यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 44
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
255
अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि। अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम्॥४४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मीषा॑म्। चि॒त्तम्। प्र॒ति॒लो॒भय॒न्तीति॑ प्रतिऽलो॒भय॑न्ती। गृ॒हा॒ण। अङ्गा॑नि। अ॒प्वे॒। परा॑। इ॒हि॒। अ॒भि। प्र। इ॒हि॒। निः। द॒ह॒। हृ॒त्स्विति॑ हृ॒त्ऽसु। शोकैः॑। अ॒न्धेन॑। अ॒मित्राः॑। तम॑सा। स॒च॒न्ता॒म् ॥४४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमीषाञ्चित्तम्प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि । अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अमीषाम्। चित्तम्। प्रतिलोभयन्तीति प्रतिऽलोभयन्ती। गृहाण। अङ्गानि। अप्वे। परा। इहि। अभि। प्र। इहि। निः। दह। हृत्स्विति हृत्ऽसु। शोकैः। अन्धेन। अमित्राः। तमसा। सचन्ताम्॥४४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे अप्वे शूरवीरे राजस्त्रि क्षत्रिये! अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती या स्वसेनास्ति तस्या अङ्गानि त्वं गृहाण। अधर्मात् परेहि स्वसेनामभिप्रेहि शत्रून् निर्दह, यत इमेऽमित्रा हृत्सु शौकेरन्धेन तमसा सह सचन्तां संयुक्तास्तिष्ठन्तु॥४४॥
पदार्थः
(अमीषाम्) परोक्षाणाम् (चित्तम्) स्वान्तम् (प्रतिलोभयन्ती) प्रत्यक्षे मोहयन्ती (गृहाण) (अङ्गानि) सेनावयवान् (अप्वे) यापवाति शत्रुप्राणान् हिनस्ति तत्सम्बुद्धौ। अपपूर्वाद्वातेः अन्येभ्योऽपि दृश्यते [अष्टा॰३.२.१७८] इति क्विप् अकारलोपश्छान्दसः (परा) (इहि) दूरं गच्छ (अभि) (प्र) (इहि) अभिप्रायं दर्शय (निर्दह) नितरां भस्मीकुरु (हृत्सु) हृदयेषु (शोकैः) (अन्धेन) आवरकेण (अमित्राः) शत्रवः (तमसा) रात्र्यन्धकारेण (सचन्ताम्) संयुञ्जन्तु॥४४॥
भावार्थः
सभापत्यादिभिर्यथाऽतिप्रशंसिता हृष्टपुष्टा साङ्गोपाङ्गा पुरुषसेना स्वीकार्या तथा स्त्रीसेना च। यत्राव्यभिचारिण्यः स्त्रियस्तिष्ठेयुस्तया सेनया शत्रवो वशे स्थापनीयाः॥४४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अप्वे) शत्रुओं के प्राणों को दूर करनेहारी राणी क्षत्रिया वीर स्त्री! (अमीषाम्) उन सेनाओं के (चित्तम्) चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) प्रत्यक्ष में लुभाने वाली जो अपनी सेना है, उसके (अङ्गानि) अङ्गों को तू (गृहाण) ग्रहण कर अधर्म्म से (परेहि) दूर हो, अपनी सेना को (अभि, प्रेहि) अपना अभिप्राय दिखा और शत्रुओं को (निर्दह) निरन्तर जला, जिससे ये (अमित्राः) शत्रुजन (हृत्सु) अपने हृदयों में (शोकैः) शोकों से (अन्धेन) आच्छादित हुए (तमसा) रात्रि के अन्धकार के साथ (सचन्ताम्) संयुक्त रहें॥४४॥
भावार्थ
सभापति आदि को योग्य है कि जैसे अतिप्रशंसित हृष्ट-पुष्ट अङ्ग उपाङ्गादियुक्त शूरवीर पुरुषों की सेना को स्वीकार करें, वैसे शूरवीर स्त्रियों की भी सेना स्वीकार करें और जिस स्त्रीसेना में अव्यभिचारिणी स्त्री रहें, उस सेना से शत्रुओं को वश में स्थापन करें॥४४॥
विषय
भयंकर सेना का शत्रु पीड़न का कार्य ।
भावार्थ
हे ( अप्वे ) शत्रुओं को दूर भगा लेजाने वाली भय की प्रवृत्ति अथवा शरीर की उत्पन्न पीड़े ! अथवा भयंकर सेने ! तू ( अमीषां ) उन शत्रुओं के ( चित्त ) चित्त को ( प्रतिलोभयन्ती ) साक्षात् मोहित करती हुई ( अङ्गानि गृहाण ) शत्रुओं के अंगों को जकड़ ले। और ( परा इहि ) स्वयं दूर भाग जा । ( अभि प्र इहि ) आगे २ बढ़ी चली जा । ( शोकैः ) ज्वाला की लपटों से शत्रुओं के ( हृत्सु ) हृदयों में ( निर्दह ) जलन पैदा कर । और ( अमित्राः ) शत्रु गण ( अन्धेन तमसा ) गहरे अन्धकार, या अन्धकार देने वाले तम, शोक और पीड़ा दुःख से ( सचन्ताम् ) युक्त हो जायं । अप्वा- 'शूरवीरे राजस्त्रि' इति दया० । यदेनया विद्धो अपवीयते । व्याधिर्वा भयं वा इति यास्क: । नि० ६ । ३ । ३ ॥
विषय
लोभ का परिणाम
पदार्थ
१. लोभ की प्रवृत्ति बड़ी विचित्र है [क] यह कम-से-कम प्रयत्न से अधिक-सेअधिक लेना चाहती है। [ख] यह प्रवृत्ति आवश्यकता को नहीं देखती। इससे धन के प्रति एक प्रेम-सा होता है जिसके कारण लोभी किसी अन्य बन्धु बान्धव या प्राणी से प्रेम नहीं कर पाता। २. इतना ही नहीं यह किसी अन्य की सम्पत्ति को देखकर जलता है । एवं, लोभ ईर्ष्या का जनक होता है। मन्त्र में कहते हैं कि (अप्वे) = हे [आप्= प्राप्त करना] अधिक-औरअधिक प्राप्त करने की इच्छा ! तू (अमीषाम्) = इन तेरे शिकार बने हुए लोगों के (चित्तम्) = चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) = प्रत्येक ऐश्वर्य के प्रति लुब्ध करती हुई (अङ्गानि गृहाण) = इनके अङ्गों को जकड़ ले, इनको अपने वश में कर ले। लोभाविष्ट हुआ मनुष्य इस प्रकार धन का दास बन जाता है कि उसे धन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता । यह धन के लिए अपने आराम को समाप्त कर देता है। यह धन के लिए अपने बन्धुत्व की बलि दे देता है, आत्मा-परमात्मा के स्मरण का तो प्रश्न ही नहीं रहता। एक ही इच्छा उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों को जकड़े रखती है और वह है 'धन की इच्छा।' २. यह धन की इच्छा हमारा तो पीछा छोड़ दे। हे अप्वे ! (परा इहि) = तू हमसे परे जा। ३. जो (अमित्रा:) = किसी से स्नेह न करनेवाले लोग हैं उनको अभि प्र इहि लक्ष्य करके तू ख़ूब गतिशील हो, अर्थात् उनको तू प्राप्त कर। ४. उनको ही तू (हृत्सु) = हृदयों में (शोकैः) = शोकाग्नियों से (निर्दह) = नितरां जलानेवाली बन। लोभी, ईर्ष्यालु पुरुषों के ही मन जलते रहें। हे अप्वे ! हमपर तो तू कृपा कर और हमें जलानेवाली न हो। ५. (अमित्रः) = प्राणियों के प्रति स्नेहशून्य हृदयवाले लोग ही (अन्धेन तमसा) = इस अन्धी इच्छा से (सचन्ताम्) = संयुक्त हों। लोभ के कारण आवश्यकता से अधिक धन की इच्छा अन्धी तो है ही। यह साध्य व साधन का विचार न करती हुई साधन को ही साध्य समझ लेती है और परिणामतः धन की ही उपासना करने लगती है। अर्थसक्त को मनु के शब्दों मे 'धर्मज्ञान' नहीं हो पाता, अतः हे अप्वे ! धनाहरणाभिलाष ! तू कृपा करके हमसे दूर रह ।
भावार्थ
भावार्थ- हम लोभ की भावना से ऊपर उठें, जिससे हृदयों में शोकाग्नि से सन्तप्त न होते रहें।
मराठी (2)
भावार्थ
राजा इत्यादी लोकांनी अत्यंत प्रशंसनीय व सुदृढ शरीर असलेल्या शूर वीर पुरुषांची सेना तयार करावी, तसेच शूर वीर स्त्रियांची सेना ही स्थापन करावी. ज्या सेनेत चारित्र्यवान स्त्रिया असतात त्या सेनेने शत्रूला ताब्यात ठेवावे.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजन सैन्यातील स्त्री-अधिकाऱ्याला उद्देशून म्हणत आहेत) हे (अप्वे) शत्रूंचे प्राण हरण करणाऱ्या क्षत्रिया वीर स्त्री, तू (अमीषाम्) या आपल्या (चित्तम्) हृदयाला (प्रतिलोभयन्ती) (आपल्या थोर नेतृत्वगुणांनी) मोहित करीत त्या सेनेच्या (अड्गनि) विविध अंगांना (गृहाण) आपल्या नियंत्रणाखाली घे. तसेच तू अधर्मापासून सदा (परेहि) दूर रहा. आपल्या सेनेला (अभिप्रेहि) अपले मनोबल (आदेश वा गुप्त संदेश) योग्य रीतीने कळवील जा. आणि शत्रूंना (निर्दह) निरंतर जाळीत रहा. (तुझ्या भीतीमुळे) (अमित्रा:) शत्रुजन (हृत्सु) त्याच्या हृदयातील (शोकै:) शोकरूप (तमसा) अंधकाराने (अन्धेम) (सचन्ताम्) भरून वा आच्छादित राहतील (तुझ्या दराऱ्यामुळे शत्रू रात्रीच्या अंधारात व गुप्त ठिकाणी लपून राहतील ॥44॥
