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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    येन॒ कर्मा॑ण्य॒पसो॑ मनी॒षिणो॑ य॒ज्ञे कृ॒ण्वन्ति॑ वि॒दथे॑षु॒ धीराः॑।यद॑पू॒र्वं य॒क्षम॒न्तः प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। कर्मा॑णि। अ॒पसः॑। म॒नी॒षिणः॑। य॒ज्ञे। कृ॒ण्वन्ति॑। वि॒दथे॑षु। धीराः॑ ॥ यत्। अ॒पू॒र्वम्। य॒क्षम्। अ॒न्तरित्य॒न्तः। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। यदपूर्वँयक्षमन्तः प्रजानान्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। कर्माणि। अपसः। मनीषिणः। यज्ञे। कृण्वन्ति। विदथेषु। धीराः॥ यत्। अपूर्वम्। यक्षम्। अन्तरित्यन्तः। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে পরমেশ্বর বা বিদ্বান্ ! যখন আপনার সঙ্গ দ্বারা (য়েন) যে (অপসঃ) সদা কর্ম্ম ধর্মনিষ্ঠ (মনীষিণঃ) মনের দমনকারী (ধীরাঃ) ধ্যানকারী বুদ্ধিমান লোকেরা (য়জ্ঞে) অগ্নিহোত্রাদি বা ধর্মসংযুক্ত ব্যবহার বা যোগযজ্ঞে এবং (বিদথেষু) বিজ্ঞান-সম্পর্কীয় এবং যুদ্ধাদি ব্যবহারে (কর্মাণি) অত্যন্ত ইষ্ট কর্ম্মকে (কৃণ্বন্তি) করে, (য়ৎ) যাহা (অপূর্বম্) সর্বোত্তম গুণ, কর্ম, স্বভাবযুক্ত (প্রজানাম্) প্রাণিমাত্রের (অন্তঃ) হৃদয়ে (য়ক্ষম্) পূজনীয় বা সঙ্গত একীভূত হইতেছে (তৎ) সেই (মে) আমার (মনঃ) মনন-বিচার-করণ রূপ মন (শিবসঙ্কল্পম্) ধর্মাচারী (অস্তু) হউক ॥ ২ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, পরমেশ্বরের উপাসনা সুন্দর বিচার, বিদ্যা ও সৎসঙ্গ দ্বারা স্বীয় অন্তঃকরণকে অধর্মাচরণ হইতে নিবৃত্ত করিয়া ধর্মের আচরণে প্রবৃত্ত করুক ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - য়েন॒ কর্মা॑ণ্য॒পসো॑ মনী॒ষিণো॑ য়॒জ্ঞে কৃ॒ণ্বন্তি॑ বি॒দথে॑ষু॒ ধীরাঃ॑ ।
    য়দ॑পূ॒র্বং য়॒ক্ষম॒ন্তঃ প্র॒জানাং॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - য়েন কর্মাণীত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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