यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 70
ऋषिः - कुत्स ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
100
नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेक॑ꣳ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं॑ धा॑रयन् द्रविणो॒दाः॥७०॥
स्वर सहित पद पाठनक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। सम॑न॒सेति॒ सऽम॑नसा। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। धा॒पये॑ते॒ इति॑ धा॒पये॑ते। शिशु॑म्। एक॑म्। स॒मी॒ची इति॑ सम्ऽई॒ची। द्यावा॒क्षामा॑। रु॒क्मः। अ॒न्तः। वि। भा॒ति॒। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः ॥७० ॥
स्वर रहित मन्त्र
नक्तोषासा समनसा विरूपे धापयेते शिशुमेकँ समीची । द्यावाक्षामा रुक्मोऽअन्तर्विभाति देवाऽअग्निं धारयन्द्रविणोदाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नक्तोषासा। नक्तोषसेति नक्तोषसा। समनसेति सऽमनसा। विरूपे इति विऽरूपे। धापयेते इति धापयेते। शिशुम्। एकम्। समीची इति सम्ऽईची। द्यावाक्षामा। रुक्मः। अन्तः। वि। भाति। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणोदा इति द्रविणःऽदाः॥७०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं यथा समनसा समीची विरूपे मातृधात्र्यौ वैकं शिशुमिव नक्तोषासा जगद्धापयेते, यथा वा द्यावाक्षामान्तो रुक्मो विभाति, द्रविणोदा देवा तमग्निं धारयँस्तथा वर्त्तध्वम्॥७०॥
पदार्थः
(नक्तोषासा) रात्र्युषसाविव (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्ते (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (धापयेते) पाययतः (शिशुम्) बालकमिव वर्त्तमानं जगत् (एकम्) असहायम् (समीची) ये एकीभावमिच्छन्तस्ते (द्यावाक्षामा) (रुक्मः) देदीप्यमानोऽग्निः (अन्तः) मध्ये (वि, भाति) विशेषेण प्रकाशते (देवाः) विद्वांसः (अग्निम्) (धारयन्) अधारयन्। अत्राडभावः (द्रविणोदाः) द्रव्यप्रदातारः॥७०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्जगति यथा रात्र्युषसौ विरुद्धै रूपैर्वर्त्तेते, यथा च विद्युत् सर्वपदार्थेषु व्याप्ता, यथा वा द्यावाभूमी अतिसहनशीले वर्त्तेते, तद्वत् विवेचकैः शुभगुणेषु व्यापकैर्भूत्वा पुत्रवज्जगत्पालनीयम्॥७०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम जैसे (समनसा) एक से विज्ञान युक्त (समीची) एकता चाहती हुई (विरूपे) अलग-अलग रूप वाली धाय और माता दोनों (एकम्) एक (शिशुम्) बालक को दुग्ध पिलाती हैं, वैसे (नक्तोषासा) रात्रि और प्रातःकाल की वेला जगत् को (धापयेते) दुग्ध सा पिलाती हैं अर्थात् अति आनन्द देती हैं वा जैसे (रुक्मः) प्रकाशमान अग्नि (द्यावाक्षामा, अन्तः) ब्रह्माण्ड के बीच में (वि, भाति) विशेष करके प्रकाश करता है, उस (अग्निम्) अग्नि को (द्रविणोदाः) द्रव्य के देने वाले (देवाः) शास्त्र पढ़े हुए जन (धारयन्) धारण करते हैं, वैसे वर्त्ताव वर्त्तो॥७०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे संसार में रात्रि और प्रातःसमय की वेला अलग रूपों से वर्त्तमान और जैसे बिजुली अग्नि सर्व पदार्थों में व्याप्त वा जैसे प्रकाश और भूमि अतिसहनशील हैं, वैसे अत्यन्त विवेचना करने और शुभगुणों में व्यापक होने वाले होकर पुत्र के तुल्य संसार को पालें॥७०॥