भावार्थ
भावार्थ - सभापतीला हवे की त्याने आपल्या सेनेच्या प्रशंसित व बलशाली विविध अंगांना (बंदूक, तोफ, रणगाडे आदी अंग) अधिकाधिक सशक्त करावे आणि त्यासाठी शूरवीर पुरुषांची नेमणूक करावी. पुरुषसेनेप्रमाणे वीर स्त्रियांची सेनादेखील असावी. त्या स्त्रीसेनेतील स्त्रिया अन्यमिचारिणी असाव्यात. त्यांनी पुसेनेवर वर्चस्व ठेवावे. (आपल्या भयदायक प्रभाव कायम ठेवावा.) ॥44॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O queen the slayer of foes, organise the bands of thy army, that bewilders the hearts of the forces of the enemy, remain aloof from sin, convey thy aim to thy soldiers, burn down the foes, whereby they may abide in utter darkness with hearts full of grieves.
Meaning
Valiant women’s corps, dazzling and bewildering the mind of those enemies, engage their troops in action and overthrow them far. Advancing deep into their ranks, bum them at heart and afflict them so that they may regret and lie low covered with darkness and sorrow.
Translation
O epidemic (or fear), confounding the minds of our enemies, seize their bodies and go away. Go again towards them. Burn their hearts with sorrows. May our foes be shrouded in blinding darkness. (1)
Notes
Apvā,अपचीयते अनया भक्ष्यमाण:, a person being de voured by it gets emaciated, व्याधिः भयं वा, either some disease or fear. अपवति अपगमयति सुखं प्राणान् च इति अप्वा, that which takes away happiness and the life itself. According to Sāyaṇa, a female deity who presides over sin. Pratilobhayanti, मोहयंती, confounding; bewildering. Andhena tamasā, with blinding darkness.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (অপ্বে) শত্রুদিগের প্রাণগুলিকে নাশকারিণী রাণী ক্ষত্রিয়া বীর স্ত্রী! (অমীষাম্) সেই সব সেনাদিগের (চিত্তম্) চিত্তকে (প্রতিলোভয়ন্তী) প্রত্যক্ষতঃ লোভ প্রদানকারিণী যে নিজস্ব সেনা তাহার (অঙ্গানি) অঙ্গসকলকে তুমি (গৃহাণ) গ্রহণ করিয়া অধর্ম্ম হইতে (পরেহি) দূরে থাক, নিজের সেনাকে (অভি, প্রেহি) নিজ অভিপ্রায় দর্শন করাও এবং শত্রুদিগকে (নির্দহ) নিরন্তর জ্বালাও যাহাতে এই সব (অমিত্রাঃ) শত্রুগণ (হৃৎসু) নিজ নিজ হৃদয়ে (শোকৈঃ) শোক দ্বারা (অন্ধেন) আচ্ছাদিত (তমসা) রাত্রির অন্ধকার সহ (সচন্তাম্) সংযুক্ত থাকে ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–সভাপতি আদির কর্ত্তব্য যে, যেমন অতি প্রশংসিত হৃষ্ট-পুষ্ট অঙ্গ-উপাঙ্গাদিযুক্ত শূরবীর পুরুষদিগের সেনাকে স্বীকার করিবে সেইরূপ শূরবীর স্ত্রীদিগের সেনাও স্বীকার করিবে এবং যে স্ত্রী সেনা মধ্যে অব্যভিচারিণী স্ত্রী থাকিবে সেই সেনা দ্বারা শত্রুদিগকে বশে স্থাপন করিবে ॥ ৪৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒মীষাং॑ চি॒ত্তং প্র॑তিলো॒ভয়॑ন্তী গৃহা॒ণাঙ্গা॑ন্যপ্বে॒ পরে॑হি ।
অ॒ভি প্রেহি॒ নির্দ॑হ হৃ॒ৎসু শোকৈ॑র॒ন্ধেনা॒মিত্রা॒স্তম॑সা সচন্তাম্ ॥ ৪৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অমীষামিত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal