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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 60
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    57

    उ॒क्षा स॑मु॒द्रोऽअ॑रु॒णः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरावि॑वेश। मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षा। स॒मु॒द्रः। अ॒रु॒णः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। पूर्व॑स्य। योनि॑म्। पि॒तुः। आ। वि॒वे॒श॒। मध्ये॑। दि॒वः। निहि॑त॒ इति॒ निऽहि॑तः। पृश्निः॑। अश्मा॑। वि। च॒क्र॒मे॒। रज॑सः। पा॒ति॒। अन्तौ॑ ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षा समुद्रोऽअरुणः सुपर्णः पूर्वस्य योनिम्पितुराविवेश । मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा विचक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षा। समुद्रः। अरुणः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। पूर्वस्य। योनिम्। पितुः। आ। विवेश। मध्ये। दिवः। निहित इति निऽहितः। पृश्निः। अश्मा। वि। चक्रमे। रजसः। पाति। अन्तौ॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 60
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! य ईश्वरेण दिवो मध्ये निहित उक्षा समुद्रोऽरुणः सुपर्णः पुश्निरश्मा मेघश्च रजसोऽन्तौ विचक्रमे पाति च पूर्वस्य पितुर्योनिमाविवेश, स सम्यगुपयोक्तव्यः॥६०॥

    पदार्थः

    (उक्षा) वृष्ट्या सेचकः (समुद्रः) सम्यग् द्रवन्त्यापो यस्मात् सः (अरुणः) आरक्तः (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालनानि यस्मात् (पूर्वस्य) पूर्णस्य (योनिम्) कारणम् (पितुः) उत्पादिकाया विद्युतः (आ) (विवेश) प्रविशति (मध्ये) (दिवः) प्रकाशमयस्य (निहितः) ईश्वरेण स्थापितः (पृश्निः) विचित्रवर्णः सूर्य्यः (अश्मा) अश्नुते व्याप्नोति स मेघः। अश्मेति मेघनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१०) (वि) (चक्रमे) विविधतया क्रमते (रजसः) लोकान् (पाति) रक्षति (अन्तौ) बन्धने॥६०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरीश्वरस्यानेके धन्यवादा वाच्याः, कुतो येन स्वविज्ञापनाय जगत्पालननिमित्तः सूर्यादिदृष्टान्तः प्रदर्शितः, स कथं न सर्वशक्तिमान् भवेत्॥६०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो परमेश्वर ने (दिवः) प्रकाश के (मध्ये) बीच में (निहितः) स्थापित किया हुआ (उक्षा) वृष्टि-जल से सींचने वाला (समुद्रः) जिससे कि अच्छे प्रकार जल गिरते हैं, (अरुणः) जो लाल रङ्ग वाला तथा (सुपर्णः) जिससे कि अच्छी पालना होती है, (पृश्निः) वह विचित्र रङ्ग वाला सूर्यरूप तेज और (अश्मा) मेघ (रजसः) लोकों को (अन्तौ) बन्धन के निमित्त (वि, चक्रमे) अनेक प्रकार घूमता तथा (पाति) रक्षा करता है तथा (पूर्वस्य) जो पूर्ण (पितुः) इस सूर्य्यमण्डल के तेज को उत्पन्न करने वाला बिजुलीरूप अग्नि है, उसके (योनिम्) कारण में (आ, विवेश) प्रवेश करता है, वह सूर्य्य और मेघ अच्छे प्रकार उपयोग करने योग्य हैं॥६०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को ईश्वर के अनेक धन्यवाद कहने चाहियें, क्योंकि जिस ईश्वर ने अपने जानने के लिये जगत् की रक्षा का कारणरूप सूर्य्य आदि दृष्टान्त दिखाया है, वह कैसे न सर्वशक्तिमान् हो॥६०॥

