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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    उद॑स्य के॒तवो॑ दि॒वि शु॒क्रा भ्राज॑न्त ईरते। आ॑दि॒त्यस्य॑ नृ॒चक्ष॑सो॒ महि॑व्रतस्य मी॒ढुषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒स्य॒ । के॒तव॑: । दि॒वि । शु॒क्रा: । भ्राज॑न्त: । ई॒र॒ते॒ । आ॒दि॒त्यस्य॑ । नृ॒ऽचक्ष॑स: । महि॑ऽव्रतस्य । मी॒ढुष॑: ॥2..१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदस्य केतवो दिवि शुक्रा भ्राजन्त ईरते। आदित्यस्य नृचक्षसो महिव्रतस्य मीढुषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अस्य । केतव: । दिवि । शुक्रा: । भ्राजन्त: । ईरते । आदित्यस्य । नृऽचक्षस: । महिऽव्रतस्य । मीढुष: ॥2..१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (अस्य) = इस प्रभु की (केतव:) = प्रकाश की किरणें (शुक्रा:) = [शुच दीसी] अतिशयेन पवित्र व (भ्राजन्तः) = दीप्त होती हुई (दिवि उत् ईरते) = सम्पूर्ण द्युलोक में व सब व्यवहारों में उद्गत होती है। सम्पूर्ण आकाश में, आकाशस्थ एक-एक पिण्ड में प्रभु की रचना का कौशल व विज्ञान दीप्त हो रहा है। २. उस प्रभु का प्रकाश सर्वत्र दीखता है जोकि (आदित्यस्य) = [आदानात्] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने एक देश में लिये हुए हैं। (नृचक्षस:) = मनुष्यमात्र का ध्यान कर रहे हैं अथवा सभी के कर्मों को देख रहे हैं। (महिव्रतस्य) = महनीय व्रतोंवाले हैं और (मीढुषः) = सबपर सुखों का सेचन करनेवाले हैं। हम भी आदित्य बनें-सब अच्छाइयों को अपने अन्दर लेनेवाले बनें। (नृचक्षसः) = केवल अपना ध्यान न करके औरों का भी ध्यान करनेवाले बनें। महनीय व्रतों को धारण करें, इसप्रकार सबपर सुखों का वर्षण करने के लिए यत्नशील हों।

    भावार्थ -

    हम प्रभु का आदित्य, नृचक्षस: महिव्रत व मीदवान्' नामों से स्मरण करते हुए स्वयं भी ऐसा बनने का प्रयत्न करें। सृष्टि में सर्वत्र प्रभु के प्रकाश को देखने के लिए यत्नशील हों।

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