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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 34
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सं॒क्रन्द॑नेनानिमि॒षेण॑ जि॒ष्णुना॑ युत्का॒रेण॑ दुश्च्यव॒नेन धृ॒ष्णुना॑। तदिन्द्रे॑ण जयत॒ तत्स॑हध्वं॒ युधो॑ नर॒ इषु॑हस्तेन॒ वृष्णा॑॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं॒क्रन्द॑ने॒नेति॑ स॒म्ऽक्रन्द॑नेन। अ॒निमि॒षेणेत्य॑निऽमि॒षेण॑। जि॒ष्णुना॑। यु॒त्का॒रेणेति॑ युत्ऽका॒रेण॑। दु॒श्च्य॒व॒नेनेति॑ दुःऽच्यव॒नेन॑। धृ॒ष्णुना॑। तत्। इन्द्रे॑ण। ज॒य॒त॒। तत्। स॒ह॒ध्व॒म्। युधः॑। नरः॑। इषु॑हस्ते॒नेतीषु॑ऽहस्तेन। वृष्णा॑ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना । तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वँयुधो नरऽइषुहस्तेन वृष्णा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संक्रन्दनेनेति सम्ऽक्रन्दनेन। अनिमिषेणेत्यनिऽमिषेण। जिष्णुना। युत्कारेणेति युत्ऽकारेण। दुश्च्यवनेनेति दुःऽच्यवनेन। धृष्णुना। तत्। इन्द्रेण। जयत। तत्। सहध्वम्। युधः। नरः। इषुहस्तेनेतीषुऽहस्तेन। वृष्णा॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे युधो नरः! यूयमनिमिषेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना युत्कारेण वृष्णेषुहस्तेन संक्रन्दनेन जिष्णुना तत्तेनेन्द्रेण सह वर्त्तमानाः सन्तः शत्रून् जयत, तच्छत्रुसैन्यवेगं सहध्वम्॥३४॥

    पदार्थः

    (संक्रन्दनेन) सम्यग् दुष्टानां रोदयित्रा (अनिमिषेण) निरन्तरं प्रयतमानेन (जिष्णुना) जयशीलेन (युत्कारेण) यो व्यूहैर्युतो मिश्रितानमिश्रितान् भृत्यान् करोति तेन (दुश्च्यवनेन) यः शत्रुभिर्दुःखेन कृच्छेण च्यवते तेन (धृष्णुना) दृढोत्साहेन (तत्) तेन पूर्वोक्तेन (इन्द्रेण) परमैश्वर्य्यकारकेण (जयत) (तत्) शत्रुसैन्यं युद्धजन्यं दुःखं वा (सहध्वम्) (युधः) ये युध्यन्ते ते (नरः) नायकाः (इषुहस्तेन) इषवः शस्त्राणि हस्तयोर्यस्य तेन (वृष्णा) वीर्यवता॥३४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यूयं युद्धविद्याकुशलं सर्वशुभलक्षणान्वितं बलपराक्रमाढ्यं जनं सेनाधिष्ठातारं कृत्वा तेन सहाधार्मिकान् शत्रून् जित्वा निष्कण्टकं चक्रवर्त्तिराज्यं संभुङ्ग्ध्वम्॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (युधः) युद्ध करनेहारे (नरः) मनुष्यो! तुम (अनिमिषेण) निरन्तर प्रयत्न करते हुए (दुश्च्यवनेन) शत्रुओं को कष्ट प्राप्त कराने वाले (धृष्णुना) दृढ़ उत्साही (युत्कारेण) विविध प्रकार की रचनाओं से योद्धाओं को मिलाने और न मिलानेहारे (वृष्णा) बलवान् (इषुहस्तेन) बाण आदि शस्त्रों को हाथ में रखने (संक्रन्दनेन) और दुष्टों को अत्यन्त रुलानेहारे (जिष्णुना) जयशील शत्रुओं को जीतने और वा (इन्द्रेण) परम ऐश्वर्य करनेहारे (तत्) उस पूर्वोक्त सेनापति आदि के साथ वर्त्तमान हुए शत्रुओं को (जयत) जीतो और (तत्) उस शत्रु की सेना के वेग वा युद्ध से हुए दुःख को (सहध्वम्) सहो॥३४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग युद्धविद्या में कुशल, सर्वशुभलक्षण और बलपराक्रमयुक्त मनुष्य को सेनापति करके उसके साथ अधार्मिक शत्रुओं को जीत के निष्कंटक चक्रवर्त्ति राज्य भोगो॥३४॥

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    विषय

    सैनिकों का सेनापति के सहयोग में विजय का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( युधः नरः ) योद्धा नायक वीर पुरुषो ! तुम लोग ( संक्रन्दनेन ) दुष्ट शत्रुओं को रुलाने वाले या उनको ललकारने वाले ( अनिमिषेण ) निरन्तर सावधान, न चूकने वाले ( जिष्णुना ) सदा जयशील, ( युत्कारेण ) युद्ध करने वाले अतिवीर ( दुश्च्यवनेत ) शत्रुओं से कभी पराजित न होने वाले मैदान छोड़ कर कभी न भागने वाले दृढ़,( धृष्णुना ) शत्रुओं का मानभङ्ग करने में समर्थ, ( इषुहस्तेन ) बाणों को अपने हाथ में लेने वाले अथवा बाणों से मारने वाले, ( वृष्णा ) बलवान्, ( इन्द्रेण ) शत्रु-गढों को तोड़ने वाले, 'इन्द्र' नाम मुख्य सेनापति के साथ ( तत् जयत ) उस लक्ष्य भूत युद्ध का विजय करो ( तत् ) उस दूरस्थ शत्रुगण को ( सहध्वम् ) पराजित करो ।

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    विषय

    युधः-नरः

    पदार्थ

    १. वासनाओं को जीतना अत्यन्त कठिन है। इनके साथ युद्ध करनेवाला मनुष्य सचमुच 'युधः ' है। यह निरन्तर आगे बढ़ने के कारण 'नरः' है। यह अपने को एक आदर्श उपासक बनाने का प्रयत्न करता है और इस 'उपासक आत्मा' से वासनाओं का पराभव करता है। कैसी आत्मा से ? २. (संक्रन्दनेन) = सदा प्रभु का आह्वान करनेवाली आत्मा से प्रभु के नामोच्चरण से यह अपने में शक्ति भरता है और वासनाओं को भयभीत करता है । ३. (अनिमिषेण) = कभी भी पलक न मारनेवाली, अर्थात् सदा सावधान रहनेवाली आत्मा से । प्रमाद मनुष्य को वासनाओं का शिकार बना देता है। ४. (जिष्णुना) = विजयशील आत्मा से । वस्तुतः प्रभु का आह्वान करनेवाली अप्रमत्त आत्मा कभी हार ही नहीं सकती। ५. (युत्कारेण) = युद्ध करनेवाली आत्मा से यह वासनाओं के साथ संग्राम को कभी निरुत्साह होकर छोड़ नहीं देता। ६. (दुश्च्यवनेन) = युद्ध के निश्चय से विचलित न की जानेवाली आत्मा से । अवान्तर पराजयों से भी यह युद्ध को समाप्त नहीं कर देता [Loses battles, but wins the war.] यह अन्त में अवश्य विजयी होता है। ७. (धृष्णुना) = दुश्च्यवन होने से ही धर्षण करनेवाली आत्मा से यह युद्ध में लगा ही रहता है और अन्त में शत्रुओं को कुचल डालता है। ८. (इषुहस्तेन) = प्रेरणा को हाथ में लेनेवाली आत्मा से, अर्थात् प्रभु की प्रेरणा के अनुसार कार्य करनेवाला यह बनता है । ९. वृष्णा शक्तिशाली आत्मा से प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलनेवाला अपने में शक्ति का अनुभव करता ही है। १०. हे (युधः नरः) = युद्ध करनेवाले और आगे बढ़नेवाले वीरो ! (तदिन्द्रेण) = [स चासौ इन्द्र] ऐसी आत्मा से (जयत) = तुम विजयी बनो। और (तत्) = उस वासना समूह को (सहध्वम्) = पराभूत कर डालो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपनी आत्मा को 'संक्रन्दन- अनिमिष-जिष्णु-युत्कार- दुश्च्यवन- धृष्णु- इषुहस्त व वृषण' बनाएँगे तो इस आत्मा से शत्रुओं को अवश्य पराभूत करेंगे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! युद्धविद्येमध्ये कुशल, सर्व शुभ लक्षणांनी युक्त आणि बल पराक्रमयुक्त माणसाला सेनापती करा व अधार्मिक लोकांना किंवा शत्रूंना जिंकून निष्कंटक चक्रवर्ती राज्य भोगा.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय (सेनापतीची कर्तव्ये)

