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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    एक॑पा॒द्द्विप॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्र॒मे द्विपा॒त्त्रिपा॑दम॒भ्येति प॒श्चात्। द्विपा॑द्ध॒ षट्प॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्रमे॒ त एक॑पदस्त॒न्वं समा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽपात् । द्विऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । द्विऽपा॑त् । त्रिऽपा॑दम् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् । द्विऽपा॑त् । ह॒ । षट्ऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । ते । एक॑ऽपद: । त॒न्व᳡म् । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकपाद्द्विपदो भूयो वि चक्रमे द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात्। द्विपाद्ध षट्पदो भूयो वि चक्रमे त एकपदस्तन्वं समासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽपात् । द्विऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । द्विऽपात् । त्रिऽपादम् । अभि । एति । पश्चात् । द्विऽपात् । ह । षट्ऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । ते । एकऽपद: । तन्वम् । सम् । आसते ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 27

    पदार्थ -

    १. (एकपात्) = वायु [वायुरेकपात् तस्य आकाशं पाद:-गो०पू० २.८] (द्विपदः) = चन्द्र से [चन्द्रमा द्विपात् तस्य पूर्वपक्षा परपक्षी पादी-गो०पू०२.८] (भूयः विचक्रमे) = अधिक विक्रम व गतिवाला है। (द्विपात्) = चन्द्र (त्रिपादम्) = [आदित्यस्त्रिपात् तस्येमे लोका: पादः-गो०पू० २.८] सूर्य को (पश्चात् अभि एति) = राशिसंक्रमण में पीछे से जा पकड़ता है। २. (द्विपात् ह) = निश्चय से यह चन्द्र (षट्पद:) = [अग्रिः षट्पास्तस्य पृथिव्यान्तरिक्ष द्यौः एष ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादा:-गो०पू० २.९] अग्नि से भी (भूयः विचक्रमे) = अधिक विक्रमवाला है, चन्द्रमा से किये जा रहे रस-संचार को ओषधि-वनस्पतियों में होता हुआ भी अग्नि शुष्क नहीं कर पाता। अग्नि की उपस्थिति में चन्द्रमा उनमें रस का संचार करने में समर्थ होता है। (ते) = वे सब चन्द्र, सूर्य, अग्नि [द्विपात्, त्रिपात् व षट्पात्] (एकपदः तन्वं समासते) = वायु के शरीर में सम्यक् आसीन होते हैं। [वायोरग्निः] वायु से ही अग्नि की उत्पत्ति होती है। यह अग्नि ही धुलोक में सूर्यरूप में है तथा उसी की एक किरण अन्तरिक्ष में चन्द्रमारूप से। एवं, यह 'सूर्य, चन्द्र, अग्नि' वायु के ही शरीर में स्थित हैं।

    भावार्थ -

    एक ज्ञानी पुरुष ब्रह्माण्ड में 'एकपात् [वायु], द्विपात् [चन्द्र], त्रिपात् [आदित्य] व षटपात् [अग्नि]' के कार्यक्रम को देखता हुआ प्रभु की महिमा का अनुभव करता है।

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