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    विषय

    राजा गृहपति और योगी का वर्णन ।

    भावार्थ

    राजा के पक्ष में-- ( उक्षा ) राष्ट्र कार्य भार को वहन करने वाला, (समुद्रः ) नाना ऐश्वर्यों और बलयुक्त कार्यों को उत्पादक अथवा ( समुद्रः ) अपनी मुद्रादि का उत्पादक, या समुद्र के समान गंभीर अनन्त कोश रत्नों को स्वामी (अरुणः) उगते सूर्य के समान रक्त वर्ग के वस्त्र पहने, रोहित स्वरूप, ( सुपर्णः) उत्तम रूप से पालन करने वाला होकर ही ( पूर्वस्य ) अपने पूर्व विद्यमान ( पितुः ) पालक पिता राजा के (योनिम् ) स्थान को ( आविवेश ) ले पूर्व के राजा के पद पर स्वयं विराजे । यदि राजा का पुत्र उतना समर्थ न हो तो उसको पिता की राज- गद्दी न प्राप्त हो । क्योंकि ( दिवः मध्ये ) द्यौलोक के बीच में ( निहित ) स्थित सूर्य के समान तेजस्वी राजा ही दिवः मध्ये ) तेजस्वी राष्ट्र और राजचक्र के बीच में ( निहित: ) स्थापित होकर ( पृश्निः ) सूर्य जिस प्रकार पृथिवी आदि लोकों से रस को ग्रहण करता है उसी प्रकार कर आदि लेने में समर्थ एवं स पालन में समर्थ और ( अश्मा ) चक्की या शिला के समान होकर शत्रु गणों को चकनाचूर कर देने में समर्थ होकर वह ( विचकमे ) ( रजसः ) नाना ऐश्वयों से रंजित राष्ट्र रूप लोक के ( अन्तौ ) दोनों छोरों को ( पाति) पालन कर सकता है । ऋ० ५।४७।३॥ शत० ९।२|३|१८|| विविध प्रकार के विक्रम कर सकता है और इसी प्रकार गृहपति के विषय में - गृहस्थ माता पिता का पुत्र जब वीर्य सेचन में या गृहस्थ का भार उठाने में समर्थ 'उक्षा' उत्तम पालन साधन रोजगारी से युक्त सुपर्ण हो तो उसको अपने पूर्व पिता की गादी प्राप्त हो । यह ही ( अश्मा ) शिला के समान आदित्य के समान पालक, होकर (रजसः) राग से प्राप्त काम्य गृहस्थ सुख के दोनों अन्तों को वर वधू दोनों के गृह बन्धनों को पालन कर सकता है। अथवा योगी - ( उक्षा ) व मेघ द्वारा आत्मा ने बह्य रक्षक वर्षक होकर तेजस्वी, उत्तम ज्ञानवान् होकर पूर्व पिता, पूर्ण पालक परमेश्वर के धाम को प्राप्त होता है । वह (दिवः) तेजोमय मोक्ष के बीच में स्थित होकर ( पृश्निः ) समस्त ब्रह्मा नन्द का भोक्ता ( अश्मा ) राजस, तामस उद्योगों का नाशक 'अष्माखण' होकर ( विचक्रमे ) विविध लोकों में स्वच्छन्द गति करता है और ( रजसः ) समस्त ब्रह्माण्ड या रजोमय प्राकृतिक विकृति विभूति के दोनों छोर उत्पत्ति और प्रलय दोनों को (पाति) पा लेता है। शत० ९।१|३|१८ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अप्रतिरथ ऋषिः आदित्यो देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    पितृगृह प्रवेश [अन्तरक्षण] -

