यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 25
ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः
देवता - विश्वकर्मा देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
136
चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑नेऽअजन॒न्नम्न॑माने। य॒देदन्ता॒ऽअद॑दृहन्त॒ पूर्व॒ऽआदिद् द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॑प्रथेताम्॥२५॥
स्वर सहित पद पाठचक्षु॑षः। पि॒ता। मन॑सा। हि। धीरः॑। घृ॒तम्। ए॒न॒ऽइत्ये॑ने। अ॒ज॒न॒त्। नम्न॑माने॒ऽइति॒ नम्न॑माने। य॒दा। इत्। अन्ताः॑। अद॑दृहन्त। पूर्वें॑। आत्। इत्। द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒प्र॒थे॒ता॒म् ॥२५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमेनेऽअजनन्नम्नमाने । यदेदन्ताऽअददृहन्त पूर्वऽआदिद्द्यावापृथिवीऽअप्रथेताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
चक्षुषः। पिता। मनसा। हि। धीरः। घृतम्। एनऽइत्येने। अजनत्। नम्नमानेऽइति नम्नमाने। यदा। इत्। अन्ताः। अददृहन्त। पूर्वें। आत्। इत्। द्यावापृथिवी। अप्रथेताम्॥२५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे प्रजाजनाः! भवन्तो यश्चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमजनत्, तमधिकृत्य एने नम्नमाने पूर्वे द्यावापृथिवी अप्रथेतामिव यदेदन्ता इवाददृहन्त, तथाऽऽदित् स्थिरराज्या भवेयुः॥२५॥
पदार्थः
(चक्षुषः) न्यायदर्शकस्य (पिता) पालकः (मनसा) योगाभ्यासेन शान्तान्तःकरणेन (हि) खलु (धीरः) धैर्य्यवान् (घृतम्) आज्यम् (एने) राजप्रजादले (अजनत्) प्रकटयेत् (नम्नमाने) ये नम्न इवाचरतस्ते। अत्राचारे क्विप् व्यत्ययेनात्मनेपदम् (यदा) (इत्) एव (अन्ताः) अन्तावयवाः (अददृहन्त) वर्द्धेरन्। अत्र दृंह धातोर्लटि झादेशे कृते शपः श्लुस्ततो द्वित्वम् (पूर्वे) प्रथमतो वर्त्तमाने (आत्) अनन्तरम् (इत्) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी इव संगते (अप्रथेताम्) प्रख्याते भवेताम्॥२५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्या राजप्रजाव्यवहार एकसम्मतयो भूत्वा सदैव प्रयतेरंस्तदा सूर्यपृथिवीवत् स्थिरसुखा भवेयुः॥२५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे प्रजा के पुरुषो! आप लोग जो (चक्षुषः) न्याय दिखाने वाले उपदेशक का (पिता) रक्षक (मनसा) योगाभ्यास से शान्त अन्तःकरण (हि) ही से (धीरः) धीरजवान् (घृतम्) घी को (अजनत्) प्रकट करता है, उसको अधिकार देके (एने) राजा और प्रजा के दल (नम्नमाने) नम्न के तुल्य आचरण करते हुए (पूर्वे) पहिले से वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी के समान मिले हुए जैसे (अप्रथेताम्) प्रख्यात होवे, वैसे (इत्) ही (यदा) जब (अन्ताः) अन्त्य के अवयवों के तुल्य (अददृहन्त) वृद्धि को प्राप्त हों, तब (आत्) उसके पश्चात् (इत्) ही स्थिरराज्य वाले होओ॥२५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राज और प्रजा के व्यवहार में एकसम्मति होकर सदा प्रयत्न करें, तभी सूर्य और पृथिवी के तुल्य स्थिर सुख वाले होवें॥२५॥
विषय
विद्वान राजा का रजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों का शासन करना । पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन और पक्षान्तर में विद्वान् को स्त्री पुरुष को सम्बन्धित करना ।
भावार्थ