विषय
राजा और पक्षान्तर में उत्तम अध्यात्म ज्ञानी का कर्तव्य ।
भावार्थ
व्याख्या देखो ( अ० १२ । २ ) ऋ० १ । ९६ । ५ ॥
विषय
आदर्श पति-पत्नी
पदार्थ
१. गत मन्त्रों का ऋषि 'विधृति' = विशिष्ट धैर्य के साथ आगे बढ़ता हुआ सब बुराइयों को समाप्त करनेवाला बनता है और 'कुत्स' [कुथ हिंसायाम्] कहलाता है। जो पति-पत्नी परस्पर सहायता करते हुए 'कुत्स' बनते हैं, उनका चित्रण करते हुए कहते हैं कि २. (नक्तोषासा) = [ओलस्जी व्रीडे, उष दाहे] पत्नी 'नक्त' है 'व्रीडा' उसका मुख्य गुण है, वह उचित लज्जा को कभी नहीं त्यागती। पति 'उषस्' है, यह सब बुराइयों को जलाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार ये उचित लज्जाशील व दोष दहनवाले पति-पत्नी ३. (समनसा) = समान मनवाले होते हैं। इनके मनों में कभी विरोधी भावनाएँ उत्पन्न नहीं होतीं। ४. (विरूपे) = ये दोनों विशिष्ट रूपवाले होते हैं, अत्यन्त तेजस्वी होते हैं । ५. (समीची) = [सम्यक् अञ्चतः] ये मिलकर उत्तम गतिवाले होते हैं। इनकी क्रियाओं में विरोध न होकर सामञ्जस्य होता है। ६. ये दोनों (एकं शिशुं धापयेते) = अद्वितीय सन्तान का पालन करते हैं। [यहाँ एक सन्तान का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। महाभारत में कृष्ण और रुक्मिणी की भी एक सन्तान है, 'प्रद्युम्न'। रामायण में कौसल्या की भी एक ही सन्तान है, 'राम' महाभारत में युधिष्ठिर की भी एक ही सन्तान है, 'श्रुतकीर्ति'।] ७. (द्यावाक्षामा) = पति द्युलोक के समान ज्ञानदीप्त बनता है तो पत्नी पृथिवीलोक के समान सहनशील [क्षम् ] । इन दोनों के (अन्तः) = मध्य में (रुक्मः) = चमकता हुआ वह सन्तान विभाति शोभता है। ८. उत्तम गुणों को धारण करनेवाले (देवाः) = इस घर के सब व्यक्ति (अग्निं धारयन्) = उस अग्रेणी प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं और ९. (द्रविणोदा:) = [द्रव्यप्रदातारा : - द०] धनों का दान देनेवाले होते हैं। प्रभु को अपनानेवाला त्यागवृत्तिवाला होता है। धन व प्रभु दोनों की उपासना सम्भव नहीं । प्रभु की उपासना की पहचान ही यह है कि धनासक्ति कम हुई या नहीं। प्रभुसक्त धनासक्त नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ - १. पति-पत्नी ने उचित व्रीडाशील व दोष-दहनवाला होना है। २. समान मनवाला ३. विशिष्ट रूपवाला। ४. ये दोनों [समीची] सङ्गतिवाले होकर एक सन्तान का सुन्दर पालन करते हैं। ५. इनके दीप्त मस्तिष्क व दृढ़ शरीर के मध्य में निर्मल मन चमकता है। ६. ये देव बनकर प्रभु को अपने निर्मल मन में धारण करते हैं और ७. धनों का दान देनेवाले होते हैं। ये प्रभु की निम्न शब्दों से उपासना करते हैं-
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या सृष्टीत रात्र व दिवस वेगवेगळ्या रूपांत विद्यमान आहेत व जसे विद्युत सर्व पदार्थांत व्याप्त असते किंवा जशी भूमी व प्रकाश अति सहनशील असतात तसे माणसांनी विचारपूर्वक अत्यंत शुभगुणयुक्त बनून पुत्राप्रमाणे जगाचे पालन करावे.