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (युध:) युद्धक्षेत्रात पराक्रम करणाऱ्या (नर:) हे मनुष्यांनो (हे सैनिकहो), तुम्ही (अनिमिषेण) निरंतर यत्न करणाऱ्या, (दुश्‍च्यवनेन) शत्रूंना अतिशय पीडा देणाऱ्या आणि (घृष्णुना) उत्साही, धैर्यशाली (अशा सेनापतीसह शत्रूंवर विजय मिळवा) तो सेनापती (दुत्कारेण) सैन्याची विविध रचना, (व्यूह, चक्रव्यूह आदी) करण्यात, अथवा सैन्याची विविध स्थानांवर नेमणूक करण्यात निष्णात आहे (कृष्णा) अशा बलवान (इषुहस्तेम) हातात बाण आदी शस्त्र धारण करणाऱ्या, (संकृन्दनेन) दुष्टांना वा शत्रूंना रडविणाऱ्या आणि (जिष्णुना) बलवान शत्रूंवर देखील विजय मिळविणाऱ्या (इन्द्रेण) परम ऐश्‍वर्यशाली (तत्‌) त्या पूर्वीवर्णन केलेल्या सेनापती आदींसह शत्रूंवर (जयत) विजय मिळवा (त्याच्या कुशल नेतृत्व व मार्गदर्शनाप्रमाणे युद्ध करा) आणि (तत्‌) शत्रूकडून होणाऱ्या त्या आक्रमणाचा वा दु:खाचा (सहध्वम्‌) प्रतिरोध करा (आक्रमण थोपवा वा दु:ख दूर करा) ॥34॥

    भावार्थ

    भावार्थ- हे मनुष्यानो, (सैनिकहो) तुम्ही युद्धकलेत प्रवीण, शुभ लक्षणी, बलवान, पराक्रमी पुरुषाला आपला सेनापती करा आणि त्याच्या साहाय्याने अधार्मिक शत्रूंना पराजित करून निष्कंटक चक्रवर्ती राज्याचा उपभोग घ्या ॥34॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ye warriors, win the opposing forces, and bear the brunt of their speed with the commander, who makes the enemies weep, is ever exerting, is fond of victory, arranges his soldiers in different divisions, puts the enemies to inconvenience, is steady, energetic, and strong, with arms in hand.

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    Meaning

    Ye men of war, challenge, engage and defeat that enemy force and be victorious with that commander, Indra, bold and daring, alert and watchful, thirsting for victory, master of tactical deployment and engagement of forces, in formidable, fully armed and overwhelming the enemy with a rain of arrows/bullets/missiles.

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    Translation

    With him, the army-chief, who makes the enemies weep, who is ever-watchful, victorious, spoiling for battle, unconquerable, fearless and strong, and who bears missiles in his hand, O soldiers, may you gain victories and win battles. (1)

    Notes

    Jiṣṇunā, जयनशीलेन, with him who is always victori ous Yutkārena, युधं करोति यः, तेन, with him who is always ready for battle. Duścyavanena, दु:खेन च्यावयितुं शक्यः, तेन, with one who can be displaced from his position with great difficulty. Dhṛṣṇunā, भीतिरहितेन, with the intrepid. Vrsna, वर्षति इति वृषा , तेन, with one who showers (the benefits). Also, full of manly vigour.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (য়ুধঃ) যুদ্ধকারী (নরঃ) মনুষ্যগণ! তোমরা (অনিমিষেণ) নিরন্তর প্রযত্ন করিয়া (দুশ্চ্যবনেন) শত্রুদিগকে কষ্ট প্রদানকারী (ধৃষ্ণুনা) দৃঢ় উৎসাহী (য়ুৎকারেণ) বিবিধ প্রকারের রচনাগুলি সহ যোদ্ধাদেরকে মিলনকারী এবং না মিলানকারী (বৃষ্ণা) বলবান্ (ইষুহস্তেন) বাণাদি শস্ত্রকে হস্তে ধারণকারী (সংক্রন্দনেন) এবং দুষ্টদিগকে অত্যন্ত রোদনকারী (জিষ্ণুনা) জয়শীল শত্রুদিগকে জয় কর এবং অথবা (ইন্দ্রেন) পরম ঐশ্বর্য্যকারী (তৎ) সেই পূর্বোক্ত সেনাপতি আদি সহ বর্ত্তমান শত্রুদিগকে (জয়ত) জয় কর এবং (তৎ) সেই শত্রুর সৈন্যবেগ বা যুদ্ধ হইতে উদ্ভুত দুঃখকে (সহধবম্) সহন কর ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যুদ্ধ বিদ্যায় কুশল সর্ব গুণ-লক্ষণ ও বল পরাক্রমযুক্ত মনুষ্যকে সেনাপতি করিয়া তৎসহ অধার্মিক শত্রুদিগকে জিতিয়া নিষ্কণ্টক চক্রবর্ত্তী রাজ্য ভোগ কর ॥ ৩৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সং॒ক্রন্দ॑নেনানিমি॒ষেণ॑ জি॒ষ্ণুনা॑ য়ুৎকা॒রেণ॑ দুশ্চ্যব॒নেন॑ ধৃ॒ষ্ণুনা॑ ।
    তদিন্দ্রে॑ণ জয়ত॒ তৎস॑হধ্বং॒ য়ুধো॑ নর॒ ইষু॑হস্তেন॒ বৃষ্ণা॑ ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সংক্রন্দনেনেত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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