यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 78
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विश्वकर्मा देवता
छन्दः - विराडतिजगती
स्वरः - निषादः
101
चित्तिं॑ जुहोमि॒ मन॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ दे॒वाऽइ॒हागम॑न् वी॒तिहो॑त्राऽऋता॒वृधः॑। पत्ये॒ विश्व॑स्य॒ भूम॑नो जु॒होमि॑ वि॒श्वक॑र्मणे वि॒श्वाहादा॑भ्यꣳ ह॒विः॥७८॥
स्वर सहित पद पाठचित्ति॑म्। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। घृ॒तेन॑। यथा॑। दे॒वाः। इ॒ह। आ॒गम॒न्नित्या॒गम॑न्। वी॒तिहो॑त्रा॒ इति॑ वी॒तिऽहो॑त्रा। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। पत्ये॑। विश्व॑स्य। भूम॑नः। जु॒होमि॑। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणे। वि॒श्वाहा॑। अदा॑भ्यम्। ह॒विः ॥७८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्तिञ्जुहोमि मनसा घृतेन यथा देवाऽइहागमन्वीतिहोत्राऽऋतावृधः । पत्ये विश्वस्य भूमनो जुहोमि विश्वकर्मणे विश्वाहादाभ्यँ हवि ॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्तिम्। जुहोमि। मनसा। घृतेन। यथा। देवाः। इह। आगमन्नित्यागमन्। वीतिहोत्रा इति वीतिऽहोत्रा। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। पत्ये। विश्वस्य। भूमनः। जुहोमि। विश्वकर्मण इति विश्वऽकर्मणे। विश्वाहा। अदाभ्यम्। हविः॥७८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथाऽहं मनसा घृतेन चित्तिं जुहोमि, यथेह वीतिहोत्रा ऋतावृधो देवा भूमनो विश्वस्य विश्वकर्मणे पत्ये जगदीश्वरायादाभ्यं हविर्विश्वाहा होतुमागमन्नहं हविर्जुहोमि, तथा यूयमप्याचरत॥७८॥
पदार्थः
(चित्तिम्) चिन्वन्ति यया ताम् (जुहोमि) गृह्णामि (मनसा) विज्ञानेन (घृतेन) आज्येन (यथा) (देवाः) कामयमाना विद्वांसः (इह) (आगमन्) आगच्छन्ति (वीतिहोत्राः) वीतिः सर्वतः प्रकाशितो होत्रा यज्ञो येषां ते (ऋतावृधः) ये ऋतेन सत्येन वर्धन्ते। अत्र अन्येषामपि॰ [अष्टा॰६.३.१३७] इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (पत्ये) पालकाय (विश्वस्य) समग्रस्य जगतः (भूमनः) बहुरूपस्य (जुहोमि) ददामि (विश्वकर्मणे) विश्वं कर्म क्रियमाणं कृतं येन तस्मै (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (हविः) होतव्यं शुद्धं सुखकरं द्रव्यम्॥७८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा काष्ठचितोऽग्निराज्येन वर्द्धते, तथा विज्ञानेनाहं वर्द्धेयम्, यथेश्वरोपासका विद्वांसश्च जगतः कल्याणाय प्रयतन्ते, तथाहमपि प्रयतेय॥७८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यथा) जैसे मैं (मनसा) विज्ञान वा (घृतेन) घी से (चित्तिम्) जिस क्रिया से सञ्चय करते हैं, उसको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ वा जैसे (इह) इस जगत् में (वीतिहोत्राः) सब ओर से प्रकाशमान जिन का यज्ञ है, वे (ऋतावृधः) सत्य से बढ़ते और (देवाः) कामना करते हुए विद्वान् लोग (भूमनः) अनेक रूप वाले (विश्वस्य) समस्त संसार के (विश्वकर्म्मणे) सब के करने योग्य काम को जिसने किया है, उस (पत्ये) पालनेहारे जगदीश्वर के लिये (अदाभ्यम्) नष्ट न करने और (हविः) होमने योग्य सुख करने वाले पदार्थ का (विश्वाहा) सब दिनों होम करने को (आगमन्) आते हैं और मैं होमने योग्य पदार्थों को (जुहोमि) होमता हूं, वैसे तुम लोग भी आचरण करो॥७८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे काष्ठों में चिना हुआ अग्नि घी से बढ़ता है, वैसे मैं विज्ञान से बढूं वा जैसे ईश्वर की उपासना करनेहारे विद्वान् संसार के कल्याण करने का प्रयत्न करते हैं, वैसे मैं भी यत्न करूं॥७८॥
विषय
विचारक सदस्य के कर्तव्य पक्षान्तर में गुरूपासना और सत्य ज्ञान प्राप्ति ।
