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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 72
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्मा॑न् पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्याः सी॑द। भा॒सान्तरि॑क्ष॒मापृ॑ण॒ ज्योति॑षा॒ दिव॒मुत्त॑भान॒ तेज॑सा॒ दिश॒ऽउद्दृ॑ꣳह॥७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒प॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॒निति॑ ग॒रुत्मा॑न्। पृ॒ष्ठे। पृ॒थि॒व्याः। सी॒द॒। भा॒सा। अ॒न्तरि॑क्षम्। आ। पृ॒ण॒। ज्योति॑षा। दिव॑म्। उत्। स्त॒भा॒न॒। तेज॑सा। दिशः॑। उत्। दृ॒ꣳह॒ ॥७२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णासि गरुन्मान्पृष्ठे पृथिव्याः सीद । भासान्तरिक्षमापृण ज्योतिषा दिवमुत्तभान तेजसा दिशऽउद्दृँह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुपर्णः। असि। गरुत्मानिति गरुत्मान्। पृष्ठे। पृथिव्याः। सीद। भासा। अन्तरिक्षम्। आ। पृण। ज्योतिषा। दिवम्। उत्। स्तभान। तेजसा। दिशः। उत्। दृꣳह॥७२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 72
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् योगीजन! आप (भासा) प्रकाश से (सुपर्णः) अच्छे-अच्छे पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त और (गरुत्मान्) बड़े मन तथा आत्मा के बल से युक्त (असि) हैं, अतिप्रकाशमान आकाश में वर्त्तमान सूर्यमण्डल के तुल्य (पृथिव्याः) पृथिवी के (पृष्ठे) ऊपर (सीद) स्थिर हो, वा वायु के तुल्य प्रजा को (आ, पृण) सुख दे, वा जैसे सूर्य (ज्योतिषा) अपने प्रकाश से (दिवम्) प्रकाशमय (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को वैसे तू राजनीति के प्रकाश से राज्य को (उत्, स्तभान) उन्नति पहुँचा, वा जैसे आग अपने (तेजसा) अतितीक्ष्ण तेज से (दिशः) दिशाओं को वैसे अपने तीक्ष्ण तेज से प्रजाजनों को (उद्, दृंह) उन्नति दे॥७२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राग=प्रीति और द्वेष=वैर से रहित परोपकारी होकर, ईश्वर के समान सब प्राणियों के साथ वर्ते, तब सब सिद्धि को प्राप्त होवे॥७२॥

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