यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 39
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
4
अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑। दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाड॑यु॒ध्योऽअ॒स्माक॒ꣳ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु॥३९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि। गो॒त्राणि॑। सह॑सा। गाह॑मानः। अ॒द॒यः। वी॒रः। श॒तम॑न्यु॒रिति॑ श॒तऽम॑न्युः। इन्द्रः॑। दु॒श्च्य॒व॒न इति॑ दुःऽच्यव॒नः। पृ॒त॒ना॒ऽषाट्। अ॒यु॒ध्यः᳕। अ॒स्माक॑म्। सेनाः॑। अ॒व॒तु॒। प्र। यु॒त्स्विति॑ यु॒त्सु ॥३९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि गोत्राणि सहसा गाहमानो दयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः । दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्यो स्माकँ सेना अवतु प्र युत्सु ॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि। गोत्राणि। सहसा। गाहमानः। अदयः। वीरः। शतमन्युरिति शतऽमन्युः। इन्द्रः। दुश्च्यवन इति दुःऽच्यवनः। पृतनाऽषाट्। अयुध्यः। अस्माकम्। सेनाः। अवतु। प्र। युत्स्विति युत्सु॥३९॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वानो! जो (युत्सु) जिनसे अनेक पदार्थों का मेल अमेल करें, उन युद्धों में (सहसा) बल से (गोत्राणि) शत्रुओं के कुलों को (प्र, गाहमानः) अच्छे यत्न से गाहता हुआ (अदयः) निर्दय (शतमन्युः) जिसको सैकड़ों प्रकार का क्रोध विद्यमान है, (दुश्च्यवनः) जो दुःख से शत्रुओं के गिराने योग्य (पृतनाषाट्) शत्रु की सेना को सहता है, (अयुध्यः) और जो शत्रुओं के युद्ध करने योग्य नहीं है, (वीरः) तथा शत्रुओं की विदीर्ण करता है, वह (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं को (अभि, अवतु) सब ओर से पाले और (इन्द्रः) सेनाधिपति हो, ऐसी आज्ञा तुम देओ॥३९॥
भावार्थ - जो धार्मिक जनों में करुणा करने वाला, दुष्टों में दयारहित और सब ओर से सब की रक्षा करने वाला मनुष्य हो, वही सेना के पालने में अधिकारी करने योग्य है॥३९॥
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