अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिपदैकावसाना भुरिगार्ची गायत्री
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अग्ने॑ अक्रव्या॒न्निः क्र॒व्यादं॑ नु॒दा दे॑व॒यज॑नं वह ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । अ॒क्र॒व्य॒ऽअ॒त् । नि: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नु॒द॒ । आ । दे॒व॒ऽयज॑नम् । व॒ह॒ ॥२.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने अक्रव्यान्निः क्रव्यादं नुदा देवयजनं वह ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । अक्रव्यऽअत् । नि: । क्रव्यऽअदम् । नुद । आ । देवऽयजनम् । वह ॥२.४२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 42
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक ! [शान्तस्वभाव] (अग्ने) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष !] (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [दोष] को (निः नुद) बाहर ढकेल दे, और (देवयजनम्) विद्वानों के सत्कारयोग्य व्यवहार को (आ वह) यहाँ ला ॥४२॥
भावार्थ - विद्वान् लोग दुष्ट व्यवहारों को छोड़ कर वैदिक व्यवहारों का प्रचार करें ॥४२॥
टिप्पणी -
४२−(अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् विद्वन् (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक ! शान्तस्वभाव (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं दोषम् (निर्णुद) निःसारय (देवयजनम्) देव+यज−ल्यु। विद्वद्भिः पूजितव्यवहारम् (आ वह) प्रापय ॥