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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    यत्स॑मु॒द्रमनु॑ श्रि॒तं तत्सि॑षासति॒ सूर्यः॑। अध्वा॑स्य॒ वित॑तो म॒हान्पूर्व॒श्चाप॑रश्च॒ यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । स॒मु॒द्रम् । अनु॑ । श्रि॒तम् । तत् । सि॒षा॒स॒ति॒ । सूर्य॑: । अध्वा॑ । अ॒स्य॒ । विऽत॑त: । म॒हान् । पूर्व॑: । च॒ । अप॑र: । च॒ । य: ॥2.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्समुद्रमनु श्रितं तत्सिषासति सूर्यः। अध्वास्य विततो महान्पूर्वश्चापरश्च यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । समुद्रम् । अनु । श्रितम् । तत् । सिषासति । सूर्य: । अध्वा । अस्य । विऽतत: । महान् । पूर्व: । च । अपर: । च । य: ॥2.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो जल समुद्र (अनुचितम्) = समुद्र में आश्रय किये हुए है, (तत्) = उसे (सूर्यः) = सूर्य (सिषासति) = समविभक्त करना चाहता है। सूर्य समुद्र-जल को अपनी किरणों के द्वारा वाष्पीभूत करके ऊपर ले-जाता है, मानो सूर्य समुद्र-जल का पान करता है। २. (अस्य) = इस सूर्य का (यः अध्वा) = जो मार्ग (पूर्वः च अपर: च) = पूर्व से पश्चिम तक (विततः) = फैला हुआ है, वह निश्चय से (महान्) = अतिशयेन बड़ा है अथवा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह सूर्य का मार्ग ही सब कालचक्र का कारण बनता है।

     

    भावार्थ -

    सूर्य ही समुद्र-जल को वाष्पीभूत करके ऊपर ले जाता है और मेष-निर्माण द्वारा वृष्टि का कारण बनता है। पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ सूर्य का मार्ग ही कालचक्र का निर्माण करनेवाला बनता है।

     

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