यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 85
ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः
देवता - चातुर्मास्या मरुतो देवता
छन्दः - स्वराडार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
80
स्वत॑वाँश्च प्रघा॒सी च॑ सान्तप॒नश्च॑ गृहमे॒धी च॑। क्री॒डी च॑ शा॒की चो॑ज्जे॒षी॥८५॥
स्वर सहित पद पाठस्वत॑वा॒निति॒ स्वऽत॑वान्। च॒। प्र॒घा॒सीति॑ प्रऽघा॒सी। च॒। सा॒न्त॒प॒न इति॑ साम्ऽतप॒नः। च॒। गृ॒ह॒मे॒धीति॑ गृ॒ह॒मे॒धी। च॒। क्री॒डी। च॒। शा॒की। च॒। उ॒ज्जे॒षीत्यु॑त्ऽजे॒षी ॥८५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वतवाँश्च प्रघासी च सान्तपनश्च गृहमेधी च । क्रीडी च शाकी चोज्जेषी ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वतवानिति स्वऽतवान्। च। प्रघासीति प्रऽघासी। च। सान्तपन इति साम्ऽतपनः। च। गृहमेधीति गृहमेधी। च। क्रीडी। च। शाकी। च। उज्जेषीत्युत्ऽजेषी॥८५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्स विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह॥
अन्वयः
यः स्वतवांश्च प्रघासी च सान्तपनश्च गृहमेधी च क्रीडी च शाकी च भवेत्, स उज्जेषी स्यात्॥८५॥
पदार्थः
(स्वतवान्) यः स्वान् तौति वर्द्धयति सः। अत्र तू धातोरौणादिक आनिः प्रत्ययः (च) (प्रघासी) बहवः प्रकृष्टा घासा भोज्यानि विद्यन्ते यस्य सः (च) (सान्तपनः) सम्यक् शत्रून् तापयति तस्यायम् (च) (गृहमेधी) प्रशस्तो गृहे मेधः सङ्गमोऽस्यास्तीति सः (च) (क्रीडी) (च) अवश्यं क्रीडितुं शीलः (शाकी) अवश्यं शक्तुं शीलः (च) (उज्जेषी) उत्कृष्टतया जेतुं शीलः॥८५॥
भावार्थः
यो बहुबलान्नसामर्थ्यो गृहस्थो भवति, स सर्वत्र विजयमाप्नोति॥८५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो (स्वतवान्) अपनों की वृद्धि कराने वाला (च) और (प्रघासी) जिसके बहुत भोजन करने योग्य पदार्थ विद्यमान हैं, ऐसा (च) और (सान्तपनः) अच्छे प्रकार शत्रुजनों को तपाने (च) और (गृहमेधी) जिसका प्रशंसायुक्त घर में सङ्ग ऐसा (च) और (क्रीडी) अवश्य खेलने के स्वभाव वाला (च) और (शाकी) अवश्य शक्ति रखने का स्वभाव वाला (च) भी हो, वह (उज्जेषी) मन से अत्यन्त जीतने वाला हो॥८५॥
भावार्थ
जो बहुत बल और अन्न के सामर्थ्य से युक्त गृहस्थ होता है, वह सब जगह विजय को प्राप्त होता है॥८५॥
विषय
प्रजा के सात मुख्य अंग ।
भावार्थ
और इसी प्रकार ( स्वतवान् ) स्वयं बलशाली, ( प्रघासीच ) उत्कृष्ट पदार्थ को भोजन करने वाला, ( सांतपनः च ) उत्तम रूप से तप करने वाला या प्रजा के धर्म कर्म संस्कार करनेहारा, ( गृहमेधी च ) गृहस्थ, ( क्रीडी च ) क्रीड़ाशील, युद्धविजयी, ( शाकी ) शक्तिमान्, ( उज्जेषी च ) और उत्तम पदों का जय करने हारा ये लोग भी प्रजा के मुख्य अंग है ।
टिप्पणी
इतः परं क्वचित पुस्तकेषु अयं मन्त्रः पठ्यते । अर्थ - ( उग्रः ) बलवान् ( भीम: ) भयानक ( ध्वान्तः ) अन्धकार के समान शत्रुओं को अन्धकार करनेहारा, ( धुविः च ) कंपा देने वाला, ( सामहवान् ) पराजित करने वाला, ( अभियुग्वा ) आक्रमण करनेवाला और ( विक्षिपः ) विविध दिशाओं से शत्रु पर शस्त्र फेंकने वाला। ये भी विजय कार्य के निमित्त वीर नेता पुरुष आवश्यक हैं। इस प्रकार ये मरुद्गण ४९ गिने जाते हैं ।
विषय
स्वतवान्-प्रघासी
पदार्थ
