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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 67
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्नि देवता छन्दः - पिपीलिकामध्या बृहती स्वरः - मध्यमः
    194

    पृ॒थि॒व्याऽअ॒हमुद॒न्तरि॑क्ष॒मारु॑हम॒न्तरि॑क्षा॒द् दिव॒मारु॑हम्। दि॒वो नाक॑स्य पृ॒ष्ठात् स्वर्ज्योति॑रगाम॒हम्॥६७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒व्याः। अ॒हम्। उत्। अ॒न्तरि॑क्षम्। आ। अ॒रु॒ह॒म्। अ॒न्तरि॑क्षात्। दिव॑म्। आ। अ॒रु॒ह॒म्। दि॒वः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठात्। स्वः॑। ज्योतिः॑। अ॒गा॒म्। अ॒हम् ॥६७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् । दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्ज्यातिरगामहम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिव्याः। अहम्। उत्। अन्तरिक्षम्। आ। अरुहम्। अन्तरिक्षात्। दिवम्। आ। अरुहम्। दिवः। नाकस्य। पृष्ठात्। स्वः। ज्योतिः। अगाम्। अहम्॥६७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 67
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्योगिगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा कृतयोगाङ्गानुष्ठानसंयमसिद्धोऽहं पृथिव्या अन्तरिक्षमुदारुहम्, अन्तरिक्षाद् दिवमारुहम्, नाकस्य दिवः पृष्ठात् स्वर्ज्योतिश्चाहमगाम्, तथा यूयमप्याचरत॥६७॥

    पदार्थः

    (पृथिव्याः) भूमेर्मध्ये (अहम्) (उत्) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (आ) (अरुहम्) रोहेयम् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (दिवम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (आ) (अरुहम्) समन्ताद् रोहेयम् (दिवः) द्योतमानस्य (नाकस्य) सुखनिमित्तस्य (पृष्ठात्) समीपात् (स्वः) सुखम् (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशम् (अगाम्) प्राप्नुयाम् (अहम्)॥६७॥

    भावार्थः

    यदा मनुष्यः स्वात्मना सह परमात्मानं युङ्क्ते तदाऽणिमादयः सिद्धयः प्रादुर्भवन्ति, ततोऽव्याहतगत्याभीष्टानि स्थानानि गन्तुं शक्नोति नान्यथा॥६७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर योगियों के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे किये हुए योग के अङ्गों के अनुष्ठान संयमसिद्ध अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि में परिपूर्ण (अहम्) मैं (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उद्, आ, अरुहम्) उठ जाऊं वा (अन्तरिक्षात्) आकाश से (दिवम्) प्रकाशमान सूर्य्यलोक को (आ, अरुहम्) चढ़ जाऊं वा (नाकस्य) सुख करानेहारे (दिवः) प्रकाशमान उस सूर्य्यलोक के (पृष्ठात्) समीप से (स्वः) अत्यन्त सुख और (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश को (अहम्) मैं (अगाम्) प्राप्त होऊं, वैसा तुम भी आचरण करो॥६७॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य अपने आत्मा के साथ परमात्मा के योग को प्राप्त होता है, तब अणिमादि सिद्धि उत्पन्न होती हैं, उसके पीछे कहीं से न रुकने वाली गति से अभीष्ट स्थानों को जा सकता है, अन्यथा नहीं॥६७॥

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    विषय

    'स्वज्योति' मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य ।

    भावार्थ

    मैं अधिकार प्राप्त राजा ( पृथिव्याः ) पृथिवी से अर्थात् पृथिवी निवासी प्रजागण से ऊपर ( अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष के समान सर्वाच्छादक, सब सुखों के वर्षक पद को वायु के समान ( आरुहम् ) प्राप्त होऊं और मैं (अन्तरिक्षात् ) अन्तरिक्ष पद से ( दिवम् )सूर्य के समान तेजस्वी सर्व प्रकाशक सर्वद्रष्टा, तेजस्वी विराट् पद पर ( आरुहम् ) चढूं । ( नाकस्य ) सर्व सुखमय ( दिवः ) उस तेजोमय ( पृष्ठात् ) सर्वपालक, सर्वोपरि पद से भी ऊपर ( स्वः ) सुखमय ( ज्योतिः ) परम प्रकाश ज्ञानमय ब्रह्मपद को भी ( अहम् ) मैं ( अगाम् ) प्राप्त करूं । शत० ९।२।३।२६॥ अध्यात्म में - योगी स्वयं मूलाधार से अन्तरिक्ष = नाभि देश को और फिर शिरोदेश को जागृत कर वहां से सुखमय परमब्रह्म ज्योति को प्राप्त करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । पिपीलिकामध्या बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    ऊपर और ऊपर