विषय
मनुष्यांनी कसे वर्तावे, याविषयी –
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे (समनसा) एकसमान ज्ञानी (अनुभवी) (समीची) एकच उद्देश्य असणाऱ्या (विरूपे) भिन्न रूप असलेल्या दाई आणि जन्मदायी माता (एकम्) एकच (शिशुम्) शिशुला दूध पाजवितात, त्याप्रमाणे (नक्तोषसा) रात्रि आणि उष:काल या जगाला दूध पाजवितात. म्हणजे अत्यंत आनंदित करतात. तसेच (रुक्म:) प्रकाशमान अग्नी (द्यावक्षामा अन्त:) या ब्रह्मांडाला (वि भाति) विशेषत्वाने प्रकाशित करतो, त्याच (अग्निम्) अग्नीला (द्रविणोदा:) द्रव्य देणारे (दानशील) (देवा:) शास्त्रव्रेत्ताजन (धारयन्) धारण करतात. (हे मनुष्यानो) तुम्ही देखील त्याच्याप्रमाणे करीत जा ॥70॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे या संसारात रात्र आणि प्रात: काळ या दोन वेळा वेगळ्या रुपाने विद्यमान असून लोकोपकारक आहेत, तसेच ज्याप्रमाणे विद्युत आणि अग्नी सर्व पदार्थात व्याप्त असूनही (त्या दोन्ही शक्ती एकाच पदार्थात एकत्र असूनही) सहनशील असतात अथवा प्रकाश व भूमी ज्याप्रमाणे एकमेकास पूरक व सहनशील आहेत, मनुष्यांनी देखील (त्याप्रमाणे एकत्वभावनेने) वागले पाहिजे. सर्वांनी अत्यंत विवेकाने आणि शुभगुणयुक्त आचरण ठेवावे आणि पिता जसा पुत्राचे पालन करतो, तेवढ्या प्रेमाने जगाचे पालन करावे (सर्वांशी प्रेमाने वागावे) ॥70॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the nurse and mother with different characteristics, but with one mind, working in harmony suckle the same child, so do the night and dawn, with different hues nourish the world. Just as the brilliant sun shines between the Heaven and Earth, so do the imparters of knowledge imbibe the glow of knowledge.
Meaning
Just as the mother and the nurse, different of character and status but of equal mind and common purpose, nurse one baby, so do the night and dawn, different in form as darkness and light but harmonious and equal of purpose, nurse one new born, the sun, Agni. The brilliant sun blazes between the earth and heaven as the source of light and symbol of cosmic yajna. Dedicated people who offer libations of holy materials sustain the yajna fire in honour of cosmic Agni for light and nourishment.
Translation
Night and dawn, different in form and of one mind, suckle one child together. He shines beautiful between the heaven and the earth. Wealth-bestowing bounties of Nature support him, the fire divine. (1)
Notes
Repeated from XII. 2.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কথং বর্ত্তিতব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কেমন আচরণ করা দরকার, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যেমন (সমনসা) একই বিজ্ঞানযুক্ত (সমীচী) একতা কামনা করিয়া (বিরূপে) ভিন্ন-ভিন্ন রূপ বিশিষ্টা ধাত্রী ও মাতা উভয়ে (একম্) এক (শিশুম্) বালককে দুগ্ধ পান করায়, তদ্রূপ (নক্তোষাসা) রাত্রি ও প্রাতঃকালের বেলা জগৎকে (ধাপয়েতে) দুগ্ধ সদৃশ পান করায় অর্থাৎ অত্যন্ত আনন্দ প্রদান করে অথবা যেমন (রুক্মঃ) প্রকাশমান অগ্নি (দ্যাবাক্ষামা, অন্তঃ) ব্রহ্মান্ডের মধ্যে (বি, ভাতি) বিশেষ করিয়া প্রকাশ করায় । সেই (অগ্নিম্) অগ্নিকে (দ্রবিণোদাঃ) দ্রব্য দাতা (দেবাঃ) শাস্ত্র পঠিত ব্যক্তিগণ (ধারয়ন্) ধারণ করেন–সেইরূপ আচরণ কর ॥ ৭০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন সংসারে রাত্রি ও প্রাতঃ সময়ের বেলা পৃথক রূপে বর্ত্তমান এবং যেমন বিদ্যুৎ অগ্নি সর্ব পদার্থে ব্যাপ্ত বা যেমন প্রকাশ ও ভূমি অত্যন্ত সহনশীল, সেইরূপ অত্যন্ত বিবেচনাকারী এবং শুভ গুণগুলিতে ব্যাপক থাকিয়া পুত্র তুল্য সংসারের পালন করিবে ॥ ৭০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
নক্তো॒ষাসা॒ সম॑নসা॒ বিরূ॑পে ধা॒পয়ে॑তে॒ শিশু॒মেক॑ꣳ সমী॒চী ।
দ্যাবা॒ক্ষামা॑ রু॒ক্মোऽঅ॒ন্তর্বি ভা॑তি দে॒বাऽঅ॒গ্নিং ধা॑রয়ন্ দ্রবিণো॒দাঃ ॥ ৭০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নক্তোষাসেত্যস্য কুৎস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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