Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 17

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 33
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    169

    आ॒शुः शिशा॑नो वृष॒भो न भी॒मो घ॑नाघ॒नः क्षोभ॑णश्चर्षणी॒नाम्। सं॒क्रन्द॑नोऽनिमि॒षऽए॑कवी॒रः श॒तꣳ सेना॑ऽअजयत् सा॒कमिन्द्रः॑॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒शुः। शिशा॑नः। वृ॒ष॒भः। न। भी॒मः। घ॒ना॒घ॒नः। क्षोभ॑णः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। सं॒क्रन्द॑न॒ इति॑ स॒म्ऽक्रन्द॑नः। अ॒नि॒मि॒ष इत्य॑निऽमिषः। ए॒क॒वी॒र इत्ये॑कऽवी॒रः। श॒तम्। सेनाः॑। अ॒ज॒य॒त्। सा॒कम्। इन्द्रः॑ ॥३३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । सङ्क्रन्दनो निमिषऽएकवीरः शतँ सेनाऽअजयत्साकमिन्द्रः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आशुः। शिशानः। वृषभः। न। भीमः। घनाघनः। क्षोभणः। चर्षणीनाम्। संक्रन्दन इति सम्ऽक्रन्दनः। अनिमिष इत्यनिऽमिषः। एकवीर इत्येकऽवीरः। शतम्। सेनाः। अजयत्। साकम्। इन्द्रः॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सेनापतिकृत्यमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो मनुष्या! यूयं यश्चर्षणीनामाशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणः संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीर इन्द्रोऽस्माभिः साकं शतं सेना अजयत्, तमेव सेनाधीशं कुरुत॥३३॥

    पदार्थः

    (आशुः) शीघ्रकारी (शिशानः) तनूकर्त्ता (वृषभः) बलीवर्दः (न) इव (भीमः) भयंकरः (घनाघनः) अतिशयेन शत्रून् घातुकः। हन्तेर्घत्वं चेति वार्त्तिकेनाचि प्रत्यये घत्वमभ्यासस्यागागमश्च (क्षोभणः) क्षोभकर्त्ता संचालयिता (चर्षणीनाम्) मनुष्याणां तत्सम्बन्धिसेनानां वा। चर्षणय इति मनुष्यनामसु पठितम्॥ (निघं॰२.३) (संक्रन्दनः) सम्यक् शत्रूणां रोदयिता (अनिमिषः) अहर्निशं प्रयतमानः (एकवीरः) एकश्चासौ वीरश्च (शतम्) असंख्याः (सेनाः) सिन्वन्ति बध्नन्ति शत्रून् याभिस्ताः (अजयत्) जयति (साकम्) सार्द्धम् (इन्द्रः) शत्रूणां विदारयिता सेनेशः॥३३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्या धनुर्वेदविदृगादिविन्निर्भयस्सर्वविद्यो बलिष्ठो धार्म्मिकः स्वराज्यानुरागी जितेन्द्रियोऽरीणां विजेता स्वसेनायाः शिक्षणे योधने च कुशलो वीरो भवेत्, स सेनाधीशाधिकारे स्थापनीयः॥३३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सेनापति के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो! तुम लोग जो (चर्षणीनाम्) सब मनुष्यों वा उन की सम्बन्धिनी सेनाओं में (आशुः) शीघ्रकारी (शिशानः) पदार्थों को सूक्ष्म करने वाला (वृषभः) बलवान् बैल के (न) समान (भीमः) भयंकर (घनाघनः) अत्यन्त आवश्यकता के साथ शत्रुओं का नाश करने (क्षोभणः) उन को कंपाने (संक्रन्दनः) अच्छे प्रकार शत्रुओं को रुलाने और (अनिमिषः) रात्रि-दिन प्रयत्न करनेहारा (एकवीरः) अकेला वीर (इन्द्रः) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाला सेना का अधिपति पुरुष हम लोगों के (साकम्) साथ (शतम्) अनेकों (सेनाः) उन सेनाओं को जिनसे शत्रुओं को बांधते हैं, (अजयत्) जीतता है, उसी को सेनाधीश करो॥३३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो धनुर्वेद और ऋग्वेदादि शास्त्रों का जानने वाला, निर्भय, सब विद्याओं में कुशल, अति बलवान्, धार्मिक, अपने स्वामी के राज्य में प्रीति करने वाला, जितेन्द्रिय, शत्रुओं का जीतनेहारा तथा अपनी सेना को सिखाने और युद्ध कराने में कुशल वीर पुरुष हो, उसको सेनापति के अधिकार पर नियुक्त करें॥३३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का उग्ररूप सेनापति रूप से इन्द्र का वर्णन ।पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    सेनापति रूप से इन्द्र का वर्णन । ( आशुः ) अति वेगवान्, शीघ्रगामी, बड़े वेग से शत्रु पर आक्रमण करने वाला ( शिशानः ) अपने हथियारों को खूब तीक्ष्ण करके रखने वाला अथवा ( शिशान: )शत्रु सेनाओं को काटता फाटता, ( वृषभः न भीम: ) मदमत्त वृषभ के समान भयंकार अथवा मेघ के समान शत्रुओं पर शर वर्षा करने वाला होकर अति भयंकर ( घनाघनः ) शत्रुओं को निरन्तर या वार वार हनन करने वाला, अथवा मारो मारो इस प्रकार सेनाओं को आज्ञा देने वाला, ( चर्षणीनानम् क्षोभण: ) समस्त मनुष्यों को विक्षुब्ध कर देने वाला, ( संक्रन्दनः ) शत्रुओं को अच्छी प्रकार रुलाने या ललकारने वाला, ( अनिमिषः ) कभी न झपकन वाला, सदा सावधान एवं निर्भय, प्रमाद रहित, ( एक वीरः ) एक मात्र वीर्यवान् शूरवीर ( इन्द्र: ) शत्रुओं का विदारण करने में समर्थ पुरुष ही ( शतं सेनाः ) सैकड़ों नायकों सहित दलों, या सेनाओं को ( साकम् ) एकही साथ ( अजयत् ) विजय करता है। जो पुरुष ऐसा शूरवीर हो वही सेनापति इन्द्र पद पर विराजे । शत० ९ । २ । ३ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४४ अप्रतिरथ ऐन्द्र ऋषिः । इन्द्रो देवता | त्रिष्टुभः । अप्रतिरथं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शतसेना पराजय

