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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒द्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । उत् । अ॒गा॒त् । अनी॑कम् । चक्षु॑: । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒ग्ने: । आ । अ॒प्रा॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सूर्य॑: । आ॒त्मा । जग॑त: । त॒स्थुष॑: । च॒ ॥२.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्रम् । देवानाम् । उत् । अगात् । अनीकम् । चक्षु: । मित्रस्य । वरुणस्य । अग्ने: । आ । अप्रात् । द्यावापृथिवी इति । अन्तरिक्षम् । सूर्य: । आत्मा । जगत: । तस्थुष: । च ॥२.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 35

    पदार्थ -

    १. (देवानाम्) = सूर्यादि प्रकाशमान पिण्डों का (चित्रं अनीकम्) = अद्भुत बलस्वरूप वह प्रभु (उत् अगात्) = उदित हुआ है। इन सूर्यादि पिण्डों में प्रभु का प्रकाश ही दीप्त हो रहा है। वे प्रभु (मित्रस्य) = सूर्य के (वरुणस्य) = चन्द्र के तथा (अग्नेः) = अग्नि के (चक्षुः) = प्रकाशक हैं। २. वे प्रभु द्यावापृथिवी (अन्तरिक्षम्) = द्युलोक, पृथिवीलोक तथा अन्तरिक्षलोक का (आ अप्रात्) = समन्तात् पूरण किये हुए हैं-प्रभु इन सब लोकों में व्यास है। (सूर्य:) = वे प्रभु सूर्य हैं-सूर्यसम् देदीप्यमान हैं। जगतः तस्थुषः च-जंगम व स्थावर के आत्मा हैं-इन सबके अन्दर व्यास होकर रह रहे |

    भावार्थ -

    वे प्रभु देवों के अद्भुत बल हैं। सूर्य, चन्द्र व अग्नि के प्रकाशक हैं, त्रिलोकी को व्याप्त किये हुए हैं और जंगम व स्थावर जगत् के आत्मा हैं।

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