१. यह प्राणसाधक (स्वतवाँश्च) = [ यः स्वं तौति वर्धयति ] आत्मशक्ति को बढ़ाता है और [ स्वं स्वकीयं तवो बलं यस्य] अपने बलवाला होता है, यह आत्मरक्षा के लिए औरों पर निर्भर नहीं करता। २. (प्रघासी च) इस शक्ति सम्पादन के लिए [प्रकृष्टा घासा भोज्यानि विद्यन्ते यस्य] उत्तम सात्त्विक शाक, वनस्पति भोजनों को ही खानेवाला बनता है । ३. (सान्तपनश्च) = [सम्यक् शत्रून् तापयति ] शक्तिसम्पन्न होकर यह शत्रुओं को तप्त करता है। अथवा उत्तम तप करनेवाला होता है। ४. इस प्रकार तपस्वी बनकर यह गृहमेधी = [गृहे मेधः सङ्गमो यस्य] गृह में उत्तम सङ्गमवाला होता है, अर्थात् घर को बड़ा उत्तम बना पाता है । ५. (क्रीडी च) = यह संसार में होनेवाले ऊँच-नीच को क्रीड़ा के स्वभाव में लेनेवाला होता है, उनसे घबराता नहीं । ६. वस्तुत: इसी कारण शाकी (च) = ये कर्म उसकी शक्ति को बढ़ानेवाले होते हैं । ७. शक्तिशाली बनकर यह (उज्जेषी च) = सदा उत्कृष्ट विजय पानेवाला होता है। यह विजय उसके सदाचार का प्रमाण है, और यह विजय ही उसे परमात्मा को प्राप्त करानेवाली होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारा बल बढ़ेगा और अन्त में हम विजयी बनेंगे।
मराठी (2)
भावार्थ
ज्या गृहस्थाजवळ अत्यंत बळ व अन्न सामर्थ्य असते त्याला सर्व ठिकाणी विजय प्राप्त होतो.
विषय
तो विद्वान कसा असावा, याविषयी –
शब्दार्थ
शब्दार्थ - विद्वान कसा असावा? तो (स्वत:वान्) आपल्या (सहकारी, मित्र आदींची) प्रगती करणारा (वा मैत्री वाढविणारा असावा (च) आणि प्रवासी ज्याच्याजवळ भोज्य पदार्थांना भरपूर संचय आहे, असे आहात. (च) आणखी आपण (सान्तपन:) शत्रूंना सतावणारे (त्यांना सळो की पळो करणारे) (च) आणि (गृहमेधी) घरामधे सर्व प्रिय आहात. (च) आणि आपण (क्रीडी) क्रीडा प्रिय असणारे (मोकळ्यापणे सर्वांशी खेळीमेळीने वागणारे) (च) आणि शाकी पुष्कळ शक्तीसंपन्न आहात. (च) आणि जो कोणी आपल्यासारखा असेल, तो देखील (उज्जेषी) आपल्या मानसिक बळाद्वारे सर्वांना जिंकणारा होईल. ॥85॥
भावार्थ
भावार्थ - जो गृहाश्रमी गृहस्थ भरपूर शक्ती आणि अन्न-धान्याने समृद्ध असतो, तो सर्व ठिकाणीं विजय प्राप्त करतो ॥85॥
इंग्लिश (3)
Meaning
He who exalts his men, feasts on dainty dishes, torments the foes, is an admirable householder, lover of games, and mighty, becomes a nice conqueror.
Meaning
The man inherently valiant and firmly rooted, who maintains good health with nourishments, who endures and gives a hot pursuit to the enemy, who is dedicated to the home, who loves sports, is powerful, and who is ambitious to win, such a man is Marut, a live wire. May the Maruts join our yajna.
Translation
Confident of his strength (svatavan), voracious (praghasi), harasser of enemies (santapana), the householder (grhamedhi). sports-lover (kridi), competent (Saki), and ambitious for victories (ujjesi); (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্স বিদ্বান্ কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
পুনঃ সেই বিদ্বান্ কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যে (স্বতবান্) স্বয়ং বৃদ্ধিকারী (চ) এবং (প্রধাসী) যাহার বহু ভোজন করিবার যোগ্য পদার্থ বিদ্যমান এমন (চ) এবং (সান্তপনঃ) উত্তম প্রকারে শত্রুগণকে তাপন করায় (চ) এবং (গৃহমেধী) যাহার প্রশংসাযুক্ত গৃহে সঙ্গ এমন (চ) এবং (ক্রীডী) অবশ্য খেলিবার স্বভাবযুক্ত (চ) এবং (শাকী) অবশ্য শক্তি রাখিবার স্বভাবযুক্ত (চ) ও হয় সে (উজ্জেষী) মন দ্বারা অত্যন্ত বিজয়ী হয় ॥ ৮৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে অত্যন্ত বল ও অন্নের সামর্থ্য যুক্ত গৃহস্থ হয় সে সর্বত্র বিজয় লাভ করে ॥ ৮৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স্বত॑বাঁশ্চ প্রঘা॒সী চ॑ সান্তপ॒নশ্চ॑ গৃহমে॒ধী চ॑ ।
ক্রী॒ডী চ॑ শা॒কী চো॑জ্জে॒ষী ॥ ৮৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
স্বতবানিত্যস্য সপ্তঋষয় ঋষয়ঃ । চাতুর্মাস্যা মরুতো দেবতাঃ ।
স্বরাডার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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