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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 51
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रां न॑य सजा॒ताना॑मसद्व॒शी। समे॑नं॒ वर्चसा सृज दे॒वानां॑ भाग॒दाऽअ॑सत्॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑। इ॒मम्। प्र॒त॒रामिति॑ प्रऽत॒राम्। न॒य॒। स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। अ॒स॒त्। व॒शी। सम्। ए॒न॒म्। वर्च॑सा। सृ॒ज॒। दे॒वाना॑म्। भा॒ग॒दा इति॑ भाग॒ऽदाः। अ॒स॒त् ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेमम्प्रतरान्नय सजातानामसद्वशी । समेनँवर्चसा सृज देवानाम्भागदाऽअसत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। इमम्। प्रतरामिति प्रऽतराम्। नय। सजातानामिति सऽजातानाम्। असत्। वशी। सम्। एनम्। वर्चसा। सृज। देवानाम्। भागदा इति भागऽदाः। असत्॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 51
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे इन्द्रः! त्वं सजातानां देवानामिमं प्रतरां नय यतोऽयं वश्यसत्। एनं वर्चसा संसृज यतोऽयं भागदा असत्॥५१॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) सुखानां धारक (इमम्) विजयमानम् (प्रतराम्) प्रतरन्त्युल्लङ्घयन्ति शत्रुबलानि यया नीत्या ताम् (नय) प्रापय (सजातानाम्) समानजन्मनाम् (असत्) भवेत् (वशी) जितेन्द्रियः (सम्) सम्यक् (एनम्) (वर्चसा) विद्याप्रकाशेन (सृज) युङ्ग्धि (देवानाम्) विदुषां योद्धॄणां मध्ये (भागदाः) अंशप्रदः (असत्)॥५१॥

    भावार्थः

    युद्धे भृत्याः शत्रूणां यान् पदार्थान् प्राप्नुयुः, तान् सर्वान् सभापती राजा न स्वीकुर्यात्। किन्तु तेषां मध्याद् यथायोग्यं सत्काराय योद्धृभ्यो षोडशांशं प्रदद्याद्, यावतः पदार्थान् भृत्याः प्राप्नुयुस्तावतां षोडशांशं राज्ञे प्रदद्युः। यदि सर्वे सभेशादयो जितेन्द्रियाः स्युस्तर्ह्येतेषां कदापि पराजयो न स्यात्, यदि सभेशः स्वहितं चिकीर्षेत् तर्हि योद्धॄणामंशं स्वयं न स्वीकुर्यात्॥५१॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सुखों के धारण करनेहारे सेनापति! तू (सजातानाम्) समान अवस्था वाले (देवानाम्) विद्वान् योद्धाओं के बीच (इमम्) विजय को प्राप्त होते हुए इस वीरजन को (प्रतराम्) जिससे शत्रुओं के बलों को हटावें उस नीति को (नय) प्राप्त कर, जिससे यह (वशी) इन्द्रियों को जीतने वाला (असत्) हो और (एनम्) इसको (वर्चसा) विद्या के प्रकाश से (सम्, सृज) संसर्ग करा, जिससे यह (भागदाः) अलग-अलग यथायोग्य भागों का देने वाला (असत्) हो॥५१॥

    भावार्थ

    युद्ध में भृत्यजन शत्रुओं के जिन पदार्थों को पावें, उन सबों को सभापति राजा स्वीकार न करे, किन्तु उनमें से यथायोग्य सत्कार के लिये योद्धाओं को सोलहवां भाग देवे। वे भृत्यजन जितना कुछ भाग पावें, उस का सोलहवां भाग राजा के लिये देवें। जो सब सभापति आदि जितेन्द्रिय हों तो उनका कभी पराजय न हो, जो सभापति अपने हित को किया चाहे तो लड़नेहारे भृत्यों का भाग आप न लेवे॥५१॥