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में 'पूर्व दिशा का लक्ष्य करके आगे बढ़ने' का उल्लेख था। उसी आगे बढ़ने को स्पष्ट करके कहते हैं कि (अहम्) = मैं (पृथिव्याः) = इस पृथिवी से (उत्) = ऊपर उठकर (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्षलोक में (आरुहम्) = आरोहण करूँ। २. इसी प्रकार (अन्तरिक्षात्) = अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर (दिवम् आरुह)म् = द्युलोक में आरोहण करूँ। ३. (दिवः) = द्युलोक का (नाकस्य) = जो सुखमय प्रदेश है, जिसमें दुःख नहीं है उस स्वर्गप्रदेश के (पृष्ठात्) = पृष्ठ से (स्वर्ज्योतिः) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को (अहम्) = मैं (अगाम्) = प्राप्त होऊँ। ४. इस जीवन-यात्रा में हमें आगे और आगे बढ़ना है। 'आरोहणमाक्रमण'-' चढ़ना और आगे कदम रखना' यही तो जीवित पुरुष का मार्ग है। जितने जितने हमारे कर्म उत्तम होते हैं उतना उतना हमारा जन्म उत्कृष्ट लोकों में होता है - [क] सामान्यतः ५० पुण्य व ५० पाप होने पर हम इस पृथिवीलोक पर जन्म लेते हैं। [ख] पुण्य ८० व पाप २० रह जाने पर हमारा जन्म चन्द्रलोक में होता है, वहाँ सुख अधिक और दुःख बहुत कम हो जाता हैं। [ग] अब पुण्य ९९ तथा पाप एक-आध रह जाने पर हमारा जन्म द्युलोक में होता है जहाँ सुख ही सुख है। [घ] इस जीवन यात्रा की पूर्ति उस दिन होती है जब हम १०० के १०० पुण्यकर्म करते हुए उनके अभिमान से ऊपर उठे हुए द्युलोक से भी ऊपर उठकर उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। ब्रह्म को प्राप्त करने पर यह आने-जाने का चक्र समाप्त होता है । ५. पृथिवी आदि से ऊपर उठने का भाव इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है [क] 'हम पृथिवी पृष्ठ से उठकर अन्तरिक्ष में पहुँचें' अर्थात् 'पृथिवी शरीरम्' शरीर की शक्तियों का विस्तार करें, परन्तु शरीर में ही न उलझे रह जाएँ। केवल शारीरिक उन्नति सम्भवतः हमें 'हाथी' की योनि में भेज देगी। [ख] अतः हम शरीर के साथ हृदयान्तरिक्ष का भी ध्यान करें। हम अपने हृदय को बड़ा निर्मल बनाने का यत्न करें, परन्तु हृदय की निर्दोषता पर ही रुक गये तो भी गौ का जीवन मिल जाएगा। [ग] हृदय से ऊपर उठकर हम द्युलोक का आरोहण करनेवाले बनें। यह द्युलोक 'मूर्धा' है। हम मस्तिष्क की उन्नति करनेवाले बनें। [घ] और अब मस्तिष्क को खूब विकसित करके हम अपनी इस अग्या बुद्धि से, तीक्ष्ण व सूक्ष्म बुद्धि से उस प्रभु का दर्शन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम पृथिवी से अन्तरिक्ष को अन्तरिक्ष से द्युलोक को, तथा द्युलोक से स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा मनुष्य आपल्या आत्म्याचा परमेश्वराशी योग करतो तेव्हा त्याला अणिमा इत्यादी सिद्धी प्राप्त होतात. त्यायोगे त्याला कुठेही अबाध गतीने (इष्ट स्थानी) जाता येऊ शकते, अन्यथा नाही.

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    विषय

    पुढील मंत्रात योगीजनांच्या गुणांविषयी उपदेश केला आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (एक सिद्धयोगी म्हणत आहे) हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे (अहम्‌) मी योगाच्या आठ अंगाचे अनुष्ठान करून संयमी सिद्ध झालो आहे, म्हणजे धारण, ध्यान आणि समाधी क्रियेत परिपूर्ण झालो आहे त्याप्रमाणे तुम्ही करण्याचे यत्न करा) मी (पृथिव्या:) पृथ्वीवरून (अन्तरिक्षम्‌) आकाशाकडे (उद, आ, आरुहम्‌) वर वर जाऊ शकतो अथवा (अन्तरिक्षात) आकाशावरून (दिवम्‌) प्रकाशमान उंच सूर्यलोकात (आ, अरूहम्‌) जातो आणि (नाकस्य) सुखदायक (दिव:) प्रकाशमान सूर्यलोकाच्या (पृष्ठात) जवळ जाऊन (स्व:) अत्यंत सुख आणि (ज्योति:) ज्ञानाचा प्रकाश (अहम्‌) मी (अगाम्‌) प्राप्त करतो, तद्वत तुम्ही देखील करा (माझ्या रीतीने तुम्ही देखील समाधी अवस्थेतील सुख अनुभवू शकाल) ॥67॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेव्हा माणूस (वा एक योगी आपल्या आत्म्याचा परमात्म्याशी योग घडवून आणतो, तेव्हा त्यास आणिमा आदी योगसिद्धी प्राप्त होतात. त्यानंतर योगी कुठेही न थांबता अबाधगतीने इच्छित स्थलापर्यंत जाऊ शकतो. मनुष्याने जर योग्याप्रमाणे न केले, तर तो कदापी त्या स्थानांपर्यंत जाऊ शकत नाही. ॥67॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Through yoga, from physical force I rise higher to mental force ; from mental force I rise higher to spiritual force ; from spiritual force I rise higher to God, the Blissful Light.

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    Meaning

    (With the knowledge of science and the discipline of yoga) I rise from the earth to the skies. From the skies, I rise to the regions of light, the sun. From the regions of the sun, lord of life and joy, I rise to the heavens, the regions of eternal bliss and light divine.

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    Translation

    From the earth I climb up to the mid-space; from the midspace I climb up to heaven. From the high top of heaven I reach the world of bliss. (1)

    Notes

    Antarikşam ut āruham, I have ascended to the mid space (from the earth). Svarjyotiḥ, the world of light and bliss.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্য়োগিগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
    পুনঃ যোগীদের গুণগুলির উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন কৃত যোগের অঙ্গগুলির অনুষ্ঠান সংযমসিদ্ধ অর্থাৎ ধারণা, ধ্যান ও সমাধিতে পরিপূর্ণ, (অহম্) আমি (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর মধ্যে (অন্তরিক্ষম্) আকাশ পর্য্যন্ত (উদ্, আ, অরুহম্) উত্থিত হই অথবা (অন্তরিক্ষাৎ) আকাশ হইতে (দিবম্) প্রকাশমান সূর্য্যলোককে (আ, অরুহম্) আরোহণ করি অথবা (নাকস্য) সুখকারী (দিবঃ) প্রকাশমান সেই সূর্য্যলোকের (পৃষ্ঠাৎ) সমীপ হইতে (স্বঃ) অত্যন্ত সুখ এবং (জ্যোতিঃ) জ্ঞানের প্রকাশকে (অহম্) আমি (অগাম্) প্রাপ্ত হই তদ্রূপ তোমরাও আচরণ কর ॥ ৬৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যখন মনুষ্য নিজ আত্মা সহ পরমাত্মার যোগ প্রাপ্ত হয় তখন অনিমাদি সিদ্ধি উৎপন্ন হয়, তাহার পশ্চাৎ কোথাও হইতে না থামিবার গতি লইয়া অভীষ্ট স্থানেও যাইতে পারে, অন্যথা নহে ॥ ৬৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পৃ॒থি॒ব্যাऽঅ॒হমুদ॒ন্তরি॑ক্ষ॒মাऽऽऽর॑ুহম॒ন্তরি॑ক্ষা॒দ্ দিব॒মাऽऽऽর॑ুহম্ ।
    দি॒বো নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠাৎ স্ব᳖র্জ্যোতি॑রগাম॒হম্ ॥ ৬৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পৃথিব্যা ইত্যস্য বিধৃতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । পিপীলিকামধ্যা বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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