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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    समि॑द्धो अग्न आहुत॒ स नो॒ माभ्यप॑क्रमीः। अत्रै॒व दी॑दिहि॒ द्यवि॒ ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्ने॒ । आ॒ऽहु॒त॒: । स: । न॒: । मा । अ॒भि॒ऽअप॑क्रमी: । अत्र॑ । ए॒व । दी॒दि॒हि॒ । द्यवि॑ । ज्योक् । च॒ । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥२.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धो अग्न आहुत स नो माभ्यपक्रमीः। अत्रैव दीदिहि द्यवि ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइध्द: । अग्ने । आऽहुत: । स: । न: । मा । अभिऽअपक्रमी: । अत्र । एव । दीदिहि । द्यवि । ज्योक् । च । सूर्यम् । दृशे ॥२.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष !] (सः) सो तू (समिद्धः) यथावत् प्रकाशित और (आहुतः) आहुति दिया गया [भक्ति किया गया] होकर (नः) हमें (मा अभ्यपक्रमीः) छोड़कर मत जा, (अत्र एव) यहाँ ही [इस जन्म में] (द्यवि) प्रत्येक व्यवहार में [वर्तमान] (सूर्यम्) सूर्य [सब के चलानेवाले परमेश्वर] के (दृशे) देखने के लिये (ज्योक्) बहुत काल तक (च) निश्चय करके (दीदिहि) प्रकाशमान हो ॥१८॥

    भावार्थ - मनुष्य को उचित है कि परमात्मा के ज्ञानपूर्वक विद्या शूरता आदि गुणों से तेजस्वी होकर कीर्ति प्राप्त करे ॥१८॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद आ चुका है−अ० १।६।३ ॥

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