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अन्त में विश्वावसु के ज्ञान-विज्ञान के धारण का उल्लेख है । उसे धारण करके यह उक्षा उस ज्ञान का सेचन करनेवाला बनता है, उस ज्ञान को प्रजाओं में फैलाता है । २. (समुद्रः) = इस कार्य को करता हुआ यह सदा आनन्द में निवास करता है [स+मुद्] । हर्ष - शोक के वश में न होकर आनन्दमय बना रहता है। ३. (अरुण:) = अपनी तेजस्विता से 'आ-रक्त' वर्णवाला होता है। ४. (सुपर्णः) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला होता है। ऐसा बनकर ५. (पूर्वस्य पितुः) = उस सबके प्रथम पिता प्रभु के (योनिम्) = स्थान में (आविवेश) = प्रवेश करता है, अर्थात् उस प्रभु की उपासना करता हुआ प्रभु से मेल करने का प्रयत्न करता है । ६. (मध्ये दिवः निहितः) = यह सदा ज्ञान के मध्य में निवास करता है। ७. (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टा भासाम्] सब ज्ञान- रश्मियों का सम्पर्क करनेवाला होता है अथवा 'अल्पतनु' होता है, शरीर को बड़ा मोटा-ताज़ा करने में नहीं लगा रहता, परन्तु ८. (अश्मा) शरीर को पत्थर जैसा दृढ़ बनाता है । ९. शरीर की दृढ़ता के लिए ही (विचक्रमे) = विशिष्ट पुरुषार्थ करनेवाला होता है और (रजसः) = इस शरीररूप लोक के (अन्तौ) = अन्तों को, मस्तिष्क व चरणों को पाति-बड़ा सुरक्षित रखता है। इसका ज्ञान उत्तम व पवित्र होता है और उस ज्ञान के अनुसार इसके आचरण भी पवित्र होते हैं। विचार और आचार दोनों पवित्र होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान का प्रसार करनेवाला, सदा आनन्दमय, तेजस्वी, उत्तमता से अपना पूरण करनेवाला 'अप्रतिरथ' परमात्मा में पहुँचता है। सदा ज्ञान में स्थित [नित्य सत्यस्थ] ज्योतियों के स्पर्शवाला, दृढ़ शरीर यह निरन्तर पुरुषार्थ करता है और अपने विचार-आचार की बड़ी रक्षा करता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी ईश्वराबद्दल कृतज्ञता बाळगली पाहिजे. कारण ज्या ईश्वराने माणसांना जाणावे यासाठी जगाचा रक्षक असा कारणरूपी सूर्य निर्माण करून जणू दृष्टांतच दिलेला आहे, तर मग असा परमेश्वर सर्वशक्तिमान कसा नसेल?

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय कथित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (तुम्ही जाणून घ्या की) परमेश्‍वराने (दिव:) या प्रकाशलोकांच्या (मध्ये) मधे (निहित:) स्थापित केलेला (हा सूर्य आहे, की जो) (उद्या) वृष्ठी-जलाद्वारे पृथ्वीला सिंचित करतो, (समुद्र:) तो सूर्यच आकाशातून वृष्ठि-जलाद्वारे पृथ्वीला सिंचित करतो, (समुद्र:) तो सूर्यच आकाशातून वृष्टि-जल वार्षित करणारा आहे (समुद्र:=सम्यण्‌ द्रवन्ति आयो यस्त्रात्‌ स: = सूर्य:) तो (अरूण:) लाल रंगाचा सूर्य (सपूर्ण:) सर्वांचे पालन करणारा असून (पृश्‍नि:) अद्भुत रंग धारण करणारा तेजोरुप आहे. तोच (अश्‍मा) मेघाच्या आणि (रजस:) अनेक लोकांच्या (अन्नौ) बंधनाचे कारण आहे (सूर्यामुळे मेघ गती करतात आणि ग्रहादी एकमेकाच्या आकर्षणात राहतात) (विचनुये) सूर्य त्यांना अनेकप्रकारे फिरवितो आणि (पति) त्यांचे रक्षण करतो. तसेच सूर्य (पूर्वस्य) संपूर्ण (पितु:) या सूर्यमंडळाच्या तेजाच्या उत्पत्तीचे कारण जी विद्युत रुप अग्नी आहे, त्या (योनिम्‌) कारणरुप विद्युतेमधे (आ विवेश) प्रवेश करतो (विद्युतेचे कारण सूर्यतेज आहे) यामुळे सूर्य आणि मेघ यांच्यापासून चांगल्याप्रकारे लाभ घेतले पाहिजेत. ॥60॥

