यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 65
ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
126
क्रम॑ध्वम॒ग्निना॒ नाक॒मुख्य॒ꣳ हस्ते॑षु॒ बिभ्र॑तः। दि॒वस्पृ॒ष्ठ स्व॑र्ग॒त्वा मि॒श्रा दे॒वेभि॑राध्वम्॥६५॥
स्वर सहित पद पाठक्रमध्वम्। अ॒ग्निना॑। नाक॑म्। उख्य॑म्। हस्ते॑षु। बिभ्र॑तः। दि॒वः। पृ॒ष्ठम्। स्वः॑। ग॒त्वा। मि॒श्राः। दे॒वेभिः॑। आ॒ध्व॒म् ॥६५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यँ हस्तेषु बिभ्रतः । दिवस्पृष्ठँ स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
क्रमध्वम्। अग्निना। नाकम्। उख्यम्। हस्तेषु। बिभ्रतः। दिवः। पृष्ठम्। स्वः। गत्वा। मिश्राः। देवेभिः। आध्वम्॥६५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे वीराः! यूयमग्निना नाकमुख्यं च हस्तेषु बिभ्रतो धरन्तः क्रमध्वम्, देवेभिर्मिश्राः सन्तो दिवस्पृष्ठं स्वर्गत्वाध्वम्॥६५॥
पदार्थः
(क्रमध्वम्) पराक्रमं कुरुत (अग्निना) विद्युता (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (उख्यम्) उखायां संस्कृतं भक्ष्यमोदनादिकम्। अत्र शूलोखाद्यत्॥ (अष्टा॰४.२.१६) अनेन संस्कृतं भक्षा इत्यर्थे यत् (हस्तेषु) (बिभ्रतः) धरन्तः (दिवः) न्यायविनयादिप्रकाशजातस्य (पृष्ठम्) ज्ञीप्सितम् (स्वः) सुखम् (गत्वा) प्राप्य (मिश्राः) मिलिताः (देवेभिः) विद्वद्भिः (आध्वम्) उपविशत॥६५॥
भावार्थः
राजपुरुषा विद्वद्भिः सह संप्रयोगेणाग्नेयास्त्रादिना शत्रुषु पराक्रमन्तां स्थिरं सुखं प्राप्य पुनः पुनः प्रयतेरन्॥६५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे वीरो! तुम (अग्निना) बिजुली से (नाकम्) अत्यन्त सुख और (उख्यम्) पात्र में पकाये हुए चावल, दाल, तर्कारी आदि भोजन को (हस्तेषु) हाथों में (बिभ्रतः) धारण किये हुए (क्रमध्वम्) पराक्रम करो। (देवेभिः) विद्वानों से (मिश्राः) मिले हुए (दिवः) न्याय और विनय आदि गुणों के प्रकाश से उत्पन्न हुए दिव्य (पृष्ठम्) चाहे हुए (स्वः) सुख को (गत्वा) प्राप्त होकर (आध्वम्) स्थित होओ॥६५॥
भावार्थ
राजपुरुष विद्वानों के साथ सम्बन्ध कर आग्नेय आदि अस्त्रों आदि से शत्रुओं में पराक्रम करें तथा स्थिर सुख को पाकर बारम्बार अच्छा यत्न करें॥६५॥
विषय
सूर्य और नायक की तुलना ।
भावार्थ
हे वीर पुरुषो ! तुम लोग (अग्निना) अपने अग्रणी तेजस्वी, ज्ञानवान् नेता राजा और आचार्य के साथ ( नाकम् ) सुखप्रद, ( उख्यम् ) उस उखा नाम पृथ्वी के हितकारी भोग्य राष्ट्र सुख को ( हस्तेषु ) अपने शत्रु को हनन करने वाले शस्त्रास्त्रों के बल पर ( विभ्रतः ) धारण करते हुए ( क्रमध्वम् ) आगे बढो। (दिवः पृष्ठं ) न्याय, विद्या आदि से प्रकाशित सूर्य के समान तेजस्वी ( पृष्ठ ) पालन करने वाले ( स्वः ) सुखमय राज्य को ( गत्वा ) प्राप्तकरके( देवेभिः ) विद्वान् विजयी पुरुषों के साथ ( मिश्राः ) मिलकर ( आध्वम् ) विराजो | शत ९।२।३।२४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । विराडार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
