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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 30
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    102

    तमिद् गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ऽआपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छन्त॒ विश्वे॑। अ॒जस्य॒ नाभा॒वध्येक॒मर्पि॑तं॒ यस्मि॒न् विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि त॒स्थुः॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम्। इत्। गर्भ॑म्। प्र॒थ॒मम्। द॒ध्रे॒। आपः॑। यत्र॑। दे॒वाः। स॒मग॑च्छ॒न्तेति॑ सम्ऽअग॑च्छन्त। विश्वे॑। अ॒जस्य॑। नाभौ॑। अधि॑। एक॑म्। अर्पि॑तम्। यस्मि॑न्। विश्वा॑नि। भुव॑नानि। त॒स्थुः ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिद्गर्भम्प्रथमन्दध्रऽआपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे । अजस्य नाभावध्येकमर्पितँयस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। इत्। गर्भम्। प्रथमम्। दध्रे। आपः। यत्र। देवाः। समगच्छन्तेति सम्ऽअगच्छन्त। विश्वे। अजस्य। नाभौ। अधि। एकम्। अर्पितम्। यस्मिन्। विश्वानि। भुवनानि। तस्थुः॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यत्रापः प्रथमं गर्भं दध्रे, यस्मिन् विश्वे देवाः समगच्छन्त, यदजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुस्तमिदेव परमात्मानं यूयं बुध्यध्वम्॥३०॥

    पदार्थः

    (तम्) (इत्) एव (गर्भम्) सर्वलोकानामुत्पत्तिस्थानं प्रकृत्याख्यम् (प्रथमम्) विस्तृतमन्नादि (दध्रे) दधिरे (आपः) कारणाख्याः प्राणा जीवा वा (यत्र) यस्मिन् ब्रह्मणि (देवाः) दिव्यात्मान्तःकरणा योगविदः (समगच्छन्त) सम्यक् प्राप्नुवन्ति (विश्वे) सर्वे (अजस्य) अनुत्पन्नस्यानादेर्जीवस्याव्यक्तस्य च (नाभौ) मध्ये (अधि) अधिष्ठातृत्वेन सर्वोपरि विराजमानम् (एकम्) स्वयं सिद्धम् (अर्पितम्) प्रार्पितं स्थितम् (यस्मिन्) (विश्वानि) अखिलानि (भुवनानि) लोकजातान्यधिकरणानि (तस्थुः) तिष्ठन्ति॥३०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यो जगत् आधारो योगिभिर्गम्योऽन्तर्यामी स्वयं स्वाधारः सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति, स एव सर्वैः सेवनीयः॥३०॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यत्र) जिस ब्रह्म में (आपः) कारणमात्र प्राण वा जीव (प्रथमम्) विस्तारयुक्त अनादि (गर्भम्) सब लोकों की उत्पत्ति का स्थान प्रकृति को (दध्रे) धारण करते हुए वा जिसमें (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य आत्मा और अन्तःकरणयुक्त योगीजन (समगच्छन्त) प्राप्त होते हैं, वा जो (अजस्य) अनुत्पन्न अनादि जीव वा अव्यक्त कारणसमूह के (नाभौ) मध्य में (अधि) अधिष्ठातृपन से सब के ऊपर विराजमान (एकम्) आप ही सिद्ध (अर्पितम्) स्थित (यस्मिन्) जिस में (विश्वानि) समस्त (भुवनानि) लोकोत्पन्न द्रव्य (तस्थुः) स्थिर होते हैं, तुम लोग (तमित्) उसी को परमात्मा जानो॥३०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो जगत् का आधार, योगियों को प्राप्त होने योग्य, अन्तर्यामी, आप अपना आधार, सब में व्याप्त है, उसी का सेवन सब लोग करें॥३०॥