    पदार्थ

    १. प्रभु के उपासक का प्रकरण चल रहा था। 'यह उपासक कैसा बन जाता है। ' प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि (आशुः) = [अश्नुते व्याप्नोति] यह सदा कार्यों में व्यापृत रहता है। 'विश्वकर्मा' की उपासना करके यह 'विश्वकर्मा' क्यों न बनेगा? 'आशु' शब्द में शीघ्रता की भी भावना है। यह शीघ्रता से कार्य करनेवाला होता है। इसमें आलस्य नहीं होता । २. (शिशान:) = [शो तनूकरणे] यह अपनी बुद्धि को खूब ही तीव्र बनाता है। इस तीव्र बुद्धि ने ही तो उसे प्रभु का दर्शन कराना है ('दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:') = प्रभु सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही देखे जाते हैं। ३. (वृषभ:) = यह वृषभ के समान शक्तिशाली होता है। ('नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः') = निर्बल से प्रभु की प्राप्ति सम्भव नहीं होती । ४. (न भीमः) = शक्तिशाली होते हुए भी यह भयंकर नहीं होता। अपितु शक्ति के साथ इसमें शान्ति व सौम्यता होती है। सौम्यता शक्ति को अलंकृत करनेवाली है। यह शक्ति से पर-पीड़न न करके पर रक्षण ही करता है। ५. (घनाघनः) = यह काम, क्रोधादि आन्तर शत्रुओं का पूर्णरूपेण हनन करनेवाला होता है। ६. (चर्षणीनां क्षोभणः) = मनुष्यों को उत्तम प्रेरणा देकर उनमें अध्यात्म-संग्राम के लिए हलचल उत्पन्न कर देता है। वे कामादि शत्रुओं से युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। ७. (संक्रन्दनः) = यह सदा प्रभु का आह्वान करनेवाला होता है। प्रभु के नामों का उच्चारण इसे कामादि शत्रुओं के आक्रमण से बचाता है। ८. (अनिमिषः) = यह एक पलक भी नहीं मारता । सदा जागरित- सावधान रहता है। ज़रा-सा प्रमाद किया तो वासनाओं का शिकार हुआ। ९. (एकवीरः) = इन 'प्रद्युम्न' प्रकृष्ट बलवाली वासनाओं से संग्राम करनेवाला यह अद्वितीय वीर है। १०. (इन्द्रः) = यह सब इन्द्रियों को वासनाओं के आक्रमण से बचाकर उनका सच्चा अधिपति बनता है। ११. (शतं सेनाः साकम् अजयत्) = और अब वासनाओं की एक साथ आई हुई सैकड़ों सेनाओं भी को जीत लेता है। अथवा (साकम्) = उस प्रभु के साथ रहनेवाला यह 'अप्रतिरथ' (शतं सेना: अजयत्) = वासनाओं की शतशः सेनाओं को भी जीत लेता है। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बने हुए इसको कामादि की सेनाएँ पराजित नहीं कर पातीं।

