यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति,
स्वरः - निषादः
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मधु॑मतीर्न॒ऽइष॑स्कृधि॒ यत्ते॑ सो॒मादा॑भ्यं॒ नाम॒ जागृ॑वि॒ तस्मै॑ ते सोम॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॒ स्वाहो॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि॥२॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। नः॒। इषः॑। कृ॒धि॒। यत्। ते॒। सो॒म॒। अदा॑भ्यम्। नाम॑। जागृ॑वि। तस्मै॑। ते॒। सो॒म॒। सोमा॑य। स्वाहा॑। स्वाहा॑। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। ए॒मि॒ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
मधुमतीर्नऽइषस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यन्नाम जागृवि तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥
स्वर रहित पद पाठ
मधुमतीरिति मधुऽमतीः। नः। इषः। कृधि। यत्। ते। सोम। अदाभ्यम्। नाम। जागृवि। तस्मै। ते। सोम। सोमाय। स्वाहा। स्वाहा। उरु। अन्तरिक्षम्। अनु। एमि॥२॥
विषय - एक दूसरे के प्रति आत्मसमर्पण ।
भावार्थ -
हे राजन् ! ( नः ) हमारे लिये ( मधुमती: ) मधुर रस से युक्त ( इप: ) अन्नों को ( कृधि ) उत्पन्न कर । अथवा हे ( मधुमतीः अपनी (रावः ) प्रेरक आज्ञाओं को ( मधुमती: ) बल से युक्त कर । क्योंकि हे (सोम) सर्व प्रेरक राजन् ! ( ते नाम ) तेरा नाम, तेरा स्वरूप या तेरा नमाने या झुकाने या दमन करने का सामर्थ्य भी ( अदाभ्यम् ) कभी विनाश नहीं किया जा सकता, तोड़ा नहीं जा सकता और वह ( जागृविः ) सदा शरीर में प्राण के समान जागता रहता है । ( तस्मे ) इस कारण से हे ( सोम ) सर्वत्रेरक राजन् ! ( ते सोमाय स्वाहा ) तेरे निमित्त हमारा यह आत्मत्याग है । अर्थात् हम पदों पर नियुक्त पुरुष सर्व प्रकार से तेरे अधीन हैं। राजा अपने अधीन पुरुषों और प्रजाओं को अपने प्रति ऐसा वचन सुनकर स्वयं भी कहे ( स्वाहा ) यह मेरा भी तुम्हारे लिये आत्मोत्सर्ग रूप आहुति है । अथवा अपनी वश करनेवाली शक्ति या प्रतिष्ठा से मैं अब ( उरु अन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष को ( अनुएमि ) अनुसरण करता हूं । अर्थात् जिस प्रकार अन्तरिक्ष समस्त पृथिवी पर आच्छादित है इसी प्रकार में समस्त प्रजा पर समयरूप से शासक बनता हूं। जिस प्रकार वायु सबका प्राण है उस पर सब जीते हैं इसी प्रकार मेरे आश्रम पर समस्त प्रज्ञाएं जीवन धारण करें । अथवा ( अन्तरिक्षम् अन्वेमि ) अन्तरिक्ष अर्थात् प्रजा और राजा के बीच के शासक मण्डल पर भी मैं अपना अधिकार करता हूं । वे प्रजा की रक्षा करने से रक्षोगण ' है उनका वश करने के लिये राजा उन पर पूरा वश रक्खे ।
स्वाहा - स प्रजापतिर्विदांचकार स्वो वै मा महिमा आहेति, स स्वाहे त्ये- वा जुहोत् । श० २ । २ । ४ । ६ ॥ हेमन्तो वै ऋतूनां स्वाहाकार : हेमन्तो हि इमाः प्रजाः स्वं वशमुपनयते । श० १। ५ । ४ । ५॥ अन्तं हि स्वाहा- कारः । श० ६ । ६ । ३ । १७ ॥ प्रतिष्ठा वै स्वाहाकृतयः ।ए ० ४ ॥
अत्तरिक्षम् ' -- तद्यदस्मिन् इदं सर्वमन्तस्तस्मादन्तर्यक्षम् । अन्तर्यक्षं ह वै नामैतत् तदन्तरिक्षमिति परोचमाचक्षते । जै० उ० १ । २० ॥ ४ ॥
ईक्षं हैतन्नाम ततः पुरा अन्तरा वा इदमीक्षं मभूदिति तस्मादन्तरिक्षम् ॥ शत० ७ । १ । २ । २३ ॥ अन्तरिक्षायतनाहि प्रजाः । तां० ४। ८। १३ ॥ असुराः रजताम् अन्तरिक्षलोके अकुर्वत । ऐ० १ । २३ ॥
अर्थात् प्रजापति का अपना बड़ी सामर्थ्य या ऋतुओं में तीक्ष्ण प्रहार करनेवाले राजा का हेमन्त या पतझड़ का सा रूप है । 'जो प्रजाओं को अपने वश करने का सामर्थ्य या अन्न या प्रतिष्ठा हैं ये स्वाहा के रूप हैं । भीतर सबका निरीक्षक पूजनीय, 'अन्तरित' है । भीतरी निरीक्षक पदाधिकारी 'अन्तरिक्ष ' है । चांदी या धन के द्वारा बंधे अधिकारीमण्डल भी ' अन्तरिक्ष' हैं । शत० ४।१।१।१-५।
टिप्पणी -
२ – कृध्यन्तस्य प्राण उपांशुग्रहरूपो देवता । स्वाहाकारस्य अग्निः । उर्वन्तरि क्षमित्यस्य रक्षो देवता । सर्वा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
सोमो देवता । निचृदार्थी पंक्तिः । पंचमः स्वरः ॥
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