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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 39
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    143

    अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑। दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाड॑यु॒ध्योऽअ॒स्माक॒ꣳ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। गो॒त्राणि॑। सह॑सा। गाह॑मानः। अ॒द॒यः। वी॒रः। श॒तम॑न्यु॒रिति॑ श॒तऽम॑न्युः। इन्द्रः॑। दु॒श्च्य॒व॒न इति॑ दुःऽच्यव॒नः। पृ॒त॒ना॒ऽषाट्। अ॒यु॒ध्यः᳕। अ॒स्माक॑म्। सेनाः॑। अ॒व॒तु॒। प्र। यु॒त्स्विति॑ यु॒त्सु ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि गोत्राणि सहसा गाहमानो दयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः । दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्यो स्माकँ सेना अवतु प्र युत्सु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। गोत्राणि। सहसा। गाहमानः। अदयः। वीरः। शतमन्युरिति शतऽमन्युः। इन्द्रः। दुश्च्यवन इति दुःऽच्यवनः। पृतनाऽषाट्। अयुध्यः। अस्माकम्। सेनाः। अवतु। प्र। युत्स्विति युत्सु॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसः! यो युत्सु सहसा गोत्राणि प्रगाहमानोऽदयः शतमन्युर्दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्यो वीरोऽस्माकं सेना अभ्यवतु, स इन्द्रः सेनापतिर्भवत्वित्याज्ञापयत॥३९॥

    पदार्थः

    (अभि) सर्वतः (गोत्राणि) शत्रुकुलानि (सहसा) बलेन (गाहमानः) विलोडनं कुर्वन् (अदयः) अविद्यमाना दया करुणा यस्य सः (वीरः) शत्रूणां दरिता (शतमन्युः) शतधा मन्युः क्रोधो यस्य सः (इन्द्रः) सेनेशः (दुश्च्यवनः) शत्रुभिर्दुःखेन च्योतुं योग्यः (पृतनाषाट्) यः पृतनां सहते (अयुध्यः) शत्रुभिर्योद्धुमयोग्यः (अस्माकम्) (सेनाः) (अवतु) रक्षतु (प्र) प्रयत्नेन (युत्सु) मिश्रितामिश्रतकरणेषु युद्धेषु॥३९॥

    भावार्थः

    धार्मिकेषु करुणाकरः दुष्टेषु निर्दयः सर्वाभिरक्षको नरो भवेत्, स एव सेनापालनेऽधिकर्त्तव्यः॥३९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो! जो (युत्सु) जिनसे अनेक पदार्थों का मेल अमेल करें, उन युद्धों में (सहसा) बल से (गोत्राणि) शत्रुओं के कुलों को (प्र, गाहमानः) अच्छे यत्न से गाहता हुआ (अदयः) निर्दय (शतमन्युः) जिसको सैकड़ों प्रकार का क्रोध विद्यमान है, (दुश्च्यवनः) जो दुःख से शत्रुओं के गिराने योग्य (पृतनाषाट्) शत्रु की सेना को सहता है, (अयुध्यः) और जो शत्रुओं के युद्ध करने योग्य नहीं है, (वीरः) तथा शत्रुओं की विदीर्ण करता है, वह (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं को (अभि, अवतु) सब ओर से पाले और (इन्द्रः) सेनाधिपति हो, ऐसी आज्ञा तुम देओ॥३९॥

    भावार्थ

    जो धार्मिक जनों में करुणा करने वाला, दुष्टों में दयारहित और सब ओर से सब की रक्षा करने वाला मनुष्य हो, वही सेना के पालने में अधिकारी करने योग्य है॥३९॥

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    विषय

    दूसरों के बल का ज्ञान करके शत्रु पर आक्रमण का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( सहसा ) अपने शत्रुपराजयकारी बल से ( गोत्राणि ) शत्रुओं के कुलों पर ( अभि गाहमानः ) आक्रमण करता हुआ, ( अदय ) दया रहित, ( वीरः ) शूरवीर ( शतमन्युः ) अनेक प्रकार के कोप करने में समर्थ ( दुश्च्यवनः ) शत्रु से विचलित न होने वाला, ( पृतनाषाड् ) शत्रु सेनाओं को विजय करने में समर्थ, ( अयुध्य: ) युद्ध में शत्रुओं से अजेय, ( इन्द्रः ) इन्द, सेनापति ( युत्सु ) संग्रामों में और योद्धाओं के बीच में ( अस्माकं सेना प्र अवतु ) हमारी सेनाओं की उत्तम रीति से रक्षा करे ।

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    विषय

    शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = अपनी शक्ति से, अर्थात् अपने पुरुषार्थ से (अभिगाहमान:) = सर्वतः अवगाहन करता हुआ, अर्थात् सुपथों से कमाता हुआ (अदयः) = [देङ् रक्षणे] उनको अपने पास रखनेवाला नहीं होता। कमाता है पर जोड़ता नहीं, उन धनों को दे डालता है। अपने पुरुषार्थ से इतना कमाता है कि धन में लोटता है [rolls in wealth] पर अनासक्ति के कारण उनका दान कर देता है। यह इन्द्र धन को अपने पास न रखकर ही इन्द्र बना रहता है। यह अपनी शक्ति को खोता नहीं, धनासक्ति व्यक्ति को क्षीण-शक्ति कर देती है, 'कुबेर' बना देती है, कुत्सित शरीरवाला । २. (वीरः) = यह दानवीर इन्द्र धन के दान के कारण सचमुच वीर शक्तिशाली बना रहता है। ३. (शतमन्युः) = अपने धनों से वह शतशः यज्ञों का करनेवाला होता है। ३. (दुश्च्यवनः) = इसे यज्ञमार्ग से कोई भी बात गिरा नहीं पाती। वस्तुतः धन का लोभ ही इस यज्ञिय मार्ग से विचलित कर सकता था। उसे छोड़कर यह दृढ़ता से यज्ञिय मार्ग पर चल रहा है। ४. (पृतनाषाट्) = इस यज्ञ-मार्ग पर चलते हुए यह काम-क्रोध आदि को संग्राम में पराभूत करनेवाला होता है [पृतनां संग्रामं सहते] ५. (अयुध्यः) = काम-क्रोधादि इसके प्रतियोद्धा नहीं बन पाते । [नास्ति युध्यः अस्य] ६. यह अयुध्य इन्द्र (अस्माकम्) = हमारी दिव्य गुणों की (सेना:) = सेनाओं को (प्रयुत्सु) = इन प्रकृष्ट आध्यात्मिक संग्रामों में (अवतु) = सुरक्षित करे। काम-क्रोधादि का पराजय होकर, प्रेम व मित्रता का विकास हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम धनों का अवगाहन करें, परन्तु उनमें ही आसक्त न हो जाएँ। हममें दिव्य गुणों का विकास हो। लोभ ही दिव्य गुणरूप पुरुषों के लिए तुहिनरूप होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो धार्मिक लोकांशी दयाळूपणाने व दुष्टांशी निर्दयपणे वागतो अशा प्रकारे सर्व तऱ्हेने सर्वांचे रक्षण करणाऱ्या माणसाला सेनाधिकारी बनविणे योग्य होय.

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    विषय

    पुढील मंत्रातही तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वज्जनहो, जो मनुष्य (युत्सु) ज्या युद्धामधे सर्व पदार्थांचा संघर्ष होतो, (विध्वंस होतो) अशा भीषण युद्धांमधे (सहसा) आपल्या सामर्थ्याने (गोत्राणि) शत्रुकुळांना (प्र गाहमान:) कठोर प्रयत्नांद्वारे नेस्तनाबूत करतो, जो (अदय:) शत्रूंप्रती निर्दयी असून ज्यास (रातमन्यु:) शेकडो रीतीने क्रोध प्रकट करता येतो, (अनेकांवर योग्य त्या रीतीने दहशत बसवता येते) जो (दुश्‍च्यवन:) शत्रूंचा पूर्ण नि:पात करण्यात समर्थ आहे आणि पृतनाषाट्) शत्रूचा कसल्याही आक्रमणाला तोंड देऊ शकतो. तसेच (अयुध्य:) ज्याच्याशी युद्ध करतात शत्रू देखील कचरतात आणि जो (वीर:) शत्रूंना ध्वस्त करतो, अशा गुणांनी समृद्ध तो वीर परुष (अस्माकम्‌) आमच्या (सेना:) सैन्यांचे (अभिभवतु) सर्वदृष्ट्या पालन वा रक्षण करो. पुरुष (इन्द्र:) सेनाध्यक्ष व्हायला हवा आमच्या सेनेचा सेनापती व्हावा, असा आदेश तुम्ही विद्वानांनी द्यावा (तुम्ही विद्वज्जनांनी उपयुक्त गुणांनी युक्तवीराला सेनापती म्हणून निवडावे) ॥39॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो पुरुष धार्मिकजनांवर दया करणारा आणि दुष्टांचा निर्दयपणे निर्दालन करणारा तसेच सर्वांचे रक्षण करण्यास समर्थ असेल, त्यावीर पुरुषालाच सैन्याचा प्रमुख अधिकारी म्हणून नेमावे. ॥39॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the commander of the army, who, with surpassing vigour pierces in the battles the families of the enemies, is pitiless, wild with anger, unconquerable by foes, conqueror of the enemys forces, unequalled in fight, and victor, protect our armies.

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    Meaning

    Indra, valiant commander, relentless warrior of a hundred fold righteous ardour, penetrating deep into enemy defences with his strength of armour, irresistible, invincible, victor of enemy forces, may direct and defend our army and lead it to victory.

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    Translation

    May the resplendent one (army-chief), crushing the enemy clans with tremendous force, pitiless, valiant, quick to take offence, difficult to dislodge, vanquisher of armies, the matchless hero, protect our armies in battles. (1)

    Notes

    Gotrāņi, clans (of enemies). Abhi gāhamānaḥ, पीडयन्, crushing. Sahasã, with tremendous force. Prtanāsāt, पृतनाः सेनाः ताः सहते अभिभवति यः सः, he who vanquishes armies. Pra yutsu, युद्धेषु, in the battles. Ayudhyaḥ, योद्धुं अशक्य:, who cannot be fought against; a matchless hero.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্গণ! (য়ুৎসু) যাহার দ্বারা বহু পদার্থের মিশ্রণ অমিশ্রণ করে সেই সব যুদ্ধে (সহসা) বল দ্বারা (গোত্রাণি) শত্রুদিগের কুলকে (প্র, গাহমানঃ) উত্তম প্রযত্ন পূর্বক আলোড়িত করিয়া (অদয়ঃ) নির্দয়, (শতমন্যুঃ) যাহার শত প্রকার ক্রোধ বিদ্যমান (দুশ্চ্যবনঃ) যে দুঃখ দ্বারা শত্রুদেরকে পাতিত করিবার যোগ্য (পৃতনাঘাট্) শত্রুর সেনাকে সহ্য করে (অয়ুধ্যঃ) এবং যে শত্রুদের সহিত যুদ্ধ করিবার যোগ্য নহে (বীরঃ) তথা শত্রুদিগকে বিদীর্ণ করে সে (অস্মাকম্) আমাদের (সেনাঃ) সৈন্যদিগকে (অভি, অবতু) সব দিক দিয়া পালন করিবে এবং (ইন্দ্রঃ) সেনাধিপতি হয়–এই রকম আজ্ঞা তুমি প্রদান কর ॥ ৩ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে ধার্মিকদিগের মধ্যে করুণা সঞ্চারকারী এবং দুষ্টদিগের মধ্যে দয়ারহিত সব দিক দিয়া সকলের রক্ষাকারী মনুষ্য হয়, সেই সেনা পালনে অধিকারী হওয়ার যোগ্য ॥ ৩ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ভি গো॒ত্রাণি॒ সহ॑সা॒ গাহ॑মানোऽদ॒য়ো বী॒রঃ শ॒তম॑ন্যু॒রিন্দ্রঃ॑ ।
    দু॒শ্চ্য॒ব॒নঃ পৃ॑তনা॒ষাড॑য়ু॒ধ্যো᳕ऽঅ॒স্মাক॒ꣳ সেনা॑ অবতু॒ প্র য়ু॒ৎসু ॥ ৩ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অভিগোত্রাণীত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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