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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    सीसे॑ मृड्ढ्वं न॒डे मृ॑ड्ढ्वम॒ग्नौ संक॑सुके च॒ यत्। अथो॒ अव्यां॑ रा॒मायां॑ शीर्ष॒क्तिमु॑प॒बर्ह॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीसे॑ । मृ॒ड्ढ्व॒म् । न॒डे । मृ॒ड्ढ्व॒म् । अ॒ग्नौ । सम्ऽक॑सुके । च॒ । यत् । अथो॒ इति॑ । अव्या॑म् । रा॒माया॑म् । शी॒र्ष॒क्तिम् । उ॒प॒ऽबर्ह॑णे ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीसे मृड्ढ्वं नडे मृड्ढ्वमग्नौ संकसुके च यत्। अथो अव्यां रामायां शीर्षक्तिमुपबर्हणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सीसे । मृड्ढ्वम् । नडे । मृड्ढ्वम् । अग्नौ । सम्ऽकसुके । च । यत् । अथो इति । अव्याम् । रामायाम् । शीर्षक्तिम् । उपऽबर्हणे ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 19

    पदार्थ -
    [हे मनुष्यो !] (सीसे) बन्धननाशक विधान में (नडे) बन्धन [वा नरकट समान तीक्ष्ण शस्त्र] में (च) और (संकसुके) सम्यक् शासक (अग्नौ) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] में, (यत्) जो कुछ [शिर पीड़ा है उसे] (मृड्ढ्वम्) तुम शुद्ध करो। (अथो) और भी (रामायाम्) रमण करानेवाली [सुख देनेवाली] (अव्याम्) रक्षा करनेवाली प्रकृति [सृष्टि] के भीतर [वर्तमान] (उपबर्हणे) सुन्दर वृद्धि में [आनेवाली] (शीर्षक्तिम्) शिर पीड़ा [रोक] को (मृड्ढ्वम्) शुद्ध करो ॥१९॥

    भावार्थ - जो पुरुष शुभ कर्मों और शुभ मनुष्यों में आनेवाले विघ्नों को मिटाते हैं, वे अपने कार्य सिद्ध करते हैं ॥१९॥

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