अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
मा त्वा॑ दभन्परि॒यान्त॑मा॒जिं स्व॒स्ति दु॒र्गाँ अति॑ याहि॒ शीभ॑म्। दिवं॑ च सूर्य पृथि॒वीं च॑ दे॒वीम॑होरा॒त्रे वि॒मिमा॑नो॒ यदेषि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । प॒रि॒ऽयान्त॑म् । आ॒जिम् । स्व॒स्ति । दु॒:ऽगान् । अति॑ । या॒हि॒ । शीभ॑म् । दिव॑म् । च॒ । सू॒र्य॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । दे॒वीम् । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । वि॒ऽमिमा॑न: । यत् । एषि॑ ॥2.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा दभन्परियान्तमाजिं स्वस्ति दुर्गाँ अति याहि शीभम्। दिवं च सूर्य पृथिवीं च देवीमहोरात्रे विमिमानो यदेषि ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । दभन् । परिऽयान्तम् । आजिम् । स्वस्ति । दु:ऽगान् । अति । याहि । शीभम् । दिवम् । च । सूर्य । पृथिवीम् । च । देवीम् । अहोरात्रे इति । विऽमिमान: । यत् । एषि ॥2.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
विषय - 'दिन-रात का बनानेवाला' सूर्य
पदार्थ -
१. हे (सूर्य) = सूर्य! (आजिम् परियन्तम्) = मार्ग पर आगे बढ़ते हुए (त्वा) = तुझे (मा दभन्) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाते। तू (शीभम्) = शीघ्र ही (दुर्गान) = दुःखेन गन्तव्य सब [दुर्ग] मार्गों को (अतियाहि) = लांघकर चलनेवाला हो और स्वस्ति-हमारे कल्याण का कारण बन। हे सूर्य! (अहोरात्रे) = दिन और रात्रि का (विमिमान:) = मापपूर्वक निर्माण करता हुआ (यत् एषि) = जब तू गति करता है तब तू (दिवं च) = इस द्युलोक को (देवीं पृथिवीम्) = दिव्यगुणोंवाली पृथिवी को हमारे लिए [स्वस्ति] कल्याण का साधन बनाता है। सूर्य के कारण सब देव हमारे लिए कल्याण का साधन बनते हैं। सूर्य केन्द्र में है और सब लोक-लोकान्तर इसके चारों ओर गति कर रहे हैं। सूर्य इन सबको हमारे लिए कल्याणकर बनाता है।
भावार्थ -
मार्ग पर चलते हुए सूर्य को कोई भी विघ्न रोक नहीं पाते। दिन व रात्रि का निर्माण करता हुआ यह सूर्य सब लोकों को हमारे लिए हितसाधक बनाता है।
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