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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 20
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    108

    किस्वि॒द्वनं॒ कऽउ॒ स वृ॒क्षऽआ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः। मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द् भुव॑नानि धा॒रय॑न्॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम्। स्वि॒त्। वन॑म्। कः। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सः। वृ॒क्षः। आ॒स॒। यतः॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। नि॒ष्ट॒त॒क्षुः। नि॒स्त॒त॒क्षुरिति॑ निःऽतत॒क्षुः। मनी॑षिणः। मन॑सा। पृ॒च्छत॑। इत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। तत्। यत्। अ॒ध्यति॑ष्ठ॒दित्य॑धि॒ऽअति॑ष्ठत्। भुव॑नानि। धा॒रय॑न् ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किँ स्विद्वनङ्कऽउ स वृक्षऽआस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    किम्। स्वित्। वनम्। कः। ऊँऽइत्यूँ। सः। वृक्षः। आस। यतः। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। निष्टतक्षुः। निस्ततक्षुरिति निःऽततक्षुः। मनीषिणः। मनसा। पृच्छत। इत्। ऊँऽइत्यूँ। तत्। यत्। अध्यतिष्ठदित्यधिऽअतिष्ठत्। भुवनानि। धारयन्॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तदेवाह॥

    अन्वयः

    हे मनीषिणः! यूयं मनसा विदुषः प्रति किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आसेति पृच्छत, यतो द्यावापृथिवी को निष्टतक्षुः। यद्यो भुवनानि धारयन्नध्यतिष्ठत् तदिदु ब्रह्म विजानीतेत्युत्तरम्॥२०॥

    पदार्थः

    (किम्) (स्वित्) (वनम्) संभजनीयं कारणवनम् (कः) (उ) वितर्के (सः) परोक्षे (वृक्षः) यो वृश्च्यते छिद्यते स संसारः (आस) अस्ति (यतः) यस्य प्रकृत्याख्यकारणस्य सकाशात् (द्यावापृथिवी) विस्तृतौ सूर्यभूमिलोकौ (निष्टतक्षुः) नितरां ततक्ष, अत्र वचनव्यत्ययः। (मनीषिणः) मनस ईषिणो योगिनः (मनसा) विज्ञानेन (पृच्छत) (इत्) एव (उ) प्रसिद्धौ (तत्) सः (यत्) यः (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठातृत्वेन वर्त्तते (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु ताँल्लोकान् (धारयन्) वायुविद्युत्सूर्यादिना धारणं कारयन्॥२०॥

    भावार्थः

    अत्र पादत्रयेण प्रश्नः पादैकेनोत्तरम्। वृक्षशब्देन कार्यं वनशब्देन कारणं चोच्यते, यथा सर्ववस्तूनि पृथिवी, पृथिवीं सूर्यः, सूर्यं विद्युद्, विद्युतं वायुश्च धरति, तथैवैतान् जगदीश्वरो दधाति॥२०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    प्रश्न-हे (मनीषिणः) मन का निग्रह करने वाले योगीजनो! तुम लोग (मनसा) विज्ञान के साथ विद्वानों के प्रति (किं, स्वित्) क्या (वनम्) सेवने योग्य कारणरूप वन तथा (कः) कौन (उ) वितर्क के साथ (सः) वह (वृक्षः) छिद्यमान अनित्य कार्यरूप संसार (आस) है, ऐसा (पृच्छत) पूछो कि (यतः) जिससे (द्यावापृथिवी) विस्तारयुक्त सूर्य्य और भूमि आदि लोकों को किसने (निष्टतक्षुः) भिन्न-भिन्न बनाया है? उत्तर-(यत्) जो (भुवनानि) प्राणियों के रहने के स्थान लोक-लोकान्तरों को (धारयन्) वायु, विद्युत् और सूर्य्यादि से धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) अधिष्ठाता है, (तत्) (इत्) उसी (उ) प्रसिद्ध ब्रह्म को इस सब का कर्त्ता जानो॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र के तीन पादों से प्रश्न और अन्त्य के एक पाद से उत्तर दिया है। वृक्ष शब्द से कार्य और वन शब्द से कारण का ग्रहण है। जैसे सब पदार्थों को पृथिवी, पृथिवी को सूर्य्य, सूर्य को विद्युत् और बिजुली को वायु धारण करता है, वैसे ही इन सब को ईश्वर धारण करता है॥२०॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    [प्रश्न] (किं स्विद्वनं क उस वृक्ष आस) विद्या का आदिमूल क्या है ? वन और वृक्ष किसको कहते हैं? (उत्तर) (यतः)  जिस सामर्थ्य से विश्वकर्मा ईश्वर ने जैसे तक्षा [बढ़ई] अनेकविध रचना से अनेक पदार्थ रचता है, वैसे ही (द्यावापृथिवी) स्वर्ग [सुखविशेष] और भूमि, मध्य [सुखवाला लोक] तथा नरक [दु:खविशेष] और इन सब लोकों को (निष्ठतक्षुः)  रचा है, उसी सामर्थ्य को वन और कार्य को वृक्ष कहते हैं । हे (मनीषिणः) विद्वानो ! जो (अध्यतिष्ठत् भुवनानि धारयन्) सब भुवनों का धारण करके सब जगत् में और सबके ऊपर विराजमान हो रहा है, (पृच्छत इत् उ) उसके विषय में प्रश्न करो तथा उत्तर द्वारा उसका निश्चय तुम लोग करो। (मनसा) उसी के विज्ञान से जीवों का कल्याण होता है, अन्यथा नहीं ॥ ३६ ॥

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    विषय

    राजा प्रजा की उत्पत्ति की विवेचना ।पक्षान्तर में द्यौ पृथिवी की उत्पत्ति की विवेचना ।

    भावार्थ

    राजा के पक्ष में- ( किं स्वित् वनम् ) जिस प्रकार काठ के नाना पदार्थों को बनाने के लिये लकड़ी आवश्यक होती है और उसको किसी वृक्ष में से काटा जाता है और जंगल से लाया जाता है और दृढ़, उत्तम पदार्थ को बनाने के लिये उत्तम काठ का ही संग्रह किया जाता है। इसी प्रकार गृह, राज्य और समस्त रचनायुक्त कार्यों के लिये पहले मूलद्रव्य की अपेक्षा होती है । उसी के विषय में प्रश्न है कि - ( १ ) ( यतः ) जिसमें से ( द्यावापृथिवी ) द्यौ:=सूर्य और पृथिवी दोनों के समान भोक्ता और भोग्य राजा और प्रजा दोनों को ( निःततक्षुः ) विद्वान् लोग गढ़कर तैयार करते हैं वह ( वनं किं स्वित् ) कौन सा 'वन' है। अर्थात् जैसे किसी वन से काष्ठ लाकर काठ के पदार्थ बनाये जाते हैं ऐसे राजा प्रजाओं को बनाने के लिये किस जगह से मूल द्रव्य लाया जाता है। और ( २ ) ( कः उ सः वृक्ष: आस ) वह वृक्ष कौनसा है ? अर्थात् जिस प्रकार कुर्सी आदि बनाने के लिये किसी वृक्ष को काट कर उसमें से कुर्सी बनाई जाती है उसी प्रकार यह राजा प्रजा युक्त राष्ट्र को किस मूल स्थिर पदार्थ में से गढ़कर निकाला गया है । हे ( मनीषिणः ) मनीषी, मतिमान् विद्वान् पुरुषो ! ( मनसा ) अपने मन से समझ बूझकर तुम भी क्या इसपर कभी ( पृच्छत इत् उ ) प्रश्न या तर्क वितर्क या जिज्ञासा किया करते हो कि ( तत् ) वह महान् बल कौनसा है ( यत् ) जो ( भुवनानि धारयन् ) समस्त उत्पन्न प्राणियों को पालन करता हुआ उनपर ( अधि अतिष्ठत् ) अधिष्ठाता, शासक रूप से विराजता है । वह क्या है ? परमेश्वर पक्ष में - ( किं स्विद् वनं ) वह कौनसा मूलकारण, सबके भजन करने योग्य परम पदार्थ है और ( कः उ सः वृक्षः आस ) वह कौनसा वृक्ष अर्थात् मूल 'स्कम्भ' या तना है ( यतः द्यावापृथिवी ) जिसमें से द्यौ और भूमि, जमीन और आकाश इनको परमेश्वर ने ( निः ततक्षुः ) गढ़ कर निकाला है । हे ( मनीषिणः) ज्ञानशाली, संकल्प विकल्प और ऊहापोह करने में कुशल विवेकी पुरुषो ! आप लोग भी ( तत् ) उस मूलकारण के सम्बन्ध में ( पृच्छत ) प्रश्न , तर्क वितर्क, जिज्ञासा करो ( यत् ) जो ( भुवनानि धारयम् ) समस्त उत्पन्न हुए असंख्य ब्रह्माडों और उत्पन्न लोकों और सूर्यादि पदार्थों को धारण पालन पोषण और स्तम्भन करता हुआ उनपर ( अधि अतिष्ठत् ) अध्यक्ष रूप से शासन कर रहा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिष्टुभः । धैवतः ॥

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    विषय

    वनं-वृक्षः

    पदार्थ

    १. (वनम्) = वे संभजनीय प्रभु (किं स्वित्) = कैसे हैं व कौन हैं? २. (उ) = तथा (सः वृक्षः) = [वृश्च्यते छिद्यते इति वृक्षः] वह छेदनयोग्य यह संसार क्या है ? ३. उत्तर देते हुए कहते हैं कि ये प्रभु वे हैं (यतः) = जिनसे (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (निष्टतक्षुः) = गत मन्त्र में वर्णित पतत्रों [परमाणुओं] से घड़े गये हैं। ४. (मनीषिण:) = हे मन का शासन करनेवाले विद्वानो ! (मनसा पृच्छत इत् उ) = मन से ही उसे जानने की इच्छा करो (तत्) = उसे (यत्) = जो (भुवनानि) = सब लोकों को (धारयन्) = धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) = अधिष्ठातृ रूपेण वर्त्तमान है। ५. 'वे संभजनीय प्रभु कैसे हैं? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि [क] उनसे ये द्युलोक व पृथिवीलोक घड़कर बनाये गये हैं। [ख] वे मन से ही जानने योग्य हैं, इन्द्रियों का विषय नहीं हैं [ग] सब भुवनों का धारण कर रहे हैं। [घ] और सारे ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता हैं। ६. यह संसार क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि [क] यह छेदनीय [वृक्ष] है। दृढ़, असङ्ग [Non attachment] शस्त्र से ही इसका छेदन हो सकता है। [ख] इसका एक सिरा पृथिवी है तो दूसरा सिरा द्युलोक है। दूसरे शब्दों में यह सान्त है। विशाल होते हुए भी इसका अन्त तो है ही। (ग) इस द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में कितने ही भुवन ( लोक-लोकान्तर) हैं, अनगिनत लोकों से बना हुआ यह संसार है। (घ) परमेश्वर से यह अधिष्ठित है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे प्रभु वन-उपास्य हैं, यह संसार वृक्ष छेदनीय है।

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    या मंत्रात तीन पादांमध्ये प्रश्न व शेवटच्या एका पादामध्ये उत्तर दिलेले आहे. वृक्ष शब्दाचा अर्थ कार्य व वन शब्दाचा अर्थ कारण असा आहे. जसे सर्व पदार्थांना पृथ्वी, पृथ्वीला सूर्य, सूर्याला विद्युत व विद्युतला वायू धारण करतो तसे या सर्वांना ईश्वर धारण करतो.

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    विषय

    पुढील मंत्रात, तोच विषय (परमेश्‍वराचे स्वरूप) प्रतिपादित -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (मनीषिण:) मनाचा निग्रह करणाऱ्या योगीजन हो, (अथवा जिज्ञासा असणाऱ्या मनुष्यांनो) तुम्ही (मनसा) ज्ञान प्राप्त करण्याच्या दृष्टीने विद्वज्जनांना विचारा विसी (किं, स्वित्‌) कोण आहे की जो (वनम्‌) (जगाचे) कारणरुप असून सेवनीय वा उपासनीय आहे? (क:) (उ) निश्‍चयपूर्वक सांगा की कोण-----(स:) तो (वृक्ष:) विद्यमान अनित्य कार्यरुप संसार (आस) कसा आहे? (पृच्छत) तसेच तुम्ही जिज्ञासूजनांनी विद्वानाला विचारावे की (यत:) ज्यापासून हा विशाल सूर्य आणि पृथ्वीलोक (विष्टुतक्षु:) उत्पन्न झाले आहे (तो कोण आहे?) मग ते उत्तर देतील की (यत्‌) जो (भुवनानि) प्राण्यांच्या निवासाची ठिकाणे म्हणजे लोक-लोकांतरांना (धारयन्‌) रायू, विद्युत आणि सूर्यादींच्या साहाय्याने धारण करून (अध्यातिष्ठत्‌) सर्वांचा आधार व अधिष्ठाता आहे, (वत्‌) तो (इत्‌) आणि त्याच (उ) प्रख्यात ब्रह्माला या सर्वांचा कर्ता, उत्पत्तिकर्ता जाणा ॥20॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्राच्या चार चरणांपैकी पहिल्या तीन चरणांत प्रश्‍न विचारले असून अंतिम चरणात, त्या प्रश्‍नांचे उत्तर सांगितले आहे. मंत्रातील ‘वृक्ष’ वा शब्दाने कार्य आणि ‘वन’ या शब्दाने कारणाचे सूचित केले आहे. ज्याप्रमाणे पृथ्वी सर्व पदार्थांना धारण करते (सर्वांसाठी आधार आहे) तसेच पृथ्वीला सूर्याचा, सूर्याला विद्युतेचा आणि विद्युतेला वायूचा आधार आहे, त्याप्रमाणे परमेश्‍वर या सर्वांचा धारण करतो म्हणजे तो सर्वाधार आहे. ॥20॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    [प्रश्न] विद्या म्हणजे काय ? बन म्हणजे काय ? [उत्तर] ज्याप्रमाणे सुतार अनेक प्रकारच्या वस्तूंची निर्मिती करतो त्याप्रमाणेच विश्वकर्मा ईश्वराने आपल्या सामर्थ्याने स्वर्ग [सुखविशेष] भूमी [सुखकारक मध्यलोक] य नरक [दुःखविशेष] या सर्व लोकांची निर्मिती केलेली आहे. त्यालाच वन व वृक्ष म्हणतात, (मनीषिणः) हे विद्वानांनो जो सर्व विश्वाला धारण करून त्यात विद्यमान असतो त्याच्याविषयी प्रश्न कोणते व कसे हे तुम्ही ठरवा. (मनसा) त्याच्या विद्याज्ञामुळेच तर जीवाचे कल्याण होते अन्यथा नाही.॥३६॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Let the Yogis with mind under control, intelligently question the learned. What was the adorable cause, what the transitory resultant universe ? Who created separately the heaven and Earth and how ? Know God the Creator of the universe, Who sustaining all regions where human beings dwell, reigns supreme over them.

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    Meaning

    What is that original cause, that lovely tree, from which the lord maker shaped the heaven and earth and the whole dynamic world? Men of intelligence and conscientious mind ask the men of wisdom and vision: Who is that lord who holds and sustains the regions of the world and presides over all these and yet remains the sole lord above the universe?

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    Purport

    Question What is the original cause of true knowledge ! What is Vana-the forest or Jungle and what is called Vrksa-the tree.

    Answer-Just as a carpenter by his skill makes many kinds of things, similarly God-The Great Architect of the universe has created heaven i.e. where happiness abounds supreme, the earth-the middle region-sphere [where happiness and misery both prevail] and the hellthe lowest region which is full of pain and miseries; and Created other planets also. The primordial (existing from the beginning) atomic matter is Vana-forest and the material-cause is the tree.

    O the learned men! The Mighty Lord who creates, supervises and upholds [sustains] the whole universe and reigns supreme, enquire about Him, know Him, realise Him. By knowing Him alone man can attain happiness and prosperity, not otherwise.

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    Translation

    Which was that forestand which was the tree, from which the heaven and the earth were carved out? O thinkers, inquire within your mind, what is the pedestal on which He stands while holding these worlds? (1)

    Notes

    Svit, स्वित् इति वितर्के,, denoting conjecture, doubt or uncertainty. Niştatakṣuḥ, cut out of; fashioned. It u tat, this phrase means एतत् अपि, this also. O thinkers, inquire this also. Yad adhyatişthat, (the pedestal or support) upon which He stands. There is some forest, wherefrom a tree is cut and the furni ture is made with its wood. For fashioning this universe, which was the tree and what was the forest?

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তদেবাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–প্রশ্ন–হে (মনীষিণঃ) মনের নিগ্রহকারী যোগীগণ! তোমরা (মনসা) বিজ্ঞান সহ বিদ্বান্দিগের প্রতি (কিং, স্বিৎ) কী (বনম্) সেবন যোগ্য কারণরূপ বন তথা (কঃ) কে (উ) বিতর্ক সহ (সঃ) সেই (বৃক্ষঃ) ছিদ্যমান অনিত্য কার্য্যরূপ সংসার (আস) আছে এমন (পৃচ্ছত) জিজ্ঞাসা কর যে, (য়তঃ) যদ্দ্বারা (দ্যাবাপৃথিবী) বিস্তারযুক্ত সূর্য্য ও ভূমি আদি লোকসমূহকে কে (নিষ্টতক্ষুঃ) ভিন্ন ভিন্ন নির্মাণ করিয়াছেন? উত্তর–(য়ৎ) যিনি (ভুবনানি) প্রাণিদিগের নিবাস করিবার স্থান লোক-লোকান্তরকে (ধারয়ন্) বায়ু, বিদ্যুৎ এবং সূর্য্যাদি দ্বারা ধারণ করিয়া (অধ্যতিষ্ঠৎ) অধিষ্ঠাতা, (তৎ) (ইৎ) সেই (উ) প্রসিদ্ধ ব্রহ্মকে এই সকলের কর্ত্তা স্বীকার কর ॥ ২০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রের তিন পাদ দ্বারা প্রশ্ন এবংশেষের এক পাদ দ্বারা উত্তর দেওয়া হইয়াছে । বৃক্ষ শব্দ দ্বারা কার্য্য এবং বন শব্দ দ্বারা কারণের গ্রহণ হইয়াছে । যেমন সকল পদার্থকে পৃথিবী, পৃথিবীকে সূর্য্য, সূর্য্যকে বিদ্যুৎ এবং বিদ্যুৎকে বায়ু ধারণ করে, সেইরূপ এই সবকে ঈশ্বর ধারণ করে ॥ ২০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    কিᳬंস্বি॒দ্বনং॒ কऽউ॒ স বৃ॒ক্ষऽআ॑স॒ য়তো॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী নি॑ষ্টত॒ক্ষুঃ ।
    মনী॑ষিণো॒ মন॑সা পৃ॒চ্ছতেদু॒ তদ্যদ॒ধ্যতি॑ষ্ঠ॒দ্ ভুব॑নানি ধা॒রয়॑ন্ ॥ ২০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কিংᳬं স্বিদিত্যস্য ভুবনপুত্রো বিশ্বকর্মা ঋষিঃ । বিশ্বকর্মা দেবতা ।
    স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    प्रश्न–किं स्विद्वनं क उस वृक्ष आस = वन तथा वृक्ष केलाई भन्दछन् ? उत्तर - यतः जुन सामर्थ्य ले विश्वकर्मा ईश्वर ले जसरी सिकर्मी ले अनेक थरिका रचना बाट अनेक प्रकारका सरसामान बनाउँछ, तेसरी नै द्यावापृथिवी = 'स्वर्ग' [सुखविशेष] र भूमि मध्य [सुखमयलोक] तथा नरक [दुःखविशेष] अरू ई सबै लोक हरु लाई निष्ठतक्षुः= रचेको छ, तेसै सामर्थ्य लाई 'वन' र कार्य लाई ‘वृक्ष' भनिन्छ । हे मनीषिणः= विद्वज्जन ! जुन अध्यतिष्ठत् भुवनानि धारयन्=सम्पूर्ण भुवन हरु लाई धारण गरेर सबै जगत् र सबै माथि विराजमान भइ रहेको छ। पृच्छत इत उ = तेसका विषयमा प्रश्न गर तथा उत्तर द्वारा तिमीहरु तेसको निश्चय गर । मनसा = उसैको विज्ञान बाट समस्त जीव को कल्याण हुन्छ अन्यथा हुँदैन |॥ ३६॥ 

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