भावार्थ
मैं ( घृतेन ) घी के द्वारा जैसे अग्नि में आहुति दी जाती है उसी प्रकार ( मनसा ) मनन पूर्वक, चित्त से ( चित्तिम् ) तत्व जिज्ञासा के लिये चिन्तन या विवेक को ( जुहोमि ) प्राप्त करता हूं अर्थात् निर्णय करना चाहता हूं ( यथा ) जिससे ( इह ) इस विचार-भवन में (वीति होत्रा : ) उज्ज्वल, ज्ञान की आहुति देने वाले ( ऋतावृधः ) सत्य को बढ़ाने हारे ( देवा: ) विद्वान् लोग ( आगमन् ) आयें । ( भूमनः विश्वस्य पत्ये ) बड़े भारी विश्व के स्वामी ( विश्वकर्मणे ) समस्त राष्ट्र के साधु कर्मों के प्रवर्तक राजा के निमित्त मैं ( अदाभ्यं ) अखण्ड, अविनाशी वे चूक, कभी न कटने वाली, दृढ़ ( हविः ) ज्ञान और अन्न को ( विश्वाहा ) सदा दिनों ( जुहोमि ) प्रदान करूं । शत० ९ । २ । ३ । ४२ ॥ प्रत्येक विद्वान् सभासद् का कर्त्तव्य है कि जब विद्वान् सत्यशील लोग एकत्र हों तो मन लगा कर 'चिति' अर्थात् विषय के 'चिन्तन' या विचार में ध्यान दें। और राजा को अखण्डनीय, निश्चित सत्य तत्व का निर्णय प्रदान करे । योगी के पक्ष में - प्रकाशित यज्ञ वाले सत्यवर्धक ( देवाः ) देवगण, प्राण या विद्वान् मुके प्राप्त हों इस रीति से मैं सत्यासत्य विवेचन करूं । और महान् विश्व के स्वामी परमेश्वर के लिये इस ( अदाभ्यं हविः ) अखण्ड, हवि रूप आत्मा को समर्पित करूं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा देवता । विराट् अतिजगती । निषादः ॥
विषय
वीतिहोत्र ऋतावृध्
पदार्थ
१. वसिष्ठ प्रार्थना करता है कि मैं (मनसा) = मननशक्ति के साथ तथा (घृतेन) = शरीर के मलों के क्षरण द्वारा स्वास्थ्य की दीप्ति के साथ (चित्तिम्) = विज्ञान को (जुहोमि) = ग्रहण करता हूँ, अपने अन्दर आहुत करता हूँ, अर्थात् [क] मस्तिष्क को ज्ञान से परिपूर्ण करता हूँ। [ख] मन को मनन से व चिन्तन से युक्त करता हूँ, तथा [ग] शरीर को मलों के क्षरण द्वारा स्वास्थ्य की दीप्तिवाला करता हूँ। २. ऐसा इसलिए करता हूँ (यथा) = जिससे कि (इह) = इस मेरे जीवन में (देवा:) = दिव्य गुण (आगमन्) = आएँ। दिव्य गुणों की वृद्धि हो, जिन दिव्य गुणों के कारण (वीतिहोत्रा) = ' वीतिः सर्वतः प्रकाशिता होत्रा वाग् येषाम्' मैं प्रकाशमय वाणी को प्राप्त करता हूँ तथा (ऋतावृधः) = मुझमें ऋत का वर्धन होता है। ये देव 'वीतिहोत्र व ऋतावृध' हैं। ३. (भूमनो विश्वस्य पत्ये) = इस महान् संसार के पति के लिए (विश्वकर्मणे) = सारे विश्व के निर्माण करनेवाले के लिए (जुहोमि) = मैं अपने को अर्पित करता हूँ। उस प्रभु के प्रति अपने को अर्पित करके मैं और भी अधिक प्रकाशमय व ऋतमय जीवनवाला होता हूँ। ४. मेरे जीवन से (विश्वाहा) = सदा (हविः) = यह दानपूर्वक अदन (अदाभ्यम्) = अहिंसित होता है, अर्थात् मेरी दानपूर्वक अदन की वृत्ति कभी नष्ट नहीं होती। ' त्यक्तेन भुञ्जीथा:' इस उपदेश को मैं भूलता नहीं। अपने पर पूर्ण प्रभुत्व पानेवाला ही ऐसा कर सकता है, अतः यह आत्मवशी व्यक्ति 'वसिष्ठ' कहलाता है, यह इस वशित्व के कारण ही उत्तम निवासवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - १. मैं ज्ञान - मननशक्ति व स्वास्थ्य को धारण करता हूँ। २. मैं अपने जीवन में दिव्य गुणों को अपनाकर प्रकाशमय ज्ञानवाणी को प्राप्त करता हूँ व अपने में ऋत का वर्धन करता हूँ। ३. उस विश्वकर्मा विश्वपति के लिए अपना अर्पण करता हूँ। ४. मेरा जीवन सदा हवि को ग्रहण करनेवाला होता है। मैं केवलादी नहीं बनता ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. समिधेमध्ये असलेला अग्नी जशी तुपाची आहुती दिल्याने वाढतो तसे मी विज्ञानाने उन्नत व्हावे. ईश्वराचे उपासक विद्वान लोक जसे जगाचे कल्याण करण्याचा प्रयत्न करतात तसा मीही करावा.
