अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृशे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊं॒ इति॑ । त्यम् । जा॒तऽवे॑दसम् । दे॒वम् । व॒ह॒न्ति॒ । के॒तव॑: । दृ॒शे । विश्वा॑य । सूर्य॑म् ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊं इति । त्यम् । जातऽवेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतव: । दृशे । विश्वाय । सूर्यम् ॥२.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
विषय - जातवेदा देवः सूर्य' का धारण
पदार्थ -
१. (केतवः) = ज्ञानीपुरुष (त्यम्) = उस (जातवेदसम्) = [जातेजाते विद्यते] सर्वत्र व्याप्त [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ प्रभु को (उ) = निश्चय से (उद् वहन्ति) = हृदय में धारण करते हैं। प्रभु (देवम्) = प्रकाशमय हैं, (सूर्यम्) = सूर्यसम ज्योति हैं, अथवा सबको हृदयस्थरूपेण प्रेरणा देनेवाले हैं [सुवति]। २. ये ज्ञानी पुरुष इसलिए प्रभु को हदयों में धारण करते हैं, जिससे (दृशे विश्वाय) = सम्पूर्ण संसार का दर्शन कर सकें। प्रभु के हृदय में होने पर यह सब-कुछ ज्ञात हो ही जाता है।
भावार्थ -
ज्ञानी लोग हृदयों में प्रभु का स्मरण करते हैं, जिससे सम्पूर्ण संसार का ज्ञान प्राप्त कर सकें।
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