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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 49
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    अ॑होरा॒त्रे अन्वे॑षि॒ बिभ्र॑त्क्षे॒म्यस्तिष्ठ॑न्प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑। अना॑तुरान्त्सु॒मन॑सस्तल्प॒ बिभ्र॒ज्ज्योगे॒व नः॒ पुरु॑षगन्धिरेधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । अनु॑ । ए॒षि॒ । बिभ्र॑त् । क्षे॒म्य: । तिष्ठ॑न् । प्र॒ऽतर॑ण: । सु॒ऽवीर॑: । अना॑तुरान् । सु॒ऽमन॑स: । त॒ल्प॒ । बिभ्र॑त् । ज्योक् । ए॒व । न॒: । पुरु॑षऽगन्धि: ।‍ ए॒धि॒ ॥२.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहोरात्रे अन्वेषि बिभ्रत्क्षेम्यस्तिष्ठन्प्रतरणः सुवीरः। अनातुरान्त्सुमनसस्तल्प बिभ्रज्ज्योगेव नः पुरुषगन्धिरेधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहोरात्रे इति । अनु । एषि । बिभ्रत् । क्षेम्य: । तिष्ठन् । प्रऽतरण: । सुऽवीर: । अनातुरान् । सुऽमनस: । तल्प । बिभ्रत् । ज्योक् । एव । न: । पुरुषऽगन्धि: ।‍ एधि ॥२.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 49

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] तू (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (क्षेम्यः तिष्ठन्) सकुशल ठहरता हुआ, (प्रतरणः) बढ़ाता हुआ और (सुवीरः) महावीर होकर (अहोरात्रे) दिन-राति (अनु) निरन्तर (एषि) चलता है। (तल्प) हे सहारा देनेवाले [ईश्वर !] (नः) हमको (ज्योक्) बहुत काल तक (एव) निश्चय कर के (अनातुरान्) नीरोग और (सुमनसः) प्रसन्नचित्त (बिभ्रत्) रखता हुआ तू (पुरुषगन्धिः) पुरुषों को शोभा देनेवाला (एधि) हो ॥४९॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर को सर्वसुखदाता जान कर प्रयत्न करें कि वे सदा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त रह कर मनुष्यों के बीच शोभा बढ़ावें ॥४९॥

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