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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी स्वरः - निषादः
    114

    पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न् रुरु॒चऽउ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न् न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ऽआ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णोऽअ॒जरः॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒व॒कया॑। यः। चि॒तय॑न्त्या। कृ॒पा। क्षाम॑न्। रु॒रु॒चे। उ॒षसः॑। न। भा॒नुना॑। तूर्व॑न्। न। याम॑न्। एत॑शस्य। नु। रणे॑। आ। यः। घृ॒णे। न। त॒तृ॒षा॒णः। अ॒जरः॑ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावकया यश्चितयन्त्या कृपा क्षामन्रुरुचऽउषसो न भानुना । तूर्वन्न यामन्नेतशस्य नू रणऽआ यो घृणे न ततृषाणोऽअजरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पावकया। यः। चितयन्त्या। कृपा। क्षामन्। रुरुचे। उषसः। न। भानुना। तूर्वन्। न। यामन्। एतशस्य। नु। रणे। आ। यः। घृणे। न। ततृषाणः। अजरः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 10
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सेनापतिना कथम्भवितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यः पावकया चितयन्त्या कृपा सह वर्त्तमानः सेनापतिर्भानुनोषसो न क्षामन् रुरुचे, यो वा यामन्नेतशस्य नु तूर्वन् न घृणे रणे ततृषाणो नाजर आरुरुचे, स राज्यङ्कर्तुमर्हति॥१०॥

    पदार्थः

    (पावकया) पवित्रकारिकया (यः) (चितयन्त्या) चेतनतायाः कर्त्र्या (कृपा) सामर्थ्येन (क्षामन्) क्षामनि राज्यभूमौ। क्षामेति पृथिवीनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१) (रुरुचे) रोचते (उषसः) प्रभाताः (न) इव (भानुना) दीप्त्या (तूर्वन्) हिंसन् (न) इव (यामन्) यामनि मार्गे प्रहरे वा (एतशस्य) अश्वस्य सम्बन्धीनि बलानि। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१४) (नु) क्षिप्रम्। अत्र ऋचितुनु॰ [अष्टा॰६.३.१३३] इति दीर्घः (रणे) (आ) (यः) (घृणे) प्रदीप्ते (न) इव (ततृषाणः) पिपासितः (अजरः) जरारहितः॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यश्चन्द्रश्च दीप्त्या, सुशोभेते तथैवोत्तमया स्त्रिया सुपतिः सेनया सेनापतिश्च सुप्रकाशते॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यः) जो (पावकया) पवित्र करने और (चितयन्त्या) चेतनता करानेहारी (कृपा) शक्ति के साथ वर्त्तमान सेनापति जैसे (भानुना) दीप्ति से (उषसः) प्रभात समय शोभित होते हैं (न) वैसे (क्षामन्) राज्यभूमि में (रुरुचे) शोभित होता वा (यः) जो (यामन्) मार्ग वा प्रहर में जैसे (एतशस्य) घोड़े के बलों को (नु) शीघ्र (तूर्वन्) मारता है (न) वैसे (घृणे) प्रदीप्त (रणे) युद्ध में (ततृषाणः) प्यासे के (न) समान (अजरः) अजर अजेय ज्वान निर्भय (आ) अच्छे प्रकार होता वह राज्य करने को योग्य होता है॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य और चन्द्रमा अपनी दीप्ति से शोभित होते हैं, वैसे ही सती स्त्री के साथ उत्तम पति और उत्तम सेना से सेनापति अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है॥१०॥

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    विषय

    प्रजा को ज्ञानवान् करना, तथा शत्रु विजय द्वारा राष्ट्र को वृद्धि ।

    भावार्थ

    ( भानुना उषसः न ) उषा के प्रकाश से जिस प्रकार सूर्य प्रकाशमान होता, वह सबको निद्रा से जगाता, पृथ्वी पर प्रकाश डालता और भूतल को पवित्र करता है उसी प्रकार ( यः ) जो राजा ( पावकया ) पवित्र करने वाली ( चितयन्त्या ) मजा को ज्ञानवान् करने वाली, चेतानेवाली या संगृहीत या सुव्यवस्थित करनेवाली ( कृपा ) राष्ट्र निर्माण शक्ति से युक्त होकर ( क्षामन् ) इस पृथ्वी पर ( रुरुचे ) शोभा देता है । और ( यः ) जो ( रणे ) रणे में ( एतशस्य ) अश्वमेध में छोड़े अश्व के ( यामन् ) मार्ग में आनेवाले विपक्षियों को ( तूर्वन् न ) मारता हुआ ( घृणे न ) प्रदीप्त, संग्राम में भी सूर्य के समान ( ततृषाणः ) राज्यलक्ष्मी का सदा पिपासित रहकर भी ( अजरः न ) अजर , जरारहित, अमर, वीर के समान राज्यवृद्धि में लगा रहता है वह तू हमें प्राप्त हो । शत० ९ । १ । २ । ३० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृदार्षी जगती । निषादः ॥

