अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः। प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्वर्दृ॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यङ् । दे॒वाना॑म् । विश॑: । प्र॒त्यङ् । उत् । ए॒षि॒ । मानु॑षी: । प्र॒त्यङ् । विश्व॑म् । स्व᳡: । दृ॒शे ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषीः। प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यङ् । देवानाम् । विश: । प्रत्यङ् । उत् । एषि । मानुषी: । प्रत्यङ् । विश्वम् । स्व: । दृशे ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
विषय - 'देव व मानुष' बनकर 'ब्रह्मदर्शन'
पदार्थ -
१. हे सूर्य! तू (देवानां विशः प्रत्यङ्) = देवों की प्रजाओं के प्रति गति करता हुआ (उदेषि) = उदित होता है, अर्थात् सूर्य का प्रकाश प्रजाओं को दिव्यगुणोंवाला व दैवीवृत्तिवाला बनाता है। सूर्य के प्रकाश में रहनेवाले लोग दिव्यगुणोंवाले बनते हैं। सूर्य का प्रकाश मन पर अत्यन्त स्वास्थ्यजनक प्रभाव डालता है। (मानुषी: प्रत्याङ् उदेषि) = मनुष्यों के प्रति गति करता हुआ यह सूर्य उदय होता है। सूर्य हमें मानुष बनाता है। मानुष वह है जो 'मत्वा कर्माणि सीव्यति' विचारपूर्वक कर्म करता है। सूर्य के प्रकाश में रहनेवाले व्यक्ति समझ से काम करनेवाले होते हैं अथवा सूर्य मनुष्यों के प्रति उदित होता है-दयालुओं के प्रति । सूर्यप्रकाश मनुष्य की मनोवृत्ति को अकर बनाता है। सामान्यतः हिंसावृत्ति के पशु व असुर रात्रि के अन्धकार में ही कार्य करते हैं। सूर्य का प्रकाश उनके लिए अरुचिकर होता है। २. (स्वर्दृशे) = उस स्वयं राजपान ज्योति 'ब्रह्म' के दर्शन के लिए तू (विश्वं प्रत्यङ्) = सबके प्रति गति करता हुआ उदय होता है। इस उदय होते हुए सूर्य में द्रष्टा को प्रभु की महिमा का आभास मिलता है। यह सूर्य उसे प्रभु की विभूति के रूप में दीखता है।
भावार्थ -
सूर्य का प्रकाश हमें देव व मानुष बनाता है और प्रभु का दर्शन कराता है।
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