राजा के पक्ष में - ( यदा इत् ) जब ही ( पूर्वे ) पूर्व के विद्वान् लोग ( अन्ता ) सीमा भागों को ( अदृहन्त ) विस्तृत करके स्थिर कर लेते हैं। ( आत् इत् ) उसके बाद ही ( द्यावापृथिवी ) सूर्य पृथिवी के समान एक दूसरे के उपकारक राजा और प्रजा भी दोनों ( अप्रथेताम् ) विस्तार को प्राप्त होते हैं । और ( चक्षुषः पिता ) सब प्रजा पर निरीक्षण करने वाले राजा का ( पिता ) पालक, विद्वान् पुरोहित ही ( धीरः ) बुद्धिमान् होकर ( मनसा ) अपने ज्ञान से ( घृतम् ) तेज और ज्ञान-बल को (अजनत् ) उत्पन्न या प्रकट करता है और ( एने ) इन दोनों को ( नम्नमाने ) एक दूसरे के प्रति आदर से झुकने वाले विनयशील बनाता है। विद्वान् लोग ही राजा प्रजा को परस्पर मिलाते हैं और दोनों को एक दूसरे के प्रति विनीत बनाते और वे ही राज्य की सीमाओं को और व्यवस्थाओं को बनाते हैं । ईश्वर के पक्ष में -- ( यदा इत् ) जबही ( अन्ता ) सीमाएं अर्थात् प्रकृति के विरल परमाणु ( अददृहन्त ) कुछ घनी भूत होकर दृढ़ हो गये तो ( आत् इत् ) तभी ( द्यावापृथिवी अप्रथेताम् ) आकाश और भूमि दोनों पृथक् २ हो गये। बीच का अवकाश प्रकट हो गया । ( धीरः ) जगत् को धारण करने हारे ( मनसा ) अपने मन, संपल्प के बल से ही (नम्नमाने एने ) एक दूसरे के प्रति झुकने वाले इन दोनों के प्रति ( घृतम् अजनत् ) जल को प्रकट किया अर्थात् पृथ्वी से जल ही ऊपर को सूक्ष्म होकर उठता है । सूर्य से किरण पृथिवी पर पड़ती हैं । पुनः भूमि उत्तम होती है। फिर जल ही आकाश से नीचे आता है अर्थात् दोनों को परस्पर सम्बन्ध विधायक जल ही है । स्त्री पुरुष के पक्ष में- जब विद्वान् लोग दोनों स्त्री पुरुषों के ( अन्ता ) विवाह द्वारा अंचरे बांध देते हैं तभी वे ( द्यावापृथिवी अप्रथेतानम् ) नरनारी सूर्य और पृथिवी के से सम्बन्ध से मिले दीखते हैं। पुरुष सूर्य के समान तेजस्वी, तेज रूप वीर्य का प्रक्षेपक होता है और पृथिवी स्त्री बीज को भीतर धारण करने हारी होती है । तब ( चक्षुषः पिता ) आंख का पालक, स्नेहमय चक्षु का पालक, प्राण ( एने नम्नमाने प्रति ) इनको एक दूसरे के प्रति झुकते हुए या परस्पर संगत होते हुए इनके बीच में ( घृतम् ) स्नेह या 'तेज', वीर्य को ( अजनत् ) उत्पन्न कर देता है ।
विषय
अन्तों की दृढ़ता
पदार्थ
१. गत मन्त्र का 'उग्र और विहव्य' व्यक्ति (चक्षुषः पिता) = चक्षु आदि इन्द्रियों का पालक बनता है। यह इन्द्रियों को विषयों में भटकने से रोकता है। २. (मनसा हि धीरः) = मन से यह अत्यन्त धैर्यवाला होता है [धैर्यवान् - द०] । ३. इसकी (घृतम्) = तेजस्विता व ज्ञान-दीप्ति (एने) = इसके पृथिवी व द्युलोक को-शरीर व मस्तिष्क को (नम्नमाने) = नम्रतावाला (अजनत्) = करते हैं। इसके शरीर में तेजस्विता के कारण अकड़ नहीं होती, अर्थात् इसके अङ्ग लोच - लचकवाले होते हैं और इसका मस्तिष्क ज्ञान के कारण अकड़ व घमण्ड से रहित होता है। ४. (यदा इत्) = ज्योंही (पूर्वे) = शरीर में प्रथमस्थान में स्थित, अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण (अन्तः) = अन्त- प्रदेश, आशा-स्थान अददृहन्त दृढ़ हो जाते हैं (आत् इत्) = त्योंही (द्यावापृथिवी अप्रथेताम्) = मस्तिष्क व शरीर दोनों ही विस्तृत शक्तियोंवाले हो जाते हैं । ५. यहाँ ' अन्तः ' शब्द जिन अन्त- प्रदेशों व आशा-स्थानों [आशा-दिशा] का उल्लेख करता है उनका वर्णन अथर्व १ । ३१ । २ । में इस प्रकार हुआ है ('य आशानामाशापालाश्चत्वारः स्थन देवाः । ते नो निर्ऋत्याः पाशेभ्यो मुञ्चतांहसो अंहसः।') = अर्थात् हे देवो! जो तुम दिशाओं के चार दिशा - पालक हो वे तुम हम सबको अवनति के पाशों से तथा हरेक पाप से छुड़ाओ। यहाँ पूर्वद्वार 'मुख' है और इसके सम्मुख पश्चिम द्वार 'गुदा' है। इन दोनों का अभिप्राय यह है कि मुख से कोई भी अपथ्य भोजन व अतिमात्र भोजन प्रवेश न कर सके तथा गुदा से प्रत्येक मलांश का बहिष्करण होता रहे। इसी प्रकार उत्तर द्वार 'विदृति' = ब्रह्मरन्ध्र है और इसके ठीक सुदूर नीचे की ओर दक्षिण द्वार 'शिश्न' है। शिश्न के दृढ़ होने का अभिप्राय यह है कि यह मूत्र का ही त्याग करनेवाला हो, रेतस् का रक्षक हो। ऐसा होने पर ही 'विदृति' द्वार हमारे लिए प्रकाशमय होकर हमारे बन्धन से मोक्ष का कारण बनेगा। ६. इन अन्तों का दृढ़ीकरण आवश्यक है। इनके दृढ़ीकरण के बिना शरीर स्वस्थ नहीं हो पाता और मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि बुझी रह जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम शरीर में चारों अन्तों को दृढ़ करके तेजस्वी व ज्ञान- दीप्त बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा राजा व प्रजा यांच्या व्यवहारात एकवाक्यता असते व प्रयत्नशीलता असते तेव्हा सूर्य व पृथ्वीप्रमाणे त्यांना स्थिर सुख प्राप्त होते हे माणसांनी जाणावे.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक विद्वान प्रजाजनांना उद्देशून सांगत आहे) हे प्रजाजन हो, तुम्ही (चक्षुष:) तुम्हाला न्याय्य मार्ग दाखविणाऱ्या, (पिता) तुमचे पालन करणाऱ्या आणि (मनसा) योगाभ्यासाद्वारे अंत:करण शुद्ध केलेल्या (धीर:) धैर्यवान (पुरुषाला आपला राजा वा सभाध्यक्ष नेमा) आणि ज्याप्रमाणे (घृतम्) (दह्यातून) तूप (अजनत्) निघते, प्रकट होते, (त्याप्रमाणे त्या धीर-वीर मनुष्याला (राजा निवडून त्यास सर्व अधिकार द्या. अशा प्रकारे (ऐन) राजा आणि प्रजाजन (नम्नमाने) विनम्र वा सहकारी होऊन (पूर्वे) पूर्वी झालेल्या (सजा व प्रजाजनांप्रमाणे) आणि (द्यावापृथिवी) जसे प्रकाश (आकाश) आणि पृथ्वी आपसात मिसळलेले वा संबद्ध आहेत, त्याप्रमाणे तुम्ही दोघेही (अप्रथेताम्) प्रसिद्ध व्हा. (राजा व प्रजा यांनी एकमेकाशी सहकार्य करावे) (हत्) आणि (यदा) जेंव्हा-जेव्हां दोघे (अन्ता:) शरीराच्या अवयवांप्रमाणे (वागतील), तेव्हा ते (अददृहन्त) वृद्धीस वा प्रगतीस प्राप्त होतील. आणि (आत्) त्यानंतरच दोघे (इत्) निश्चयाने स्थिर राज्याचा उपभोग करतात. (तुम्ही प्रजाजनदेखील राजाशी असेच सहकार्याने वागा म्हणजे राज्य स्थिर व स्थायी राहील ॥25॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जेव्हां (राष्ट्राचे नागरिक) राजा आणि प्रजाजन एकमेकाशी सहकार्य करीत, एकमत होऊन आचरण करतील, तेव्हाच ते राज्य (वा राष्ट्र) सूर्य आणि पृथ्वीप्रमाणे स्थिर (स्थायी आणि सुखदायक होईल (सूर्य आणि पृथ्वी एकमेकाशी सहकार्य करतात, तद्वत तुम्ही करा) ॥25॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ye people, when you elect as your ruler the man, who is the guardian of the lovers of justice ; has a patient mind peaceful through austerity, grants us dainties, and makes the officials and the subjects respect each other, and live together like the ancient far extended Heaven and Earth, and make progress working unitedly like feet the lowest portions of the body, then alone is the government stabilised.
