अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमि॑वाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वा इ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि । अ॒ग्नि: । स॒म्ऽइधा॑ । जना॑नाम् । प्रति॑ । धे॒नुम्ऽइ॑व । आ॒ऽय॒तीम् । उ॒षस॑म् । य॒ह्वा:ऽइ॑व । प्र । व॒याम् । उ॒त्ऽजिहा॑ना: । प्र । भा॒नव॑: । सि॒स्र॒ते॒ । नाक॑म् । अच्छ॑ ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम्। यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठअबोधि । अग्नि: । सम्ऽइधा । जनानाम् । प्रति । धेनुम्ऽइव । आऽयतीम् । उषसम् । यह्वा:ऽइव । प्र । वयाम् । उत्ऽजिहाना: । प्र । भानव: । सिस्रते । नाकम् । अच्छ ॥२.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
विषय - आश्रम चतुष्टय
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनते हैं तब ब्रह्मचर्याश्रम में (समिधा) = 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक' के पदार्थों के ज्ञान द्वारा [इन्ध् दीप्ती] (अग्निः अबोधि) = ज्ञानाग्नि दीस की जाती है। ब्रह्मचारी आचार्य द्वारा ज्ञानसमिद्ध किया जाता है। ये ब्रह्मचारी स्नातक बनकर [स स्नात: बभ्रः०] जब गृहस्थ बनता है तब प्रति आयती उषासम-प्रत्येक आनेवाले ऊषाकाल में (जनानां धेनुं इव) = लोगों के प्रति गौ की भाँति होता है। गौ जैसे-दूध देकर लोगों का पोषण करती है, यह भी सब आश्रमियों का पोषण करनेवाला होता है। २. जैसे (यह्वा:) = तनिक बड़े होकर (पक्षी वयाम्) = शाखा को (प्र उज्जिहाना:) = प्रकर्षेन छोड़नेवाले होते हैं-घोंसले से निकलकर जैसे वे आकाश में उड़ते हैं, उसीप्रकार ये भी गृहस्थ की समाप्ति पर घर को छोड़कर वनस्थ होने की कामनावाले होते है। अब वानप्रस्थ की साधना को पूर्ण करके (भानवः) = सूर्यसम ज्ञान की ज्योतिवाले वे संन्यस्त पुरुष सबके लिए प्रभु का सन्देश सुनाते हुए (नाकं अच्छ प्रसिस्त्रते) = मोक्षलोक की ओर आगे बढ़ते हैं।
भावार्थ -
ब्रह्मचारी ज्ञानदीस बनें, गृहस्थ सबका पालन करनेवाला हो। गृहस्थ को पूर्ण करके मनुष्य वनस्थ बनें। साधना के द्वारा ज्ञानदीप्त बनकर प्रभु का सन्देश सबको सुनाता हुआ मोक्ष की ओर प्रगतिवाला हो।
इस भाष्य को एडिट करें