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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    को॑ऽसि कत॒मोऽसि॒ कस्मै॑ त्वा॒ काय॑ त्वा। सुश्लो॑क॒ सुम॑ङ्गल॒ सत्य॑राजन्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। अ॒सि॒। क॒त॒मः। अ॒सि॒। कस्मै॑। त्वा॒। काय॑। त्वा॒। सुश्लो॒केति॒ सुऽश्लो॑क। सुम॑ङ्ग॒लेति॒ सुऽम॑ङ्गल। सत्य॑राज॒न्निति॒ सत्य॑ऽराजन् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कोसि कतमोसि कस्मै त्वा काय त्वा । सुश्लोक सुमङ्गल सत्यराजन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। असि। कतमः। असि। कस्मै। त्वा। काय। त्वा। सुश्लोकेति सुऽश्लोक। सुमङ्गलेति सुऽमङ्गल। सत्यराजन्निति सत्यऽराजन्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 4
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    अन्वयः - हे सुश्लोक सुमङ्गल सत्यराजन्! यस्त्वं कोऽसि कतमोऽसि तस्मात् कस्मै त्वा काय त्वाऽहमभिषिञ्चामि॥४॥

    पदार्थः -
    (कः) सुखस्वरूपः (असि) (कतमः) अतिशयेन सुखकारी (असि) (कस्मै) सुखस्वरूप परमेश्वराय (त्वा) त्वाम् (काय) को ब्रह्म देवता यस्य वेदमन्त्रस्य तस्मै (त्वा) (सुश्लोक) शुभकीर्ते सत्यवाक् (सुमङ्गल) प्रशस्तमङ्गलाऽनुष्ठातः (सत्यराजन्) सत्यप्रकाशक॥४॥

    भावार्थः - अत्र पूर्वमन्त्रादभिषिञ्चामीत्यभिसम्बध्यते। यः सर्वेषां मनुष्याणां मध्येऽतिप्रशंसनीयो भवेत्, स सभेशत्वमर्हेत्॥४॥

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