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    विषय

    सर्व वशकर्त्ता केन्द्रस्थ राजा का वर्णन ।पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    पूर्व प्रश्न का उत्तर । राजा के पक्ष में - ( तम् ) उस ( प्रथमम् ) सर्वश्रेष्ठ ( गर्भम् ) राष्ट्र को ग्रहण करने में समर्थ या प्रजा द्वारा राजा स्वीकार करने और आश्रय रूप से ग्रहण करने योग्य पुरुष को ( आप: ) आप्त प्रजाएं ( दध्रे ) धारण करती हैं ( यत्र ) जिसका आश्रय लेकर ( देवाः ) समस्त विद्वान् गण और शासक ( सम् अगच्छन्त ) एकत्र होते और व्यवस्था में संगठित हो जाते हैं । ( अजस्य ) अनुत्पन्न, अप्रकट रूप में विद्यमान राज्य के ( नाभौ ) नाभि, या केन्द्र भाग में ( अधि ) सबके ऊपर अधिष्ठाता रूप से ( एकम् ) उस एक पद को ( अर्पितम् ) स्थापित किया जाता है ( यस्मिन् ) जिस पर आश्रित होकर ( विश्वानि भुवनानि ) समस्त चर अचर प्राणि और प्रजाएं ( तस्थुः ) राष्ट्र में स्थिर होकर रहते हैं । परमेश्वर के पक्ष में- ( तम् इत् प्रथमम् ) उसही सर्वश्रेष्ठ सबसे प्रथम विद्यमान परमेश्वर के ( आपः ) प्रकृति के कारण परमाणु अपने ( गर्भम् दध्रे ) गर्भ में धारण करते हैं ( यत्र ) जिसके आश्रित ( विश्वे देवा: सम् अगच्छन्त ) समस्त दिव्य शक्तियां, पांचो भूत आदि वैकारिक पदार्थ एकत्र होकर एक काल में व्यवस्थित हैं । वस्तुतः ( अजस्य ) अव्यक्त रूप से विद्यमान संसार के ( नाभौ ) नाभि, केन्द्र अथवा उसको बांधने वाले तत्व के रूप में ( एकम् ) एक परम तत्व ( अधि अर्पितम् ) सर्वोपरि विद्यमान है ( यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुः ) जिसमें समस्त भुवन, उत्पन्न लोक आश्रय पाकर स्थिर हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो जगाचा आधार, योग्यांना प्राप्त होण्यायोग्य, अन्तर्यामी व स्वयंसिद्ध असून सर्वांमध्ये व्याप्त आहे अशा परमेश्वराचा आधार सर्व माणसांनी घ्यावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या परमात्म्याला जाणा की) (यत्र) ज्यामध्ये (आप:) कारणमात्र प्राण (निवास करतात, सर्व जीवांना प्राण देणारा तोच आहे) जो (प्रथमम्‌) विशाल आणि अनादी आणि (गर्भम्‌) सर्व लोकांना उत्पन्न करणारे (उत्पत्तीचे उपादान कारण असलेले) प्रकृति तत्त्वाचे (दघ्रे) धारण करीत आहे आणि (विश्‍वे) (देवा:) सर्व दिव्यात्मा मनुष्य आणि अंत: करणाच्या शक्तीचे संपन्न योगीजन ज्याला (समगच्छन्त) प्राप्त होतात (वा प्राप्त करण्यासाठी तत्पर असतात.) तसेच जो परमात्मा (अजस्य) अज (म्हणजे कधी जन्म न घेणाऱ्या) अनादी जीवात्म्याच्या तसेच (अव्यक्त कारणसूमहाच्या (प्रकृतीच्या) (नाभौ) मधे (अधि) अधिष्ठाता रुपाने सर्वांवर सर्वाहून श्रेष्ठ सर्वांवर विराजमान आहे, जो (एकम्‌) स्वयंसिद्ध असून केवळ एकमेव या रुपात (अर्पितम्‌) स्थित आहे, आणि (यस्मिन्‌) ज्या ईश्‍वरामध्ये (विश्‍वानि) सर्व (भुवनानि) लोक आणि लोकातील पदार्थ (तस्थु:) स्थिर आहेत, हे मनुष्यांनो, तुम्ही (तमित्‌) त्या परमात्म्यालाचा जाणा (त्याचे सत्य रुप जाणून घेऊन केवळ त्याचीच उपासना करा) ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी केवळ त्याच ईश्‍वराची उपासना करावी की जो जगदाधार आहे, योगीजनांनाच प्राप्त होणारा असून, अंतर्यामी, आहे. तो सर्वांत व्यापक असून त्याला कोणाच्या साहाय्याची वा आधाराची आवश्‍यक ता नाही. ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Know Him to be God, in Whom souls sustain the vast eternal matter, the source of creation ; to Whom all yogis attain. Who acts as Lord over eternal soul and matter. Who is Self Existent. In Whom abide all things existing.

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    Meaning

    Therein surely the life-force bore that first seed of the universe wherein all the powers of nature and the visionary souls find their repose. He is the one sole lord seated at the centre of the mother force, Prakriti, and he is the lord presiding over existence, wherein reside all the worlds of the universe.

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    Translation

    It was thе water that received the primeval germ, wherein all the bounties of Nature had assembled together. This one was placed on the navel of that one, who is never bom and in whom all the beings abide. (1)

    Notes

    Ajasya, न जायते इति अजः तस्य जन्मरहितस्य परमेश्वरस्य,of one, who is never born; the supreme Godhead free from birth and death. Nābhau, in the navel. नाभिस्थानीयस्य स्वरूपस्य मध्ये, at a point similar to navel; a central point. Aja, the Supreme God, cannot have a navel, so by implica tion, a point similar to navel. Ekam, अविभक्तं अनन्यभूतं किञ्चिद्गर्भरूपं बीजं, one, undi vided, unique, some sort of seed, that developed into an embryo. 'अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् । तदण्डमभवद्धैमं सूर्यकोटिसमप्रभम् ।' (Manusmrti, I. 8. 9) In the beginning He created waters only. Therein He de posited the seed. That developed into a golden egg, that had the brilliance of millions of suns. Him. He is the support of all, and there is nothing to support

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়ত্র) যে ব্রহ্মে (আপঃ) কারণমাত্র প্রাণ বা জীব (প্রথমম্) বিস্তারযুক্ত অনাদি (গর্ভম্) সর্ব লোকসমূহের উৎপত্তির স্থান প্রকৃতিকে (দধ্রে) ধারণ করিয়া বা যন্মধ্যে (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) দিব্য আত্মা ও অন্তকরণযুক্ত যোগীগণ (সমগচ্ছন্ত) প্রাপ্ত হয় অথবা যাহারা (অজস্য) অনুৎপন্ন অনাদি জীব বা অব্যক্ত কারণসমূহের (নাভৌ) মধ্যে (অধি) অধিষ্ঠাতৃত্ব দ্বারা সকলের উপর বিরাজমান (একম্) স্বয়ং সিদ্ধ (অর্পিতম্) স্থিত (য়স্মিন্) যন্মধ্যে (বিশ্বানি) সমস্ত (ভুবনানি) লোকোৎপন্ন দ্রব্য (তস্থুঃ) স্থির হয়, তোমরা (তমিৎ) তাহাকেই পরমাত্মা জান ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, যিনি জগতের আধার, যোগীদের প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য অন্তর্য্যামী স্বয়ং স্বীয় আধারে সকলের মধ্যে ব্যাপ্ত আছেন । তাঁহারই সেবন করা কর্ত্তব্য ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তমিদ্ গর্ভং॑ প্রথ॒মং দ॑ধ্র॒ऽআপো॒ য়ত্র॑ দে॒বাঃ স॒মগ॑চ্ছন্ত॒ বিশ্বে॑ ।
    অ॒জস্য॒ নাভা॒বধ্যেক॒মর্পি॑তং॒ য়স্মি॒ন্ বিশ্বা॑নি॒ ভুব॑নানি ত॒স্থুঃ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তমিদিত্যস্য ভুবনপুত্রো বিশ্বকর্মষিঃ । বিশ্বকর্মা দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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