने वाले हो । आप लोग ही ( घृतश्च्युतः ) घृत, दूध, तेज और पुष्टिप्रद पदार्थों को देने वाले हो ( मधुश्च्युतः ) अन्न और मधुर पदार्थों और सुखकारी पदार्थों और ज्ञानों को भी उत्पन्न करने वाले हो, तुम लोग ( विराजः ) विविध गुण और ऐश्वर्यों से युक्त होकर ( अक्षीयमाणाः ) कभी क्षीण न होने वाले, अक्षय ( कामदुघा: ) यथेष्ट प्रकार से प्रजा की आकांक्षाओं के भरपूर करने वाले कामदुघा गौओं के समान हो ।शत० ९ ।१ । २ । १८-१९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता। विराडार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
ऋतवः-ऋतुष्ठाः
पदार्थ
१. गत मन्त्र में यज्ञ का वर्णन था। उन यज्ञिय स्वभाववाले पुरुषों से कहते हैं कि (ऋतवः स्थ) = तुम अपने जीवन में बड़ी नियमित गतिवाले बनो [ऋ गतौ] । ऋतुएँ जैसे समय पर आती हैं उसी प्रकार तुम अपने सब कार्य समय पर करनेवाले बनो। २. (ऋतावृध:) = इस ऋत से प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करने से बढ़नेवाले बनो। 'ऋत' तुम्हारी वृद्धि का कारण बने । ३. (ऋतुष्ठाः स्थ) = तुम ऋतुओं में स्थित होओ, अर्थात् तुम्हारा आहार-विहार ऋतुओं के अनुकूल हो तथा (ऋतावृधः) = उस-उस ऋतु में किये जानेवाले यज्ञों से अथवा समय-समय पर होनेवाले सत्यानुष्ठान से तुम्हारा वर्धन हो । ४. इस ऋतुचर्या के ठीक पालन से तुम (घृतश्च्युतः) = घृत के स्वामी बनो। तुम्हारे मस्तिष्क में ज्ञान दीप्ति हो । तुम्हारे चेहरे पर स्वाथ्य व ज्ञान की आभा टपकती हो तथा (मधुश्च्युतः) = तुम मधुस्रावी बनो । तुम्हारे व्यवहार में तुम्हारी वाणी से माधुर्य टपकता हो। 'अन्दर ज्ञानाग्नि, बाहर माधुर्यमयी वाणी की शीतलता' ये हो तुम्हारा जीवन। ५. (विराजो नाम) = [विशेषेण राजते, नाम इति प्रसिद्धौ] इस ज्ञान व माधुर्य के कारण तू 'विराज' नाम से प्रसिद्ध हो। अथवा इन्द्रियों को विशेषरूप से शासित करनेवाले के रूप में तुम्हारी प्रसिद्धि हो। ६. (कामदुघाः) = इन्द्रियों को वश में करके काम्य = चाहने योग्य पदार्थों का ही अपने में प्रपूरण करनेवाले तुम बनो। ७. और इस प्रकार अनिष्ट वस्तुओं के सेवन से दूर रहकर तुम (अक्षीयमाणाः) = कभी क्षीणशक्ति न होवो। जीर्णता का मूल अनिष्ट वस्तुओं का स्वादवश सेवन ही है। स्वाद से ऊपर उठकर हम स्वनाश से भी ऊपर उठ जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी गति नियमित हो। यज्ञों से हम शक्तियों का वर्धन करें। अनिष्ट पदार्थों के सेवन से शक्तियों का क्षय न होने दें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ऋतू व गाई काळानुसार सर्व प्राण्यांना सुखी करतात तसे चांगल्या स्त्रियांनी सर्वकाळी आपल्या पतींना तृप्त करून आनंदित करावे.
