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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
    सूक्त - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    वै॑श्वदे॒वीं वर्च॑सा॒ आ र॑भध्वं शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। अ॑ति॒क्राम॑न्तो दुरि॒ता प॒दानि॑ श॒तं हिमाः॒ सर्व॑वीरा मदेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्व॒ऽदे॒वीम् । वर्च॑से । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । अ॒ति॒ऽक्राम॑न्त: । दु॒:ऽइ॒ता । प॒दानि॑ । श॒तम् । हिमा॑: । सर्व॑ऽवीरा: । म॒दे॒म॒ ॥२.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वदेवीं वर्चसा आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमाः सर्ववीरा मदेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वऽदेवीम् । वर्चसे । आ । रभध्वम् । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । अतिऽक्रामन्त: । दु:ऽइता । पदानि । शतम् । हिमा: । सर्वऽवीरा: । मदेम ॥२.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 28

    पदार्थ -
    [हे मनुष्यो !] (वैश्वदेवीम्) सब विद्वानों के हित करनेवाली [वेदवाणी] को (वर्चसे) तेज पाने के लिये तुम (शुद्धाः) शुद्ध, (शुचयः) पवित्र (पावकाः) शुद्ध करनेवाले (भवन्तः) होते हुए (आ रभध्वम्) आरम्भ करो। (दुरिता) कठिन [कष्टदायक] (पदानि) पगडण्डियों को (अतिक्रामन्तः) लाँघते हुए, (सर्ववीराः) सब को वीर रखते हुए हम (शतम्) सौ (हिमाः) शीत ऋतुओंवाली [स्थितियों] तक (मदेम) सुख भोगें ॥२८॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि वेदवाणी के निरन्तर विचार से बाहिर और भीतर से शुद्ध होकर और दूसरों को शुद्ध करके कुमार्गों को त्याग कर सब को वीर बनाते हुए पूर्ण आयु भोगें ॥२८॥ इस मन्त्र का मिलान करो−अ० ६।६२।३ ॥

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