अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - पञ्चपदा विराड्जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
दि॒वस्पृ॒ष्ठे धाव॑मानं सुप॒र्णमदि॑त्याः पु॒त्रं ना॒थका॑म॒ उप॑ यामि भी॒तः। स नः॑ सूर्य॒ प्र ति॑र दी॒र्घमायु॒र्मा रि॑षाम सुम॒तौ ते॑ स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । पृ॒ष्ठे । धाव॑मानम् । सु॒ऽप॒र्णम् । अदि॑त्या: । पु॒त्रम् । ना॒थऽका॑म: । उप॑ । या॒मि॒ । भी॒त: । स: । न॒: । सू॒र्य॒ । प्र । ति॒र॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: । मा । रि॒षा॒म॒ । सु॒ऽम॒तौ । ते॒ । स्या॒म॒ ॥२.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृष्ठे धावमानं सुपर्णमदित्याः पुत्रं नाथकाम उप यामि भीतः। स नः सूर्य प्र तिर दीर्घमायुर्मा रिषाम सुमतौ ते स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । पृष्ठे । धावमानम् । सुऽपर्णम् । अदित्या: । पुत्रम् । नाथऽकाम: । उप । यामि । भीत: । स: । न: । सूर्य । प्र । तिर । दीर्घम् । आयु: । मा । रिषाम । सुऽमतौ । ते । स्याम ॥२.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 37
विषय - 'अदिति-पुत्र' प्रभु
पदार्थ -
१. (दिवः पृष्ठे) = ज्ञान के आधार में (धावमानम्) = हम सबके जीवनों को शुद्ध करते हुए [धाव् शुद्धौ] (सुपर्णम्) = उत्तमता से हमारा पालन करते हुए (अदित्याः पुत्रम्) = वेदवाणी के द्वारा [अ दिति-अखण्डिता वाक्] हमें पवित्र व रक्षित करनेवाले [पुनाति, त्रायते] प्रभु को (भीत:) = संसार के इन काम-क्रोधरूप शत्रुओं से भयभीत हुआ-हुआ मैं (नाथकाम:) = नाथ को, रक्षक को चाहता हुआ (उपयामि) = समीपता से प्राप्त होता हूँ। २.हे सूर्य-उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले प्रभो! (स:) = वे आप (नः) = हमारे लिए (दीर्घम् आयु:) = दीर्घजीवन को प्रतिर अत्यन्त बढ़ानेवाले होओ। (मा रिषाम) = हम हिंसित न हों। (ते सुमतौ स्याम) = सदा आपकी कल्याणी मति में निवास करें।
भावार्थ -
प्रभु ज्ञान द्वारा हमारा शोधन करते हैं। प्रभु की कल्याणी मति में चलते हुए हम दीर्घ आयुष्य को प्राप्त करते हैं।
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