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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
    सूक्त - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    उ॑दी॒चीनैः॑ प॒थिभि॑र्वायु॒मद्भि॑रति॒क्राम॒न्तोऽव॑रा॒न्परे॑भिः। त्रिः स॒प्त कृत्व॒ ऋष॑यः॒ परे॑ता मृ॒त्युं प्रत्यौ॑हन्पद॒योप॑नेन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒दी॒चीनै॑: । प॒थिऽभि॑: । वा॒यु॒मत्ऽभि॑: । अ॒ति॒ऽक्राम॑न्त: । अव॑रान् । परे॑भि: । त्रि: । स॒प्त । कृत्व॑: । ऋष॑य: । परा॑ऽइता । मृ॒त्युम् । प्रति॑ । औ॒ह॒न् । प॒द॒ऽयोप॑नेन ॥२.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीचीनैः पथिभिर्वायुमद्भिरतिक्रामन्तोऽवरान्परेभिः। त्रिः सप्त कृत्व ऋषयः परेता मृत्युं प्रत्यौहन्पदयोपनेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदीचीनै: । पथिऽभि: । वायुमत्ऽभि: । अतिऽक्रामन्त: । अवरान् । परेभि: । त्रि: । सप्त । कृत्व: । ऋषय: । पराऽइता । मृत्युम् । प्रति । औहन् । पदऽयोपनेन ॥२.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 29

    पदार्थ -

    (उदीचीनैः) ऊँचे चलते हुए, (वायुमद्भिः) शुद्ध वायुवाले, (परेभिः) उत्तम (पथिभिः) मार्गों से (अवरान्) निकृष्ट [मार्गों] को (अतिक्रामन्तः) लाँघते हुए, (परेताः) पराक्रम पाये हुए (ऋषयः) ऋषियों ने (त्रिः) तीन बार [मनसा वाचा कर्मणा] (सप्त कृत्वः) सात बार [दो कान, दो नथने, दो आँख और एक मुख द्वारा] (मृत्युम्) मृत्यु को (पदयोपनेन) पद [चाल] रोक देने से (प्रति औहन्) उलटा मारा है ॥२९॥

    भावार्थ -

    जैसे ऋषियों ने निकृष्ट कर्म छोड़ कर ब्रह्मचर्य आदि इन्द्रियदमन से सत्यसंकल्पी, सत्यवादी और सत्यकर्मी होकर मृत्यु को वश में किया है, वैसा ही सब मनुष्य करें ॥२९॥

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