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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    यत्प्राङ्प्र॒त्यङ्स्व॒धया॒ यासि॒ शीभं॒ नाना॑रूपे॒ अह॑नी॒ कर्षि॑ मा॒यया॑। तदा॑दित्य॒ महि॒ तत्ते॒ महि॒ श्रवो॒ यदेको॒ विश्वं॒ परि॒ भूम॒ जाय॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । प्राङ् । प्र॒त्यङ् । स्व॒धया॑ । यासि॑ । शीभ॑म् । नाना॑रूपे॒ इति॒ नाना॑ऽरूपे । अह॑नी॒ इति॑ । कर्षि॑ । मा॒यया॑ । तत् । आ॒दि॒त्य॒ । महि॑ । तत् । ते॒ । महि॑ । श्रव॑: । यत् । एक॑: । विश्व॑म् । परि॑ । भूम॑ । जाय॑से ॥2.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्प्राङ्प्रत्यङ्स्वधया यासि शीभं नानारूपे अहनी कर्षि मायया। तदादित्य महि तत्ते महि श्रवो यदेको विश्वं परि भूम जायसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । प्राङ् । प्रत्यङ् । स्वधया । यासि । शीभम् । नानारूपे इति नानाऽरूपे । अहनी इति । कर्षि । मायया । तत् । आदित्य । महि । तत् । ते । महि । श्रव: । यत् । एक: । विश्वम् । परि । भूम । जायसे ॥2.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! (यत्) = जो आप (स्वधया) = अपनी धारणशक्ति से (शीभम्) = शीघ्र ही (प्राङ्प्रत्यङ् यासि) = पूर्व से पश्चिम तक सर्वत्र गतिवाले होते हैं, वे आप (मायया) = अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से (नानारूपे) = भिन्न-भिन्न रूपोंवाले (अहनी कर्षि) = दिन-रात को बनाते हैं। प्रभु ने वस्तुत: दिन व रात के क्रमवाला यह सृष्टिक्रम कितना सुन्दर बनाया है। २. हे (आदित्य) = सारे ब्रह्माण्ड का अपने में आदान करनेवाले प्रभो! (ते) = आपका (तत्) = जो (महि) = महान् व पूजनीय (श्रवः) = यश है, आप (विश्वं भूम परिजायसे) = सारे ब्रह्माण्ड में चारों ओर प्रादुर्भूत हो रहे हैं, सर्वत्र आपकी महिमा का प्रकाश हो रहा है।

    भावार्थ -

    पूर्व से पश्चिम तक सर्वत्र प्रभु व्याप्त हो रहे हैं। प्रभु ने अपनी माया से क्या ही सुन्दर दिन व रात्रि का क्रम बनाया है। प्रभु का यश महान् है। वे प्रभु सर्वत्र अपनी महिमा से प्रादुर्भूत हो रहे हैं।

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