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    विषय

    नेता सेनापति का अधीनों के प्रति कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! सेनापते ! ( इमं ) इस राष्ट्रपति को ( प्र-तराम् ) बहुत उत्कृष्ट मार्ग से ( नय ) ले चल । जिससे वह ( सजातानाम् ) अपने समान वंश और पद वालों को भी ( वशी असत् ) वश करने में समर्थ हो । ( एनं ) इसको ( वर्चसा ) ऐसे तेज और बल से ( संसृज ) युक्त कर जिससे यह ( देवानां ) समस्त विजयशील योद्धाओं, विद्वानों और शासक वर्गों को ( भागदाः ) अंश, उनके उचित वेतन आदि देने में समर्थ (असत् ) हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो देवता आर्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    युद्धात सैनिकांनी जे पदार्थ जिंकून घेतलेले असतील त्या सर्वच्या सर्व वस्तूंचा राजाने स्वीकार करू नये. त्यापैकी सोळावा भाग सत्कार म्हणून योद्ध्यांना द्यावा व ज्या सैनिकांना जेवढा भाग मिळेल त्याचा सोळावा भाग राजाला द्यावा. जर सर्व राजे जितेंद्रिय असतील तर त्यांचा पराजय कधीच होत नाही त्यासाठी राजाने आपल्या हितासाठी लढणाऱ्या सैनिकांचा हिस्सा स्वतः घेऊ नये.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (इन्द्र) सुखी व संतुष्ट सेनापती, (सजातानाम्‌) समान वय असलेले (तुमच्या सेनेतील सर्व तरूण) (देवानाम्‌) कुशल कलावान सैनिकांपैकी (इमय्‌) विजयी होऊन परतलेला हा जो वीरवर युवक सैनिक आहे, (प्रतराम्‌) शत्रुपक्षाला परिजित करण्याची त्याची जी रणनीती आहे, ती रणनीती तू (नय) प्राप्त कर (शत्रूला पराजित करण्याची युद्धकला व नीती शिकून घे – या सैनिकांनी कसे व काय पराक्रम केला, त्याची नोंद घे) की ज्यामुळे हा (वशी) जितेंद्रिय (असत्‌) होईल (शत्रू विजयापेक्षा इंद्रियजय अधिक कठीण आहे) तसेच (एनम्‌) वा वीराला (वर्चसा) ज्ञान, प्रशिक्षण आदीद्वारा (सं, सृज) अधिक संपन्न कर. यामुळे हा वीर (भागदा:) सर्वांना यथोचित भाग देणारा (आपले ज्ञान, युद्धशास्त्र दुसऱ्या सैनिकांना देणारा) (असत्‌) होईल. ॥51॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सेवक वा कर्मचारी या युद्धानंतर शत्रुपक्षातील जे पदार्थ मिळतील, ते सर्व पदार्थ (हत्यारे, रथ, प्राणी मिळालेली धन-संपदा आदी) एकट्या राजानेच घेऊ नये, तर योद्धा विजयी वीरांना त्यापैकी सोळावा भाग त्यांना देऊन त्यांचा गौरव करावा. तसेच कर्मचारी, सैनिक वा सेवकजन यांचा युद्धानंतर शत्रूंचे जे पदार्थ मिळतील, त्यातील सोळावा भाग राजाला द्यावा. सभापती (राजा) आदी सैन्याधिकारी जर जितेंद्रिय असतील, तर त्यांचा कधीही पराजय होणार नाही. जर सभापती (राजा) आपले हित व्हावे, असे इच्छीत असेल, तर त्याने लढणाऱ्या सैनिकांनी वा सेवकांनी मिळवून आणलेल्या शत्रूपक्षातील (धन-संपत्ती, वाहने, आदी) पदार्थातील सैनिकांना देय असलेला सोळावा भाग स्वत: ठेवून घेऊ नये. ॥51॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Commander, lead to eminence, this hero amongst the learned of the same age. May he have control over his passions. Vouchsafe him lustre of knowledge, so that he may give each his share.

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    Meaning

    Indra, lord of power and glory, take this warrior victor to that high state of ethics and policy whereby he may rise to organise, control and rule over his fellow citizens, children of the mother land. Bless him with the light and lustre of life and learning so that he is able to do his duty to the noble people, powers of nature and God.

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    Translation

    O resplendent Lord, may you bring this man to greater eminence. May he be controller of his own clan. Bestow lustre on him; may he give to the enlightened ones their share. (1)

    Notes

    Sajātānām vasi asat, may he be controller of his clan.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (ইন্দ্র) সুখ ধারণকারী সেনাপতি! তুমি (সজাতানাম্) সমান অবস্থাযুক্ত (দেবানাম্) বিদ্বান্ যোদ্ধাদিগের মধ্যে (ইমম্) বিজয় প্রাপ্ত হইয়া এই বীরব্যক্তিকে, (প্রতরাম্) যাহার দ্বারা শত্রুদের বলকে অপসারিত করিবে, সেই নীতিকে (নয়) প্রাপ্ত কর যাহার ফলে সে (বশী) ইন্দ্রজয়ী (অসৎ) হয় এবং (এনম্) ইহাকে (বর্চসা) বিদ্যার প্রকাশ দ্বারা (সং, সৃজ) সংসর্গ করাইবে যাহাতে এই (ভাগদাঃ) পৃথক পৃথক যথাযোগ্য ভাগদাতা (অসৎ) হয় ॥ ৫১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যুদ্ধে ভৃত্যগণ শত্রুদিগের যে সব পদার্থ লাভ করিবে সেই সবকে সভাপতি রাজা স্বীকার করিবেন না কিন্তু তাহাদিগের মধ্য হইতে যথাযোগ্য সৎকার হেতু যোদ্ধাদিগকে ষোড়শতম অংশ দিবেন । সেই ভৃত্যগুলি যত কিছু পাইবে তাহার ষোড়শতম অংশ রাজাকে দিবে । সকল সেনাপতি আদি জিতেন্দ্রিয় হইলে তাহাদের কখনও পরাজয় হইবে না । যে সভাপতি নিজ হিত দেখিবেন লড়াইকারী ভৃত্যদিগের অংশ স্বয়ং লইবেন না ॥ ৫১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ইন্দ্রে॒মং প্র॑ত॒রাং ন॑য় সজা॒তানা॑মসদ্ব॒শী ।
    সমে॑নং॒ বর্চ॑সা সৃজ দে॒বানাং॑ ভাগ॒দাऽঅ॑সৎ ॥ ৫১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইন্দ্রেমমিত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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