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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 42
    ऋषिः - ऋजिष्व ऋषिः देवता - पूषा देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प॒थस्प॑थः॒ परि॑पतिं वच॒स्या कामे॑न कृ॒तोऽअ॒भ्यानड॒र्कम्।स नो॑ रासच्छु॒रुध॑श्च॒न्द्राग्रा॒ धियं॑ धियꣳ सीषधाति॒ प्र पू॒षा॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒थस्प॑थः। प॒थःऽप॑थः॒ इति॑ प॒थःऽप॑थः। परि॑पति॒मिति॒ परि॑ऽपति॒म्। व॒च॒स्या। कामे॑न। कृ॒तः। अ॒भि। आ॒न॒ट्। अ॒र्कम् ॥ सः। नः॒। रा॒स॒त्। शु॒रुधः॑। च॒न्द्राग्रा॒ इति॑ च॒न्द्रऽअ॑ग्राः ॥ धियां॑धिय॒मिति॒ धिय॑म्ऽधियम्। सी॒ष॒धा॒ति॒। सी॒स॒धा॒तीति॑ सीसधाति। प्र॒। पू॒षा ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पथस्पथः परिपतिँवचस्या कामेन कृतोऽअभ्यानडर्कम् । स नो रासच्छुरुधश्चन्द्राग्रा धियंधियँ सीषधाति प्र पूषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पथस्पथः। पथःऽपथः इति पथःऽपथः। परिपतिमिति परिऽपतिम्। वचस्या। कामेन। कृतः। अभि। आनट्। अर्कम्॥ सः। नः। रासत्। शुरुधः। चन्द्राग्रा इति चन्द्रऽअग्राः॥ धियांधियमिति धियम्ऽधियम्। सीषधाति। सीसधीतीति सीसधाति। प्र। पूषा॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 42
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি (বচস্যা) বচন ও (কামেন) কামনা করিয়া (কৃতঃ) নিষ্পন্ন (পূষা) পুষ্টিকর্তা জগদীশ্বর বা আপ্তজন (শুরুধঃ) শীঘ্র দুঃখকে প্রতিরোধকারী (চন্দ্রাগ্রাঃ) প্রথম হইতেই আনন্দকারী সাধনগুলিকে (নঃ) আমাদের জন্য (রাসৎ) প্রদান করিবেন (ধিয়ং ধিয়ম্) প্রত্যেক বুদ্ধি বা কর্মকে (প্রসীষধাতি) প্রকর্ষতাপূর্বক সিদ্ধ করিবেন (সঃ) তিনি শুভ গুণ, কর্ম, স্বভাবগুলিকে (অভি, আনট্) সব দিক্ দিয়া ব্যাপ্ত হন, সেই (অর্কম্) পূজনীয় (পথস্পথঃ) প্রত্যেক মার্গের (পরিপতিম্) স্বামীর আমরা স্তুতি করি ॥ ৪২ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে জগদীশ্বর সকলের সুখের জন্য বেদের প্রকাশের এবং আপ্ত পুরুষকে পড়াইবার ইচ্ছা করেন, যিনি সকলের জন্য শ্রেষ্ঠ বুদ্ধি, উত্তম কর্ম্ম ও শিক্ষা প্রদান করেন, সেই সব শ্রেষ্ঠ মার্গের স্বামিদের সদা সৎকার করা উচিত ॥ ৪২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - প॒থস্প॑থঃ॒ পরি॑পতিং বচ॒স্যা কামে॑ন কৃ॒তোऽঅ॒ভ্যা᳖নড॒র্কম্ ।
    স নো॑ রাসচ্ছু॒রুধ॑শ্চ॒ন্দ্রাগ্রা॒ ধিয়ং॑ধিয়ꣳ সীষধাতি॒ প্র পূ॒ষা ॥ ৪২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - পথস্পথ ইত্যস্য ঋজিষ্ব ঋষিঃ । পূষা দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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