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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    क्र॒व्याद॑म॒ग्निं प्र हि॑णोमि दू॒रं य॒मरा॑ज्ञो गच्छतु रिप्रवा॒हः। इ॒हायमित॑रो जा॒तवे॑दा दे॒वो दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यं व॑हतु प्रजा॒नन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । प्र । हि॒णो॒मि॒ । दू॒रम् । य॒मऽरा॑ज्ञ: । ग॒च्छ॒तु॒ । रि॒प्र॒ऽवा॒ह: । इ॒ह । अ॒यम् । इत॑र: । जा॒तऽवे॑दा: । दे॒व: । दे॒वेभ्य॑: । ह॒व्यम् । व॒ह॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ।॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः। इहायमितरो जातवेदा देवो देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रव्यऽअदम् । अग्निम् । प्र । हिणोमि । दूरम् । यमऽराज्ञ: । गच्छतु । रिप्रऽवाह: । इह । अयम् । इतर: । जातऽवेदा: । देव: । देवेभ्य: । हव्यम् । वहतु । प्रऽजानन् ।॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [क्रूर] (अग्निम्) अग्नि [समान सन्तापक मनुष्य] को (दूरम्) दूर [प्र हिणोमि] बाहिर पहुँचाता हूँ, (रिप्रवाहः) वह पाप का ले चलनेवाला पुरुष (यमराज्ञः) न्यायाधीश राजा के पुरुषों में (गच्छतु) जावे। (इह) यहाँ पर (अयम्) यह (इतरः) दूसरा [पापी से भिन्न धर्मात्मा], (जातवेदाः) वेदों का ज्ञाता, (देवः) विजय चाहनेवाला राजा (हव्यम्) देने-लेने योग्य पदार्थ को (प्रजानन्) भले प्रकार जानता हुआ (देवेभ्यः) विजय चाहनेवाले पुरुषों के लिये (वहतु) पहुँचावे ॥८॥

    भावार्थ - जब प्रजागण राजा से मिलकर अत्याचारियों को दण्ड दिलाते हैं, तब वह ज्ञानी राजा धर्मात्माओं के सत्कार करने में समर्थ होता है ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१६।९। और यजुर्वेद ३५।१९ ॥

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