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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 62
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पा॒तं नो॑ऽअश्विना॒ दिवा॑ पा॒हि नक्त॑ꣳ सरस्वति।दैव्या॑ होतारा भिषजा पा॒तमिन्द्र॒ꣳ सचा॑ सु॒ते॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒तम्। नः॒। अ॒श्वि॒ना॒। दिवा॑। पा॒हि। नक्त॑म्। स॒र॒स्व॒ति॒। दैव्या॑। हो॒ता॒रा॒। भि॒ष॒जा॒। पा॒तम्। इन्द्र॑म्। सचा॑। सु॒ते ॥६२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पातन्नोऽअश्विना दिवा पाहि नक्तँ सरस्वति । दैव्या होतारा भिषजा पातामिन्द्रँ सचा सुते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पातम्। नः। अश्विना। दिवा। पाहि। नक्तम्। सरस्वति। दैव्या। होतारा। भिषजा। पातम्। इन्द्रम्। सचा। सुते॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 62
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    अन्वयः - हे दैव्याऽश्विना युवां दिवा नक्तं नः पातम्। हे सरस्वति नः पाहि। हे होतारा सचा भिषजा सुत इन्द्र पातम्॥६२॥

    पदार्थः -
    (पातम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (दिवा) दिवसे (पाहि) रक्ष (नक्तम्) रात्रौ (सरस्वति) बहुविद्यायुक्त मातः (दैव्या) दिव्यगुणसम्पन्नौ (होतारा) सर्वस्य सुखदातारौ (भिषजा) वैद्यौ (पातम्) रक्षतम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यप्रदं सोमरसम् (सचा) समवेतौ (सुते) उत्पन्नेऽस्मिञ्जगति॥६२॥

    भावार्थः - यथा सद्वैद्या रोगनिवारकान्यौषधानि जानन्ति तथाऽध्यापकोपदेशकौ मातापितरौ चाऽविद्यारोगनिवारकानुपायाञ्जानन्तु॥६२॥

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