विषय
पुन्हा तोच विषय –
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक याज्ञिक उपासक म्हणत आहे) हे मनुष्यानो, (यथा) ज्याप्रमाणे मी (मनसा) विशेष ज्ञानाद्वारे आणि (घृतेन) घृताद्वारे (चित्तिम्) संचय करण्याच्या (यज्ञात समिधा आदींचा संजय, स्थापन आदी) क्रिया (जुहोमि) करतो (त्याप्रमाणे तुम्ही करा. योग्य व शास्त्रोक्त पद्धतीने यज्ञ करा) तसेच (इह) या जगात (वीतिहोत्रा:) ज्यांच्याद्वारे केला जाणारा यज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ आहे, असे यज्ञकर्ता (ऋतांवृध:) सत्यमार्ग अनुसरणामुळे उन्नती करतात आणि (देवा:) कामना करणारे विद्वान लोक (भ्रमन:) (विश्वस्य) अनेक रुपात्मक या संसारात (विश्वकर्मणे) सर्वांकरिता योग्य कर्म करणाऱ्या (पल्ये) आणि सर्वांचा स्वामी असणाऱ्या जगदीश्वरासाठी (परमेश्वराप्रमाणेच जगाच्या कल्याणासाठी) (अदाभ्यम्) नष्ट न होणाऱ्या सुखकारक पदार्थांचा (विश्वाहा) सर्वकाळी सदा यज्ञात आहुती देण्यासाठी (आगमन्) येतात आणि मी (एक यज्ञिकदेखील) होम करण्यासाठी असे पदार्थ (जुहोमि) यज्ञात टाकतो. माझ्याप्रमाणे तुम्ही सर्व जणदेखील करीत जा. ॥78॥
भावार्थ
missing
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as an oblation is put with butter, into the fire, filled with fuel, so with a contemplative mind do I acquire discernment so that the learned, who strengthen truth, and are devoted to knowledge, may come here. To God, Lord of the Earth, and Master of all deeds, I offer-up day after day the inviolable sacrifice of knowledge.
Meaning
With concentrated mind and thought I offer homage to Agni with libations in the fire, so that the noblest people, lovers of yajna and promoters of truth, come here (and join in homage for advancement. And in company) every day I offer sacred and intrepid able libations of havi to Vishvakarma, lord maker and sustainer of the great good universe.
Translation
With my mind as purified butter, I offer oblations to the fire of thought, so that the learned ones, lovers of sacrifice and supporters of right, may assemble here. And to the Lord of the vast world, the Universal Architect, I offer the inviolable oblations each and every day. (1)
Notes
Cittim, चिंतनं, thought; fire of thought. Juhomi, offer oblations. Vitihotrā, कामितयज्ञा:, deirous or lovers of sacrifice. Viśvähä, सर्वेषु दिनेषु प्रत्यहं, every day; always. Adabhyam, अनुपहतं, unobstructed; inviolable.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়থা) যেমন আমি (মনসা) বিজ্ঞান অথবা (ঘৃতেন) ঘৃত দ্বারা (চিত্তিম্) যে ক্রিয়া দ্বারা সঞ্চয় করি তাহাকে (জুহোমি) গ্রহণ করি বা যেমন (ইহ) এই জগতে (বীতিহোত্রাঃ) সকল দিক দিয়া প্রকাশমান যাহার যজ্ঞ তিনি (ঋতাবৃধঃ) সত্য দ্বারা বৃদ্ধি লাভ করেন এবং (দেবাঃ) কামনাকারী বিদ্বান্গণ (ভূমনঃ) অনেক রূপ যুক্ত (বিশ্বস্য) সমস্ত সংসারের (বিশ্বকর্ম্মণে) সকলের করণীয় কর্ম্মকে যিনি করিয়াছেন সেই (পত্যে) পালক জগদীশ্বরের জন্য (অদাভ্যম্) নষ্ট না করিবার এবং (হবিঃ) বহন করিবার যোগ্য সুখকারী পদার্থের (বিশ্বাহা) সব দিনে হবন করিবার জন্য (আগমন) আসেন এবং আমি হবন করিবার যোগ্য পদার্থকে (জুহোমি) হবন করি, সেইরূপ তোমরাও আচরণ কর ॥ ৭৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন কাষ্ঠে লাগানো অগ্নি ঘৃত দ্বারা বৃদ্ধি পায় সেইরূপ আমি বিজ্ঞান দ্বারা বৃদ্ধি পাই অথবা যেমন ঈশ্বরের উপাসনাকারী বিদ্বান্ সংসারের কল্যাণ করার প্রচেষ্টা করেন সেইরূপ আমিও প্রযত্ন করি ॥ ৭৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চিত্তিং॑ জুহোমি॒ মন॑সা ঘৃ॒তেন॒ য়থা॑ দে॒বাऽই॒হাগম॑ন্ বী॒তিহো॑ত্রাऽঋতা॒বৃধঃ॑ । পত্যে॒ বিশ্ব॑স্য॒ ভূম॑নো জু॒হোমি॑ বি॒শ্বক॑র্মণে বি॒শ্বাহাদা॑ভ্যꣳ হ॒বিঃ ॥ ৭৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চিত্তিমিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিশ্বকর্মা দেবতা । বিরাডতিজগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal