यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 93
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - यज्ञपुरुषो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
114
ए॒ताऽअ॑र्षन्ति॒ हृद्या॑त् समु॒द्राच्छ॒तव्र॑जा रि॒पुणा॒ नाव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि चा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्य॑ऽआसाम्॥९३॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताः। अ॒र्ष॒न्ति॒। हृद्या॑त्। स॒मु॒द्रात्। श॒तव्र॑जा॒ इति॑ श॒तऽव्र॑जाः। रि॒पुणा॑। न। अ॒व॒चक्ष॒ इत्य॑ऽव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। हि॒र॒ण्ययः॑। वे॒त॒सः। मध्ये॑। आ॒सा॒म् ॥९३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्यऽआसाम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
एताः। अर्षन्ति। हृद्यात्। समुद्रात्। शतव्रजा इति शतऽव्रजाः। रिपुणा। न। अवचक्ष इत्यऽवचक्षे। घृतस्य। धाराः। अभि। चाकशीमि। हिरण्ययः। वेतसः। मध्ये। आसाम्॥९३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कीदृशी वाक् प्रयोज्येत्याह॥
अन्वयः
या रिपुणा नावचक्षे शतव्रजा एता वाचो हृद्यात् समुद्रादर्षन्त्यासां मध्ये या अग्नौ घृतस्य धारा इव जनेषु पतिताः प्रकाशन्ते, ता हिरण्ययो वेतसोऽहमभिचाकशीमि॥९३॥
पदार्थः
(एताः) (अर्षन्ति) गच्छन्ति निस्सरन्ति (हृद्यात्) हृदये भवात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (शतव्रजाः) शतमसंख्याता व्रजा मार्गा यासां ताः (रिपुणा) शत्रुणा स्तेनेन। रिपुरिति स्तेननामसु पठितम्॥ (निघं॰३.२४) (न) निषेधे (अवचक्षे) अवख्यातव्याः (घृतस्य) आज्यस्य (धाराः) (अभि) (चाकशीमि) सर्वतोऽनुशास्मि (हिरण्ययः) तेजःस्वरूपः (वेतसः) कमनीयः (मध्ये) (आसाम्) वेदधर्मयुक्तवाणीनाम्॥९३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोपदेशका विद्वांसो याः पवित्रा विज्ञानयुक्ता अनेकमार्गाः शत्रुभिरखण्ड्या घृतस्य प्रवाहोऽग्निमिव श्रोतॄन् प्रसादयन्ति, ता वाचः प्राप्नुवन्ति, तथा सर्वे मनुष्याः प्रयत्नेनैताः प्राप्नुयुः॥९३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसी वाणी का प्रयोग करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो (रिपुणा) शत्रु चोर से (न, अवचक्षे) न काटने योग्य (शतव्रजाः) सैकड़ों जिनके मार्ग हैं, (एताः) वे वाणी (हृद्यात्, समुद्रात्) हृदयाकाश से (अर्षन्ति) निकलती हैं, (आसाम्) इन वैदिक धर्मयुक्त वाणियों के (मध्ये) बीच जो अग्नि में (घृतस्य) घी की (धाराः) धाराओं के समान मनुष्यों में गिरी हुई प्रकाशित होती हैं, उनकी (हिरण्ययः) तेजस्वी (वेतसः) अतिसुन्दर मैं (अभि, चाकशीमि) सब ओर से शिक्षा करता हूं॥९३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उपदेशक विद्वान् लोग जो वाणी पवित्र, विज्ञानयुक्त, अनेक मार्गों वाली शत्रुओं से अखण्ड्य और घी का प्रवाह अग्नि को जैसे उत्तेजित करता है, वैसे श्रोताओं को प्रसन्न करने वाली हैं, उन वाणियों को प्राप्त होते हैं, वैसे सब मनुष्य अच्छे यत्न से इन को प्राप्त होवें॥९३॥
विषय
घृत की धाराओं का अध्यात्म, राज्य और जलधाराओं के पक्षों में योजना ।
भावार्थ
राजा के पक्ष में - ( एताः घृतस्य धारा : ) ये तेज की धाराएं बल और शक्ति पूर्वक कही गयी आज्ञाएं या सेनाएं ( हृद्यात् ) प्रजा के हृदय में उत्पन्न, उनके चित्तों को रमाने वाले (समुद्रात्) समुद्र के समान गम्भीर राजा से ( अर्षन्ति ) निकलती हैं। और ( शतव्रजाः) सैंकड़ों मार्गों में जाने वाली या सैकड़ों कार्यों को चलाने वाली होकर ( रिपुणा ) बाधक शत्रु द्वारा भी ( न अवचक्षे ) रोकी या विरोध नहीं की जा सकतीं । उन ( घृतस्य ) तेज की या बल, वीर्य या अधिकार की बनी ( धाराः ) राष्ट्र के धारण या व्यवस्थापन में समर्थ धारारों को मैं ( अभिचाकशीमि ) सर्वत्र व्यापक देखता हूं और ( आसाम् मध्ये ) इनके बीच में ( हिरण्ययः वेतसः ) घृत-धाराओं के बीच अग्नि के समान सुवर्ण रूप कोषसम्पत्ति का बना अति कमनीय आधार रूप स्तम्भ हैं । अध्यात्म में - ( घृतस्य धाराः अभिचाकशीमि ) मैं द्रष्टा जिस प्रकार घृत की धाराओं का प्रवाहित होता देखूं और ( आसाम् ) इनके ( मध्ये ) बीच में जिस प्रकार ( हिरण्ययः वेतसः ) सुवर्ण के समान कान्तिमान् अग्नि हो उसी प्रकार ( एताः ) ये ( घृतस्य ) स्वयं क्षरण होने वाले अनायास बहने वाले या स्वयं प्रस्फुटित होने वाले झरनों के समान फूट निकलने वाली वाणियों का मैं ( अभि ) साक्षात् ( चाकशीमि ) दर्शन करता हूं। और ( आसाम् मध्ये ) इनके बीच में व्यापक ( हिरण्ययः ) अति सुन्दर तेजस्वी ( वेतसः ) अति कमनीय पुरुष या ब्रह्म तत्त्व है । ( एताः ) ये वाणियें ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदय के समुद्र से अथवा हृदय से जानने और अनुभव करने योग्य हृदय में बसे ( समुद्रात् ) समस्त ज्ञान जलों के बहाने वाले परम अक्षय ज्ञानभण्डार से ( अर्षन्ति ) निकलती हैं । वे ( शतव्रजाः ) सैकड़ों मार्गों में जाने वाली, सैकड़ों अर्थों वाली, बहुत से पक्षों में लगने वाली, श्लेष से बहुत से अभिप्राय बतलाने वाली होकर भी ( रिपुणा ) पापी शत्रु द्वारा भी ( न अवचक्षे ) खण्डित नहीं की जा सकतीं । अर्थात् वे सब सत्य वाणियें सत्य ज्ञान की धारायें हैं । इसमें संदेह नहीं । ‘हृद्यात् ससुद्रात्' श्रद्धोदकप्लुताद् देवतायाथात्म्यचिन्तनसन्तानरूपात् समुद्रात् इति महीधरः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
विषय
हिरण्यय वेतस
पदार्थ
१. (एताः) = ये ज्ञान की धाराएँ (हृद्यात्) = हृदयदेश में निवास करनेवाले (समुद्रात्) = [स- मुद्] उस आनन्दमय प्रभु से (अर्षन्ति) = [ उद् गच्छन्ति, rush out ] उद्गत होती हैं। जिस समय गत मन्त्र की भावना के अनुसार हम प्रभु का आलिङ्गन कर पाते हैं उस समय इस हृदय में आविर्भूत आनन्दमय प्रभु से हमारे अन्दर ज्ञान का प्रकाश होता है। २. यह ज्ञान का प्रकाश (शतव्रजा) = [शतेन व्रजति] सैकड़ों मार्गों से जानेवाले, अर्थात् सैकड़ों शक्लों में हममें प्रकट होनेवाले (रिपुणा) = काम-क्रोधरूप शत्रु से (नावचक्षे) = [न अपवदितुं शक्यः] नष्ट नहीं किया जा सकता। जब तक ज्ञान क्षीण-सा होता है तब तक काम उसे समाप्त कर देता है, परन्तु ज्योंही ज्ञान प्रबल हुआ, तब यह काम, क्रोधरूपी शत्रुओं को नष्ट कर डालता है। ज्ञानबिन्दु कामाग्नि में भस्मीभूत कर दिया जाता है और ज्ञान - जलधारा कामाग्नि को बुझा देती है। ३. इस कामाग्नि के बुझ जाने पर (घृतस्य धारा:) = ज्ञान की धाराओं को (अभिचाकशीमि) = मैं अपने सब ओर देखता हूँ- मेरे हृदय में ज्ञान ही ज्ञान होता है। ४. (आसाम् मध्ये) = इन ज्ञान की धाराओं के बीच में वह (हिरण्ययः) = ज्योर्तिमय (वेतसः) = [कमनीय:-द०] अति सुन्दर प्रभु हैं। इन ज्ञान - वाणियों में प्रभु का प्रतिपादन है, जिसे कामाग्नि को शान्त करनेवाला ज्ञानी ही समझ पाता है । ५. प्रभु को 'हिरण्यय वेतस्' के रूप में देखनेवाला यह ऋषि स्वयं 'वामदेव' बनता है। प्रभु 'वाम' हैं 'देव' हैं दिव्य गुण सम्पन्न हैं। उनका उपासक भी वैसा ही होकर 'वामदेव' हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - १. हृदयस्थ प्रभु से ज्ञान की धाराएँ उद्गत होती हैं । २. ये कामाग्नि से बुझाई नहीं जा सकतीं । ३. कामाग्नि की शान्ति से ज्ञान की धाराएँ चारों ओर प्रवाहित होती हैं । ४. इन ज्ञान- धाराओं के मध्य में वह कान्त, ज्योर्तिमय रह रहा है, इनसे उस प्रभु का ज्ञान हो जाता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उपदेशक विद्वान लोक, शत्रूकडून पराजित न होणारी, पवित्र विज्ञानयुक्त व तूप जसे अग्नीला प्रदीप्त करते तशी श्रोत्यांना मंत्रमुग्ध करणारी वाणी प्राप्त करतात तशी वाणी सर्व माणसांनी प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करावी.
विषय
माणसाने कसे बोलावे (वाणी कशी असावी) याविषयी-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जी वाणी (वेदवाणी) (रिपुणा) शूत्रद्वारा अथवा चोराद्वारा (न अवचक्षे) नष्ट वा विकृत होणे शक्य नाही आणि (शतुव्रजा:) ज्याच्या विस्ताराचे शेकडो मार्ग आहेत, अशा (एता:) त्या वाणी (हृद्यात् समुद्रात) हृदयाकाशातून (अर्षन्ति) निघतात (आसाम्) या वैदिकधर्मयुक्त वाणीच्या (मध्ये) मधे (वेदमंत्राच्या घोषात) (घृतस्य) (धारा:) तुपाच्या धारा ज्याप्रमाणे अग्नीमधे पडतात, त्याप्रमाणे जी वेदवाणी मनुष्यावर वर्षतो त्या (हिरण्यय:) तेजस्वी (वेतस:) सुंदर वाणीचा मी (अभि चाकशीनि) सर्वथा स्वीकार करतो (वा तिचा प्रचार-प्रसार करतो) ॥93॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. वेदवाणी पवित्र विज्ञानयुक्त, अनेकप्रकारची असून शत्रूंद्वारे नष्ट न होणारी आहे आणि जी, तूप जसे अग्नीला प्रज्वलित करते, तद्वत श्रोत्यांना प्रसन्न करणारी आहे, अशा वेदवाणीचा उपदेशक विद्वान लोक अध्ययन, वाचन, उपदेश करतात. सर्व मनुष्यांनी देखील विद्वज्जनांप्रमाणे वेदवाणी प्राप्त केली पाहिजे ॥93॥
इंग्लिश (3)
Meaning
These vedic speeches which flow from the inmost reservoir of the heart are incontrovertible by the thievish foe. I realise these speeches full of knowledge and see in their midst the Resplendent, Beautiful God.
Meaning
These waves of cosmic energy, these vibrations of the cosmic boom of the Word, issue from the oceanic depths of the Eternal Mind. In countless streams they flow all round, not even an enemy can deny them. And I, a soul wrapped in golden hue, stand in the midst of these waves like a reed and feel the power and the beatitude blowing through me.
Translation
In countless channels these showers flow down from the heart of calestial interspace, unrestricted by the dark clouds. look upon these showers of mystic spiritual rays · descending, and behold the mystic golden reed in the mid of them. (1)
Notes
Arşanti, नि:सरंति, flow out. Hṛdyāt samudrāt, from the ocean that lies in the heart. Śatavrajāḥ, running in hundreds of channels. Ripuņā nāvacakṣe, unnoticed by the foes. Hiranyayaḥ vetasaḥ, the golden reed; celestial fire.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কীদৃশী বাক্ প্রয়োজ্যেত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কেমন বাণীর প্রয়োগ করা দরকার, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ– যাহা (রিপুণা) শত্রু চোর দ্বারা (ন, অবচক্ষে) না কাটিবার যোগ্য (শতব্রজাঃ) শতশত যাহার মার্গ আছে (এতাঃ) সেই সব বাণী (হৃদ্যাৎ, সমুদ্রাৎ) হৃদয়াকাশ হইতে (অর্ষন্তি) বাহির হয় (আসাম্) এই সব বৈদিক ধর্মযুক্ত বাণীদিগের (মধ্যে) মধ্যে যাহা অগ্নিতে (ঘৃতস্য) ঘৃতের (ধারাঃ) ধারার সমান মনুষ্যদিগের মধ্যে পতিত হইয়া প্রকাশিত হয় তাহার (হিরণ্যয়ঃ) তেজস্বী (বেতসঃ) অতি সুন্দর আমি (অভি, চাকশীমি) সব দিক দিয়া শিক্ষা করি ॥ ঌ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্র বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন উপদেশক বিদ্বান্গণ যে বাণী পবিত্র বিজ্ঞানযুক্ত বহু মার্গ যুক্ত শত্রুদের হইতে অখন্ড এবং ঘৃতের প্রবাহ অগ্নিকে যেমন উত্তেজিত করে সেইরূপ শ্রোতাদিগকে প্রসন্ন করে, সেই সব বাণী সকলকে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ সকল মনুষ্য সুপ্রযত্ন দ্বারা এই সব প্রাপ্ত হইবে ॥ ঌ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এ॒তাऽঅ॑র্ষন্তি॒ হৃদ্যা॑ৎ সমু॒দ্রাচ্ছ॒তব্র॑জা রি॒পুণা॒ নাব॒চক্ষে॑ ।
ঘৃ॒তস্য॒ ধারা॑ऽঅ॒ভি চা॑কশীমি হির॒ণ্যয়ো॑ বেত॒সো মধ্য॑ऽআসাম্ ॥ ঌ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
এতা ইত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । য়জ্ঞপুরুষো দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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