    भावार्थ

    भावार्थ- मन्त्र - वर्णित लक्षणों को अपने में विकसित करके हम सच्चे प्रभु-भक्त प्रमाणित हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो धनुर्वेद व ऋग्वेद इत्यादी शास्त्रांचा जाणकार, निर्भय व बलवान आणि जितेन्द्रिय, सर्व विद्यांमध्ये कुशल असून धार्मिक व स्वामिभक्त, शत्रूंना जिंकणारा, आपल्या सेनेला प्रशिक्षित करणारा व युद्ध करण्यात कुशल असा वीर पुरुष असेल तर त्याला सर्व माणसांनी सेनापती नेमावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील मंत्रात सेनापतीच्या कर्तव्याविषयी प्रतिपादन -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान मनुष्यांनो (राष्ट्रातील सुजाण व जबाबदार नागरिक हो), तुम्ही (अशा वीर पुरुषाला (सेनाधीश म्हणून निवडा की जो) (चर्षणीनाम्‌) सर्व मनुष्यांपैकी (शीघ्र कार्यकारी) अथवा सैन्यामधील सैनिकांपैकी जो (आशु:) शीघ्र काही (आक्रमण, प्रतिरोध, संचालन आदी कार्यात सर्वाधिक प्रवीण) आहे, तो (शिशान:) पदार्थांना सूक्ष्म करण्यात कुशल आहे अथवा जो (वृषभ:) वस्तूंना (ध्यायादींना) पायांनी तुडवणाऱ्या बैला (न) प्रमाणे (भीम:) भयंकर आहे आणि जो (घनाघन:) आवश्‍यक अनेल, तेव्हा शत्रूंचा विनाश करणारा (क्षोभण:) शत्रूंना कंपित करणारा, त्याना (संक्रन्दन:) रडविणारा आणि (अनिमिष:) रात्रंदिवस यत्नशील व जागरूक असणारा असा (एकवीर:) एकटाच-सर्वांहून वेगळा वीर पुरुष असेल, त्या (इन्द्र:) शत्रूसैन्याला विदीर्ण करणाऱ्या वीर पुरुषाला सैन्याधिपती नेमून आम्ही (साकम्‌) त्याच्या सह (शतम्‌) अनेक (सेना:) सैन्य तयार करून शत्रूला कैद करतो आणि त्याला ( आजयत्‌) जिंकतो. अशा पराक्रमी पुरुषालाच तुम्हीही सेनाधीश नेमा ॥33॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी (नागरिकांनी) हे कर्तव्य भावाने की त्यानी अशा रणशूरालाच सैन्याधीश नेमावे की जो धनुर्वेद आणि ऋग्वेद आदी शास्त्रांचा ज्ञाता आहे, निर्भय आणि सर्वविद्यापारंगत आहे. जो बलवान, धार्मिक असून आपल्या राजाच्या वा राष्ट्राध्यक्षांच्या राज्यावर प्रीती करणारा आहे, जो जितेंद्रिय, सदाविजयी आणि आपल्या सैन्याला सर्व (आवश्‍यक सैन्य शिक्षण) देण्यात व युद्धक्षेत्रात मार्गदर्शन करण्यात कुशल आहे. अशा वीर मनुष्यालाच नागरिकांनी सेनापतीपदावर नेमावे. ॥33॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He is an ideal commander of the army, who is swift, keeps his arms sharpened, fearless like a strong bull, a zealous killer of foes, strikes terror in men ; makes the enemies weep bitterly, works day and night, a sole hero, rends asunder the opponents, and subdues with us a hundred armies.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    He alone is Indra, worthy to be commander of the army, who is swift and instant in action and wields blazing deadly weapons in readiness, who roars with strength like a bull and strikes fear, terror and panic in the enemy force, who is constantly watchful and a fearless challenger, who is a matchless hero, rallies the force at the call and with us comes out victorious over a hundred armies of the enemy.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Quick, striking with sharpened bolt, terrible like a bull, destroyer of enemies on a large scale, arouser of people, making the sinful persons cry, never negligent, the unique hero, the resplendent one (the army-chief) conquers a hundred invading armies at a time. (1)

    Notes

    Now here are eleven verses in the priase of Indra, all taken from Rgveda X. 103. The verses apply very well to an ideal commander of an army. Sisānah, from √शो तनूकरणे, to sharpen, to whet. श्यति वज्रं तीक्ष्णीकरोति इति शिशान: , one that sharpens his thunderbolt; or who strikes with a sharpened bolt. Ghanāghanah, from √हन् to kill, शत्रूणां अतिशयेन हन्ता, determined killer of enemies. Carşaṇīnām, मनुष्याणां , of men or people. Animiṣaḥ, अप्रमादी, never negligent; ever-alert. Sākam, सहैव, all at a time; at once. Sankrandanah, सम्यक् शत्रूणां रोदयिता, who makes enemies cry bitterly. Also, सम्यक् क्रन्दनं परभयहेतुर्ध्वनिर्यस्य, one who roars so loudly as to frighten others. Or, challenger of enemies.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সেনাপতিকৃত্যমুপদিশ্যতে ॥
    এখন সেনাপতির কৃত্যের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ মনুষ্যগণ! তোমরা যে (চর্ষণীনাম্) সমস্ত মনুষ্যগণ বা তাহাদের সম্পর্কিত সেনা মধ্যে (আশুঃ) শীঘ্রকারী (শিশানঃ) পদার্থসমূহকে সূক্ষ্মকারী (বৃষভঃ) বলবান্ বৃষের (ন) সমান (ভীমঃ) ভয়ংকর (ঘনাঘনঃ) অত্যন্ত আবশ্যকতা সহ শত্রুদিগের নাশকারী (ক্ষোভনঃ) তাহাদিগকে কম্পনকারী (সংক্রন্দনঃ) উত্তম প্রকার শত্রুদিগকে রোদনকারী এবং (অনিমিষঃ) রাত্রি-দিন প্রযত্নকারী (একবীরঃ) একাবীর (ইন্দ্রঃ) শত্রুদিগকে বিদীর্ণকারী সেনার অধিপতি পুরুষ আমাদিগের (সাকম্) সহ (শতম্) বহু (সেনাঃ) সেই সব সেনাকে যদ্দ্বারা শত্রুকে বন্ধন করে, (অজয়ৎ) জিতিয়া লয়–তাহাকেই সেনাধীশ কর ॥ ৩৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, যিনি ধনুর্বেদ এবং ঋগ্বেদাদি শাস্ত্রজ্ঞাতা, নির্ভয়, সর্বদিকে কুশল, অতি বলবান্, ধার্মিক, নিজ প্রভুর রাজ্যে সম্প্রীতিকারী, জিতেন্দ্রিয়, শত্রুদিগের বিজয়ী তথা স্বীয় সেনাকে শেখাইতে এবং যুদ্ধ করাইতে কুশল বীর পুরুষ হয় তাহাকে সেনাপতির অধিকারে নিযুক্ত করিবে ॥ ৩৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ॒শুঃ শিশা॑নো বৃষ॒ভো ন ভী॒মো ঘ॑নাঘ॒নঃ ক্ষোভ॑ণশ্চর্ষণী॒নাম্ । সং॒ক্রন্দ॑নোऽনিমি॒ষऽএ॑কবী॒রঃ শ॒তꣳ সেনা॑ऽঅজয়ৎ সা॒কমিন্দ্রঃ॑ ॥ ৩৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আশুঃ শিশান ইত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top