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    विषय

    भारद्वाज

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्रों की प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति अपने में शक्ति को भरनेवाला भारद्वाज' बनता है। प्रस्तुत मन्त्र में इस भारद्वाज का ही चित्रण करते हुए कहते हैं कि भारद्वाज वह है (यः) = जो (पावकया) = जीवन को पवित्र बनानेवाली (चितयन्त्या) = [चेतयन्त्या] संज्ञान से परिपूर्ण करनेवाली (कृपा) = [कृप् सामर्थ्ये] शक्ति से (क्षामन्) = इस पृथिवी में, अर्थात् इस शरीर में [पृथिवी शरीरम् ] (रुरुच) = इस प्रकार शोभायमान होता है (न) = जैसे (उषसः) = उष:काल (भानुना) = सूर्य की प्रारम्भिक किरणों से। यह उषःकाल का प्रकाश मनों में पवित्र भावनाओं का सञ्चार करने से 'पावक' है, अन्धकार को दूर करने से 'चेतयन्' है, यह सबको जागने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार भारद्वाज की शक्ति भी पवित्रता व चेतना से युक्त है। २. यह भारद्वाज वह है (यः) = जो (नू) = निश्चय से (एतशस्य रणे) = इन इन्द्रियाश्वों के संग्राम में (यामन्) = जीवनयात्रा के मार्ग में (तूर्वन् न) = हिंसा न करता हुआ चलता है। इन्द्रियाँ विषयों में जाने लगती हैं, यह भारद्वाज उन इन्द्रियों को विषयों में जाने नहीं देता। यही इसका इन्द्रियाश्वों का संग्राम है। इस संग्राम में यह इनको मार लेता है, जीत लेता है । इन्द्रियों को निर्बल नहीं होने देता, परन्तु उनको अपने पर प्रबल भी नहीं होने देता। ३. यह भारद्वाज वह है (यः) = जो आघृणेन समन्तान् ज्ञान की दीप्ति से (ततृषाण:) = अत्यन्त पिपासित होता है, अर्थात् जिसको प्रकृतिविद्या में व आत्मविद्या में सब ओर ही ज्ञान की प्यास है [ अपराविद्या व पराविद्या] दोनों में ही अपने ज्ञान को यह बढ़ाने का प्रयत्न करता है। वस्तुतः इन्द्रिय-संग्राम में विजय का रहस्य इस ज्ञान की पिपासा में ही है। ४. इस ज्ञान की प्यास से विषयों से बचकर यह (अजर:) = अजीर्णशक्ति बना रहता है और अपने 'भारद्वाज' नाम को सार्थक करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. भारद्वाज पवित्र व ज्ञान सम्पन्न शक्ति से चमकता है। २. यह इन्द्रिय-संग्राम में विजयी होता है । ३. इसकी ज्ञान की प्यास प्रबल होती है। ४. ज्ञान की प्यास इसे विषयों से बचाकर अजीर्णशक्ति बनाये रखती है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सूर्य व चंद्र आपल्या तेजाने शोभिवंत दिसतात, तसेच चांगली स्त्री उत्तम पतीबरोबर सुशोभित होते व सेनापती उत्तम सेनेसह सुशोभित होतो.