    भावार्थ

    भावार्थ - माणसांनी परमेश्‍वराला अनेकश: धन्यवाद दिले पाहिजेत. कारण त्याने स्वत:च्या अस्तित्वाची जाणीव करून देण्यासाठी आणि या जगाचे रक्षण करण्याकरिता सूर्यासारखे उदाहरण दाखविले आहे (सूर्याचे गुण, लाभ, अस्तित्व या सर्वांमुळे माणसांना कल्पना येते की अशा अतिअद्भुत सूर्याची उत्पत्ती करणारा तो परमेश्‍वर कसा असेल) तो परमेश्‍वर सर्वशक्तिमान आहे, यात आश्‍चर्य काय! ॥60॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God has set the sun in the midst of heaven. It attracts rainwater and pours it down, is red, protects us thoroughly, possesses diverse coloured rays, rotates, keeps under check the clouds and different worlds, and guards them. It pervades lightning the efficient cause of light.

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    Meaning

    The sun, seminal fertilizer of life, ocean of spatial waters, scarlet red at dawn, lord of manifold splendour, illuminator of the firmament, sustained in the midst of heaven, travels in space sustaining and binding the ends of the spheres and moving towards the womb of its original mother, eternal energy, from whence it came into being.

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    Translation

    The showerer of rain, the shedder of dew, the radiant and the one of splendid wings such as the sun, has entered the region of the paternal East. The many-tinted and pervading luminary proceeds to both extremities of the firmament, and guards the two limits. (1)

    Notes

    Ukṣā, सेचन: वृष्टिद्वारा सेक्ता, showerer; irrigator. Samudraḥ,समुंदंति क्लेदयति य: स:, drencher. Suparnah, शोभनं पर्णं पतनं गमनं यस्य, whose movement is excellent. Also, strong-winged. Pituḥ pūrvasya yonim, in the abode of his father, the East. Or, in the abode of his erstwhile father, the sky. Pṛśnih, विचित्रवर्ण:, of wonderful colour. Rajasaḥ antau, लोकस्य पर्यंतौ, both the ends of the uni verse. लोकत्रयस्य पर्यंतान्, all the limits of all the three worlds, i. e. heaven, earth and pātāla, the hades, or the under world; or the earth, the mid-space and the sky.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে পরমেশ্বর (দিবঃ) প্রকাশের (মধ্যে) মধ্যে (নিহিতঃ) স্থাপিত (উক্ষা) বৃষ্টি জল দ্বারা সিঞ্চনকারী (সমুদ্রঃ) যদ্দ্বারা উত্তম প্রকার জল পতিত হয় (অরুণঃ) যাহা লাল বর্ণের, (সুপর্ণঃ) তথা যদ্দ্বারা উত্তম পালন হয় (পৃষ্ণিঃ) সেই বিচিত্র রঙ যুক্ত সূর্য্যরূপ তেজ এবং (অশ্মা) মেঘ (রজসঃ) লোকসমূহকে (অন্তৌ) বন্ধনের নিমিত্ত (বি, চক্রমে) অনেক প্রকার ঘূর্ণন করে তথা (পাতি) রক্ষা করে (পূর্বস্য) তথা যাহা পূর্ণ (পিতুঃ) এই সূর্য্য মন্ডলের তেজ উৎপন্নকারী বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি, তাহার (য়োনিম্) কারণে (আ, বিবেশ) প্রবেশ করে–সেই মেঘ ও সূর্য্য উত্তম প্রকার ব্যবহার করিবার যোগ্য ॥ ৬০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগকে ঈশ্বরের বহু ধন্যবাদ দেওয়া দরকার কেননা যে ঈশ্বর আমাদের জানার জন্য জগতের রক্ষার কারণরূপ সূর্য্যাদি দৃষ্টান্ত দেখাইয়াছেন তিনি কী করিয়া সর্বশক্তিমান হইবেন না? ॥ ৬০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒ক্ষা স॑মু॒দ্রোऽঅ॑রু॒ণঃ সু॑প॒র্ণঃ পূর্ব॑স্য॒ য়োনিং॑ পি॒তুরা বি॑বেশ ।
    মধ্যে॑ দি॒বো নিহি॑তঃ॒ পৃশ্নি॒রশ্মা॒ বি চ॑ক্রমে॒ রজ॑সস্পা॒ত্যন্তৌ॑ ॥ ৬০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উক্ষা ইত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । আদিত্যো দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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