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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    सु॒खं सू॑र्य॒ रथ॑मंशु॒मन्तं॑ स्यो॒नं सु॒वह्नि॒मधि॑ तिष्ठ वा॒जिन॑म्। यं ते॒ वह॑न्ति ह॒रितो॒ वहि॑ष्ठाः श॒तमश्वा॒ यदि॑ वा स॒प्त ब॒ह्वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽखम् । सूर्य॑ । रथ॑म् । अं॒शु॒ऽमन्त॑म् । स्यो॒नम् । सु॒ऽवह्नि॑म् । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒ । वा॒जिन॑म् । यम् । ते॒ । वह॑न्ति । ह॒रित॑: । वहि॑ष्ठा: । श॒तम् । अश्वा॑: । यदि॑ । वा॒ । स॒प्त । ब॒ह्वी: ॥2.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुखं सूर्य रथमंशुमन्तं स्योनं सुवह्निमधि तिष्ठ वाजिनम्। यं ते वहन्ति हरितो वहिष्ठाः शतमश्वा यदि वा सप्त बह्वीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽखम् । सूर्य । रथम् । अंशुऽमन्तम् । स्योनम् । सुऽवह्निम् । अधि । तिष्ठ । वाजिनम् । यम् । ते । वहन्ति । हरित: । वहिष्ठा: । शतम् । अश्वा: । यदि । वा । सप्त । बह्वी: ॥2.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हे (सूर्य) = सूर्य! तू (रथम् अधितिष्ठ) = इस रथ पर अधिष्ठित हो, जो रथ (सुखम्) = हमारी सब इन्द्रियों की उत्तमता का कारण बनता है। (अंशुमन्तम्) = जो प्रकाश की किरणोंवाला है। (स्योनम्) = हमारे लिए सुख करनेवाला है। (सुवहिम्) = हमें स्वस्थ बनाता हुआ लक्ष्यस्थान की ओर ले-चलनेवाला है और (वाजिनम्) = हमें शक्तिशाली बनाता है। २. उस रथ पर तु अधिष्ठित हो (यं ते) = जिस तेरे रथ को (वहिष्ठाः हरित: वहन्ति) = वहनक्रिया में सर्वोत्तम किरणरूप अश्व वहन करते हैं (शतं अश्वा:) = सैकड़ों किरणाश्व इस तेरे रथ का वहन करनेवाले हैं। (यदि वा) = अथवा (सप्त बह्वी:) = सात रंगोंवाली-सात प्राणदायी तत्त्वों को प्राप्त करानेवाली, अतएव प्राणियों की वृद्धि की कारणभूत ये किरणें तेरे रथ का वहन करती हैं।

    भावार्थ -

    यह सूर्य का रथ अपने मार्ग पर किरणरूप अश्वों से आगे और आगे बढ़ता है। यह प्राणियों के लिए इन्द्रियों का स्वास्थ्य प्रदान करता है, अतएव उनके लिए सुखद व उन्हें लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाला होता है। यह उन्हें शक्तिशाली बनाता है।

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