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    विषय

    सेनापती कसा असावा, याविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (य:) सेनापती (पाककया) पवित्र करणाऱ्या आणि (चितयन्त्या) चैतन्य व उत्साह देणाऱ्या (कृपा) शक्तीने संपन्न आहे (ते सैनिकामधे उत्साह व वीरत्व चेतवितो) जसे (भानुना) सूर्याच्या दीप्तीने (उषस:) प्रभातकाळ उजळून निघतो, (न) तसे हा सेनापती (क्षामन्‌) राज्यभूमीमध्ये (ररुचे) सुशोभित होत आहे. तसेच हा सेनापती (य:) जो (यामन्‌) मार्गामध्ये यावा योग्यवेळी (एतशस्य) घोडदळाचे (नु) अतिशीघ्र (तूर्वन्‌) संचालन करतो. या (न) सेनापतीप्रमाणे (घृणे) भीषण (रणे) युद्धात (तृतषाण:) (न) तहानलेल्या माणूस जसा पाण्याकडे तसा जो कोणी (अजर:) अजर, अजेय आणि निर्भय होऊन (ऊ) शत्रुसैन्यावर तूटून पडतो, तोच वीर माणूस राज्य करण्यात पात्र असतो ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. (सूर्य आणि घोडा हे दोन उपमा असून सेनापती हा उपयोग आहे) जसे सूर्य आणि घोडा हे दोन उपमान असून सेनापती हा उपमेय आहे) जसे सूर्य आणि चंद्र स्वदीप्तीने शोभित असतात, तद्वत सदाचारी सती स्त्री आपल्या श्रेष्ठ पतीमुळे आणि उत्तम सैन्यामुळे सेनापती सुशोभित होतो. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The Commander of the army, who with purifying conscious force shines upon the earth like dawns with suns light, who kills speedily like strong horses, the foes that come in the way ; who in the heat of battle tolerates thirst, whom old age does not touch, is fit for rule.

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    Meaning

    Agni, lord of light and power, commander of the army, with his cleansing, enlightening and splendid force, shines on the earth like the dawn blazing with the light of the sun. And young, unaging, unexhausted, hastening apace on the course of his chariot, thirsting for victory in the heat of the battle, blazes with his own glory.

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    Translation

    We adore the adorable Lord, who shines on earth with His brilliance just like dawns, illuminated by the sun; and who is like a war-horse destroying enemy-forces in the battle; who is thirsty for bright glow, and who is never enfeebled by age. (1)

    Notes

    Kṣāman, क्षाम्णि, पृथिव्यां, on the earth. Ruruce, रुरुचे रोचते शोभते, shines. Usaso na bhānunā, उषसः भानुना इव, like the glow of dawn. Also, भानुना उषस: इव, like dawns illuminated by the sun. . Krpā, सामर्थ्येन, with the power; or कल्पनया, with the form; or , with the radiance. Tūrvan, हिंसन्, destroying; killing. Etaśasya na, like a war-horse. Ghrnena, घृणिना, दीप्त्या, with bright glow. Also, the heat, as if. Tatrṣaṇaḥ, from ञितृषा पिपासायाम्, to be thirsty; thirst ing for.

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    बंगाली (1)

    विषय

    সেনাপতিনা কথম্ভবিতব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
    সেনাপতি কেমন হওয়া উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ঃ) যে (পাবকয়া) পবিত্রকারী এবং (চিতয়ন্ত্যা) চেতনতা প্রদানকারিণী (কৃপা) শক্তি সহ বর্ত্তমান সেনাপতি যেমন (ভানুনা) দীপ্তি দ্বারা (উষসঃ) প্রভাত সময় শোভিত হয় (ন) সেইরূপ (ক্ষামন্) রাজ্যভূমিতে (ররুচে) শোভিত হয় অথবা (য়ঃ) যে (য়ামন্) মার্গ বা প্রহরে যেমন (এতশস্য) অশ্ব সম্বন্ধীয় বলকে (নু) শীঘ্র (তূর্বন্) মারে (ন) সেইরূপ (ঘৃণে) উদ্দীপ্ত (রণে) যুদ্ধে (ততৃষাণঃ) তৃষ্ণার্ত্তের (ন) সমান (অজরঃ) অজর অজেয় নির্ভয় (আ) উত্তম প্রকার হইয়া থাকে সেই রাজ্য করিবার অধিকারী হইয়া থাকে ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন সূর্য্য ও চন্দ্র স্বীয় দীপ্তি দ্বারা শোভিত হয় সেইরূপ সতী স্ত্রী সহ উত্তম পতি এবং উত্তম সেনা দ্বারা সেনাপতি উত্তম প্রকারে প্রকাশিত হইয়া থাকে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পা॒ব॒কয়া॒ য়শ্চি॒তয়॑ন্ত্যা কৃ॒পা ক্ষাম॑ন্ রুরু॒চऽউ॒ষসো॒ ন ভা॒নুনা॑ ।
    তূর্ব॒ন্ ন য়াম॒ন্নেত॑শস্য॒ নূ রণ॒ऽআ য়ো ঘৃ॒ণে ন ত॑তৃষা॒ণোऽঅ॒জরঃ॑ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পাবকয়েত্যস্য ভারদ্বাজঃ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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