अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुष्पदा पुरःशाक्वरा भुरिग्जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
पृ॑थिवी॒प्रो म॑हि॒षो नाध॑मानस्य गा॒तुरद॑ब्धचक्षुः॒ परि॒ विश्वं॑ बभूव। विश्वं॑ सं॒पश्य॑न्त्सुवि॒दत्रो॒ यज॑त्र इ॒दं शृ॑णोतु॒ यद॒हं ब्रवी॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒वी॒ऽप्र: । म॒हि॒ष: । नाध॑मानस्य । गा॒तु: । अद॑ब्धऽचक्षु: । परि॑ । विश्व॑म् । ब॒भूव॑ । विश्व॑म् । स॒म्ऽपश्य॑न् । सु॒ऽवि॒दत्र॑: । यज॑त्र: । इ॒दम् । शृ॒णो॒तु॒ । यत् । अ॒हम् । ब्रवी॑मि ॥२.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिवीप्रो महिषो नाधमानस्य गातुरदब्धचक्षुः परि विश्वं बभूव। विश्वं संपश्यन्त्सुविदत्रो यजत्र इदं शृणोतु यदहं ब्रवीमि ॥
स्वर रहित पद पाठपृथिवीऽप्र: । महिष: । नाधमानस्य । गातु: । अदब्धऽचक्षु: । परि । विश्वम् । बभूव । विश्वम् । सम्ऽपश्यन् । सुऽविदत्र: । यजत्र: । इदम् । शृणोतु । यत् । अहम् । ब्रवीमि ॥२.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 44
विषय - 'सुविदत्रो यज्ञत्रः' प्रभु
पदार्थ -
१. (पृथिवीप्र:) = इस पृथिवी को विविध ओषधि-वनस्पतियों से पूरण करनेवाले (महिषः) = पूजनीय (नाधमानस्य गातु:) = प्रार्थना करनेवाले के मार्गदर्शक (अदब्धचक्षुः) = अहिंसित दृष्टिवाले, सर्वद्रष्टा वे प्रभु (विश्वं परिबभूव) = सारे विश्व को व्याप्त किये हुए हैं। २. (विश्वं संपश्यन) = सारे संसार का सम्यक् निरीक्षण व धारण करते हुए वे प्रभु (सुविदाः) = सब उत्तम वस्तुओं के प्रापण [विद् लाभे] के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले हैं। (यजत्र:) = वे प्रभु पूजनीय हैं, संगतिकरण-योग्य हैं और समर्पणीय हैं। प्रभु के प्रति हमें अपना अर्पण कर देना चाहिए। वे प्रभु (यद् अहं ब्रवीमि) = जो मैं प्रार्थना के रूप में कहता हूँ, (इदं शृणोतु) = इस बात को सुनें। मेरी प्रार्थना को सुनने की प्रभु कृपा करें। वस्तुत: मैं इस योग्य बनूँ कि मेरी प्रार्थना सुनी जाए।
भावार्थ -
वे प्रभु इस पृथिवी को हमारे पालन के लिए सब आवश्यक वस्तुओं से परिपूरित करते हैं। सर्वत्र व्यास वे प्रभु हम सबका ध्यान करते हैं। वे 'सुविदत्र' हैं, हमारी प्रार्थना को सुनते हैं।
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