Meaning
When the ruler, Vishvakarma, is of calm and resolute mind, loves and protects men of vision and justice, and promotes the creation of food and wealth, and when the people bow to him in obedience and act in unison like parts of one organism, then only the people and the government strengthen each other and grow like the earth and heaven of yore together.
Translation
The protector of vision and stabilizer of mind created these two (heaven and earth), submerged in water. Then first He fastened their ends firmly and later on heaven and earth were extended. (1)
Notes
Cakṣuşah pitā, protector of vision. चक्षुरदींद्रियाणां पालक: विश्वकर्मा, Viśvakarmā, protector of sense-organs, such as eyes etc. Manasă dhiraḥ, calm in mind; or stabilizer of mind. Ene, g, these two, (heaven and earth). water. Ghṛtam namnamāne, घृते उदके नममाने, submerged in Ajanat,रचितवान् , created. Antā, अंतान्, the ends. Adadṛhanta, made fast; fastened firmly. Purve, ancient. ,पूर्वं, प्रथमं first; first of all. Aprathetām,पृथू अभूताम् , were extended. The commenta tors have interpreted it as following: When the ancient seers, Vasiştha etc. fastened the ends of the earth and heaven, then Viśvakarmā created water for these two worlds.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে প্রজাপুরুষগণ! আপনারা যে (চক্ষুষঃ) ন্যায় প্রদর্শনকারী উপদেশকের (পিতা) রক্ষক (মনসা) যোগাভ্যাস দ্বারা শান্ত অন্তঃ করণ (হি) ই দ্বারা (ধীরঃ) ধৈর্য্যবান্ (ঘৃতম্) ঘৃতকে (অজনৎ) প্রকট করেন তাহাকে অধিকার দিয়া (এনে) রাজা ও প্রজার দল (নম্নমানে) নম্নতুল্য আচরণ করিয়া (পূর্বে) প্রথম হইতে বর্ত্তমান (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশ ও পৃথিবীর সমান মিশ্রিত হওয়ার ন্যায় (অপ্রথেতাম্) বিখ্যাত হউন সেইরূপ (ইৎ) ই (য়দা) যখন (অন্তরঃ) অন্ত্যের অবয়ব তুল্য (অদদৃহন্ত) বৃদ্ধিকে প্রাপ্ত হইবে তখন (আৎ) তাহার পশ্চাৎ (ইৎ) ই স্থিররাজ্যযুক্ত হউন ॥ ২৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যখন মনুষ্য রাজা ও প্রজার ব্যবহারে একমত হইয়া সর্বদা প্রযত্ন করিবে তখনই সূর্য্য ও পৃথিবী তুল্য স্থির সুখ যুক্ত হইবে ॥ ২৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চক্ষু॑ষঃ পি॒তা মন॑সা॒ হি ধীরো॑ ঘৃ॒তমে॑নেऽঅজন॒ন্নম্ন॑মানে ।
য়॒দেদন্তা॒ऽঅদ॑দৃহন্ত॒ পূর্ব॒ऽআদিদ্ দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽঅ॑প্রথেতাম্ ॥ ২৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চক্ষুষ ইত্যস্য ভুবনপুত্রো বিশ্বকর্মা ঋষিঃ । বিশ্বকর্মা দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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