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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - पुरोद्व्यतिजागता भुरिग्जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    यो वि॒श्वच॑र्षणिरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो॒ यो वि॒श्वत॑स्पाणिरु॒त वि॒श्वत॑स्पृथः। सं बा॒हुभ्यां॑ भरति॒ सं पत॑त्त्रै॒र्द्यावा॑पृथि॒वी ज॒नय॑न्दे॒व एकः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वि॒श्वऽच॑र्षणि: । उ॒त । वि॒श्वत॑:ऽमुख: । य: । वि॒श्वत॑:ऽपाणि: । उ॒त । वि॒श्वत॑:ऽपृथ: । सम् । बा॒हुऽभ्या॑म् । भर॑ति । सम् । पत॑त्रै: । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ज॒नय॑न् । दे॒व: । एक॑: ॥२.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो विश्वचर्षणिरुत विश्वतोमुखो यो विश्वतस्पाणिरुत विश्वतस्पृथः। सं बाहुभ्यां भरति सं पतत्त्रैर्द्यावापृथिवी जनयन्देव एकः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । विश्वऽचर्षणि: । उत । विश्वत:ऽमुख: । य: । विश्वत:ऽपाणि: । उत । विश्वत:ऽपृथ: । सम् । बाहुऽभ्याम् । भरति । सम् । पतत्रै: । द्यावापृथिवी इति । जनयन् । देव: । एक: ॥२.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    (विश्वतोमुखः) = सब ओर मुखवाले हैं (यः) = जो (विश्वतः पाणि:) = सब ओर हाथोंवाले हैं, (उत) = और (विश्वतस्पृथः) = सब ओर पूरण [व्याति]-वाले हैं [पू पालनपूरणयोः], २. वे प्रभु (बाहुभ्यां भरति) = बाहुओं से द्युलोक को सम्यक् भृत करते हैं और (पतनैः) = पतनशील इन पाँवों से पृथिवीलोक को भुत कर रहे हैं, वे (एक: देव:) = अद्वितीय प्रभु द्यावापृथिवी (जनयन्) = द्युलोक व पृथिवीलोक को प्रादुर्भूत कर रहे |

    भावार्थ -

    वे प्रभु सर्वद्रष्टा व सर्वव्यापक हैं। प्रभु सर्वत्र सब इन्द्रियों के गुणों के आभासवाले हैं। वे प्रभु ही द्यावापृथिवी का प्रादुर्भाव व धारण करते हैं।

     

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