विषय
स्त्रियांनी आपल्या पतीशी (व घरातील इतरांशी) कसे वागावे, पुढील मंत्रात याविषयी विवेचन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ( घरातील पुरुषमंडळीनी घरातील स्त्रियांची केलेली स्तुती वा त्यांच्याकडून केलेली अपेक्षा) हे स्त्रियांनो, (आजी, आई, मुलगी, सासू, सून, जाऊ आदी सर्व स्त्रियांनो,) तुम्ही (ऋतव:) आम्हासाठी वसंत आदी ऋतूंप्रमाणे सुखकारी (स्थ) व्हा. तसेच (ऋतावृध:) पाण्याने भरलेल्या नदीप्रमाणे सत्यवचन व सत्याचरणाने सदैव उन्नती करीत राहा. (ऋतुष्ठा:) वसंत आदी सहाही ऋतूंमधे स्थिर, शांत व निर्भय राहा. ((ऋतुष्ठा:) वसंत आदी सहाही ऋतूंमधे स्थिर, शांत व निर्भय राहा (ऋतुष्ठा:) वसंत आदी सहाही ऋतूंमधे स्थिर, शांत व निंर्भय राहा. (ऋतावृध:) तुम्हा सत्याची वृद्धी करणाऱ्या आहात. (घृतश्च्युत:) दही-लोण्यातून तूप तयार करणाऱ्या आणि (मधुश्च्युत:) अनेक मधुर रस (फळांचा) गाळणाऱ्या आहात. (या तुमच्या सद्गुणांमुळे) (अक्षीयमाणा:) तुम्ही रक्षणीय व प्रिय आहात. (विराल:) विविध गुणांमुळे प्रशंसनीय व कीर्तीमान असून तुम्ही (कामदुधा:) कामना पूर्ण करणाऱ्या (नाम) गायीप्रमाणे व्हा आणि आम्हाला (घरातील सर्वांना) आनंदी ठेवा, (आम्ही तुमच्याकडून अशी आशा बाळगत आहोत) ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ- या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे ज्याप्रमाणे ऋतू आणि गायी योग्यवेळी सर्व काही अनुकूलता प्रदान करतात, आणि सर्व प्राण्यांना सुखी करतात, त्याप्रमाणे सदाचारी, सद्गुणी स्त्रियांनी आपले पती आदी घरातील सर्व पुरुषांना सदा सन्तुष्ट व प्रसन्न ठेवावे. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O women, ye are pleasant like the spring season, full of truth like canals with water, enjoyers of seasons like spring, advancers of truth, givers of butter, givers of sweet juices, worthy of protection, full of various noble qualities, fulfillers of our desires like kine, make us happy.
Meaning
Ladies of the home brilliant as yajna fire, holy as truth and universal law, reflecting the plenty and purity of distilled ghee and overflowing with the sweetness of honey, you are surely treasures of fulfilment beyond decay. Be vibrant as spring, stay inviolable as the cycle of the seasons and add to the sanctity of the laws of life.
Translation
(O my desirable cows), you are (like) seasons helping the sacrifice; you are fixed in your seasons and help in the sacrifice. Dripping butter and dripping honey, you look fine. You grant whatever is desired and your stock never exhausts. (1)
Notes
Reference to iṣṭaka dhenavaḥ is continued. Rtavrdhah, ऋतं सत्यं यज्ञं वा वर्धयन्ति याः, that enhance the truth (right) or the sacrifice. Virajah, विशेषेण राजन्ते दीप्यन्ते ताः विराजः, that look very fine. Kāmadughaḥ,यत्काम्यं तस्य दोग्ध्र्य: , those who yield, what ever is desired; fulfiller of desires. Akṣīyamāṇāḥ,न क्षीयंते या: ता:, never-exhausting.
बंगाली (1)
विषय
স্ত্রিয়ঃ পত্যাদিভিঃ সহ কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
স্ত্রীগণ পতি আদি সহ কীরূপ আচরণ করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে স্ত্রীগণ! তোমরা (ঋতবঃ) বসন্তাদি ঋতুগুলির সমান (স্থ) হও তথা (ঋতাবৃধঃ) জল দ্বারা নদী তুল্য সত্য সহ উন্নতিকে প্রাপ্ত হওয়ার বা (ঋতুষ্ঠাঃ) বসন্তাদি ঋতুগুলিতে স্থিত হওয়ার এবং (ঋতাবৃধঃ) সত্যকে বৃদ্ধি করিবার (স্থ) জন্য হও এবং তুমি (ঘৃতশ্চুতঃ) যাহা হইতে ঘৃত বাহির হয় সেই সব (মধুশ্চুতঃ) মধুর রস হইতে প্রাপ্ত (অক্ষীয়মানাঃ) রক্ষা করিবার যোগ্য (বিরাজঃ) বিবিধ প্রকার গুণগুলি দ্বারা প্রকাশমান তথা (কামদুঘাঃ) কামনা পূরণ কারিণী (নাম) বিখ্যাত গাভী সদৃশ হইবে । তোমরা আমাদেরকে সুখী কর ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন ঋতু ও গাভি স্ব স্ব সময়ে অনুকূলতা পূর্বক সকল প্রাণিদিগকে সুখী করে সেইরূপ উত্তম স্ত্রীগণ সকল সময়ে স্বীয় পতি আদি সকল পুরুষদিগকে তৃপ্তি করিয়া আনন্দিত করিবে ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঋ॒তব॑ স্থऽঋতা॒বৃধ॑ऽঋতু॒ষ্ঠা স্থ॑ऽঋতা॒বৃধঃ॑ ।
ঘৃ॒ত॒শ্চ্যুতো॑ মধু॒শ্চ্যুতো॑ বি॒রাজো॒ নাম॑ কাম॒দুঘা॒ऽঅক্ষী॑য়মাণাঃ ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঋতব ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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