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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    1

    अ॒न्तस्ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी द॑धाम्य॒न्तर्द॑धाम्यु॒र्वन्तरि॑क्षम्। स॒जूर्दे॒वेभि॒रव॑रैः॒ ॒परै॑श्चान्तर्या॒मे म॑घवन् मादयस्व॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरित्य॒न्तः। ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। द॒धा॒मि॒। अ॒न्तः। द॒धा॒मि॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेभिः॑। अव॑रैः। परैः॑। च॒। अ॒न्त॒र्य्याम इत्य॑न्तःऽया॒मे। म॒घ॒वन्निति॑ मघऽवन्। मा॒द॒य॒स्व॒ ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम् । सजूर्देवेभिरवरैः परैश्चान्तर्यामे मघवन्मादयस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरित्यन्तः। ते। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। दधामि। अन्तः। दधामि। उरु। अन्तरिक्षम्। सजूरिति सऽजूः। देवेभिः। अवरैः। परैः। च। अन्तर्य्याम इत्यन्तःऽयामे। मघवन्निति मघऽवन्। मादयस्व॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -

    हे मघवन् ! इन्द्र ! राजन् ! ( ते अन्तः ) तेरे शासन के भीतर ( द्यावा पृथिवी ) द्यौ और पृथिवी दोनों को ( दधामि ) स्थापित करता हूँ । और ( ते अन्तः ) तेरे ही शासन के भीतर ( उरु ) विशाल ( अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष को भी ( दधामि ) स्थापित करता हूं। अर्थात् तीनों को तेरे वश में रखता हूं अथवा तुम्हें तीनों का पद प्रदान करता हूँ । वह 'द्यौ' सूर्य के समान, सब का प्रकाशक, एवं समस्त सुखों का वर्षक, पृथिवी के समान सव का आश्रय और अन्तरिक्ष के समान उनका आच्छा- दक हो । और ( अवरैः ) अपने से नीचे के ( देवेभिः ) कर देनेवाले माण्डतिक राजाओं के साथ ( सजूः ) प्रेमयुक्त व्यवहार करता हुआ, उनका प्रेम पात्र होकर और ( परैः च) अपने से दूसरे शत्रु राजाओं के साथ मित्रभाव करके (अन्तर्याने) अपने राष्ट्र के भीतरी प्रबन्ध में ( मादयस्व ) समस्त प्रजानों को सुखी, प्रसन्न कर । 
    अन्तर्यामः ' - यहा अनेन इमाः प्रजा यतास्तस्मादन्तर्यामो नाम। सोऽस्य अयमुदानोऽन्तरात्मन् हितः । श० ४ । १।२ । २ ॥ तेन उह असावादित्य उद्यन्नेव इमाः प्रजा न प्रदहति तेनेमाः प्रजास्त्वाताः । श० ४ । १।२ । १४ ॥ 
    प्रजा का भीतरी प्रवन्ध विभाग 'अन्तर्याम' है। उसके प्रबल होने पर राजा बहुत बलिष्ट होकर भी अपनी प्रजाओं को नाश नहीं करता । इस भीतरी प्रबन्ध में राजा अपने अधीन राजाओं और शत्रु राजाओं से सन्धि करके उनके साध एकमत होकर मित्रभाव से रहता और अपनी उन्नति करता है इसीसे उसकी प्रजा सुरक्षित रहती हैं । शत० ४।१।२ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     मघवा ईश्वरो देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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