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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    सूक्त - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    परं॑ मृत्यो॒ अनु॒ परे॑हि॒ पन्थां॒ यस्त॑ ए॒ष इत॑रो देव॒याना॑त्। चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते॑ ब्रवीमी॒हेमे वी॒रा ब॒हवो॑ भवन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पर॑म् । मृ॒त्यो॒ इति॑ । अनु॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । पन्था॑म् । य: । ते॒ । ए॒ष: । इत॑र: । दे॒व॒ऽयाना॑त् । चक्षु॑ष्मते । शृ॒ण्व॒ते । ते॒ । ब्र॒वी॒मि॒ । इ॒ह । इ॒मे । वी॒रा: । ब॒हव॑: । भ॒व॒न्तु॒ ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परं मृत्यो अनु परेहि पन्थां यस्त एष इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमीहेमे वीरा बहवो भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परम् । मृत्यो इति । अनु । परा । इहि । पन्थाम् । य: । ते । एष: । इतर: । देवऽयानात् । चक्षुष्मते । शृण्वते । ते । ब्रवीमि । इह । इमे । वीरा: । बहव: । भवन्तु ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    (मृत्यो) हे मृत्यु ! [मृत्युरूप दुर्बलेन्द्रिय पुरुष] (यः) जो (ते) तेरा (एषः) यह (देवयानात्) विद्वानों के मार्ग से (इतरः) भिन्न [बुरा मार्ग है, उस बुरे मार्ग से] (परम्) उत्तम (पन्थाम् अनु) मार्ग पर (परा इहि) पराक्रम से चल। (चक्षुष्मते) उत्तम नेत्रवाले (शृण्वते) सुनते हुए (ते) तेरे लिये (ब्रवीमि) मैं उपदेश करता हूँ, (इह) यहाँ (इमे) यह सब (वीराः) वीर लोग (बहवः) बहुत से (भवन्तु) होवें ॥२१॥

    भावार्थ - जो दुर्बलेन्द्रिय आत्मघाती कुमार्गी पुरुष हैं, वे आँखों और कानों को खोलकर उपदेश सुनें और दुराचारों को छोड़ कर विद्वानों के समान वीरों की संख्या बढ़ावें ॥२१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१८।१। तथा यजु० ३५।७ ॥

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