मुक्ति में स्थिति
पदार्थ
१. (अग्निना) = यज्ञ की अग्नि से, अर्थात् अग्निहोत्र की अग्नि के द्वारा (नाकं क्रमध्वम्) = स्वर्ग का आरोहण करनेवाले बनो। यह यज्ञाग्नी तुम्हारे जीवन को स्वर्ग का जीवन बनाये। यह तुम्हारे सब इष्ट- कामों का दोहन करता हुआ तुम्हें सुखी करे। २. (उख्यम्) = उखा से=स्थाली से संस्कृत किये हुए अन्न को (हस्तेषु बिभ्रतः) = हाथों में धारण करते हुए, अर्थात् यह अन्न तुम्हारे हाथों की कमाई से प्राप्त किया गया हो। ३. (दिवः पृष्ठम्) = ज्ञान के पृष्ठ पर, अर्थात् सदा ज्ञानारूढ़ हुए हुए (स्वर्गत्वा) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करके (देवेभिः) = दिव्य गुणों से मिलकर (आध्वम्) = ठहरो । अथवा (देवेभिः) = ब्रह्म में ही रमनेवाले, परमात्मा के साथ विचरनेवाले मुक्तात्माओं के साथ (मिश्रा:) = मिलकर (आध्वम्) = ब्रह्म में स्थित होओ। ४. एवं प्रस्तुत मन्त्र में मुक्ति का निम्नक्रम प्रदर्शित हुआ है। [क] हम यहाँ यज्ञमय जीवन बनाकर स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करें। [ख] अपने हाथों से कमाकर संस्कृत अन्नों का सेवन करनेवाले बनें [ पहले यज्ञ, पीछे खाना] यह क्रम भी महत्त्वपूर्ण है। [ग] ज्ञान के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करना। [घ] इस प्रकार उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति के समीप पहुँचना । [ङ] और उस ब्रह्म से ही अन्य मुक्तात्माओं के साथ मिलकर आसीन होना । जीवन्मुक्त पुरुष यहाँ भी प्रभु-निष्ठ होते हुए परस्पर प्रेम से मिलकर ज्ञान - चर्चाएँ करते हैं। ऐसी ही ज्ञान चर्चाओं के परिणामरूप 'उपनिषद्' आदि ग्रन्थ बनें।
भावार्थ
भावार्थ - १. यज्ञाग्नि हमारे जीवनों को नीरोग व सुखी बनाये । २. हम पुरुषार्थ से अन्नों का अर्जन करें। ३. ज्ञानप्रधान जीवन बिताएँ । ४. उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति के समीप उपस्थित हों । ५. देवों से मिलकर उस प्रभु में स्थित हुए हुए ज्ञानचर्चाएँ करें।
मराठी (2)
भावार्थ
राजपुरुषांनी विद्वानांबरोबर विचारविनिमय करून आग्नेय अस्त्रे इत्यादींनी शत्रूंसमोर पराक्रम गाजवावा व स्थिर सुख प्राप्त करुन वारंवार चांगले प्रयत्न करावे.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (सेनापती सैनिकास) हे माझ्या वीरांनो, तुम्ही (अग्निना) विद्युतशक्तीद्वारे (नाकम्) सुख आणि (योग्य व आवश्यक उपयोग अवश्य घ्या) आणि (उख्यम्) ऊखळात कुटले वा पात्रात शिजविलेले भात, भाजी, कढी आदी पदार्थांचे पौष्टिक भोजन (हस्तेषु) आपल्या हातात (विभ्रत:) धारण करून (क्रमध्वम्) युद्धक्षेत्रात पराक्रम गाजवा (सैनिकांनी युद्धक्षेत्रात जेवण, स्नान आदी दैनंदिन कार्यक्रम प्राप्त प्रसंगाप्रमाणे पूर्ण करून घेतले पाहिजेत) कधी उभे राहूनच अथवा धावतच जेवण करावे लागते, तर करावे) तसेच हे सैनिकहो, तुम्ही (देवेभि:) विद्वानांकडून (मिश्रा:) प्राप्त होणारे मार्गदर्शन (दिव:) न्याय्य व उचित रीतीने पाळावे आणि अशाप्रकारे (पृष्ठम्) तुम्हाला इच्छित असलेले (स्व:) सुख (मत्वा) प्राप्त करून तुम्ही (आध्वम्) इथे स्थित व्हा. ॥65॥
भावार्थ
भावार्थ - राजपुरुषांनी (राजा, सैन्याधिकारी कर्मचारी) या सर्वांनी विद्वज्जनांशी (अभियांत्रिकजन, वैज्ञानिक, तंत्रज्ञ, आदी लोकांशी) संपर्क ठेवून आग्नेय आदी अस्त्रांद्वारे शत्रूंचा पराभव करावा आणि त्याद्वारे स्थायी सुख-समाधान मिळविण्याचे प्रयत्न वारंवार करावेत. ॥65॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ye heroes, with spiritual force in your hand, attain to happiness through the science of electricity. Having procured the desired happiness resulting from justice and humility, live in the company of tit learned.
Meaning
By virtue of Agni, lord of knowledge, light and energy, act and rise to the heights of joy, holding the gifts of yajna in your hands. In the company of the noblest people, favoured by the generous powers of nature, reach the heavens of bliss and establish yourselves in the regions of light.
Translation
Guided by the adorable Lord, may you proceed to sorrowless world carrying the spiritual fire in your hands. Having reached the world of bliss on the top of heaven, may you stay and mix with the divinities. (1)
Notes
Kramadhvam, proceed to; move on to. Nākam, to the sorrowless world; heaven. Ukhyam,अग्निं , sacrificial fire. Ādhvam, उपविशत, take your seats; stay.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বীরগণ! তোমরা (অগ্নিনা) বিদ্যুৎ দ্বারা (নাকম্) অত্যন্ত সুখ এবং (উখ্যম্) পাত্রে রন্ধিত ভাত, ডাইল তরকারী আদি ভোজনকে (হস্তেষু) হাতে (বিভ্রতঃ) ধারণ করিয়া (ক্রমধবম্) পরাক্রম কর । (দেবেভিঃ) বিদ্বান্দিগের হইতে (মিশ্রাঃ) প্রাপ্ত (দিবঃ) ন্যায় ও বিনয়াদি গুণগুলির প্রকাশ দ্বারা উৎপন্ন দিব্য (পৃষ্ঠম্) আকাঙ্ক্ষিত (স্বঃ) সুখকে (গত্বা) প্রাপ্ত হইয়া (আধবম্) স্থিত হও ॥ ৬৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– রাজপুরুষ বিদ্বান্দিগের সহিত সম্বন্ধ করিয়া আগ্নেয়াদি অস্ত্র দ্বারা শত্রুদিগের মধ্যে পরাক্রম করিবে তথা স্থির সুখ প্রাপ্ত হইয়া বারবার উত্তম প্রযত্ন করিবে ॥ ৬৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ক্রম॑ধ্বম॒গ্নিনা॒ নাক॒মুখ্য॒ꣳ হস্তে॑ষু॒ বিভ্র॑তঃ ।
দি॒বস্পৃ॒ষ্ঠᳬं স্ব॑র্গ॒ত্বা মি॒শ্রা দে॒বেভি॑রাধ্বম্ ॥ ৬৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ক্রমধ্বমিত্যস্য বিধৃতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal